साधु अपने रास्ते आगे बढ़ गए (kahani)

June 2003

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शाल्मली का एक वृक्ष था। बहुत बड़ा, ऊंचा भी और चौड़ा भी। पास में छोटे-छोटे झाड़-झंखाड़ भी उगे हुए थे। एक साधु अधर से निकले। दोनों के कुशल समाचार पूछे, वृक्ष से भी और झाड़-झंखाड़ों से भी। दोनों के बीच परस्पर संबंध कैसे हैं? इस बात को भी उसने लगे हाथों पूछ ही लिया। विशाल वृक्ष ने अपने बड़प्पन की विस्तारपूर्वक प्रशंसा की और सौभाग्य सराहा। साथ ही पड़ोसी झाड़ियों का उपहास उड़ाया। झाड़ियाँ क्या कहती? उन्होंने अपनी स्थिति पर संतोष किया और कहा, जिस स्थिति में भी वे हैं, प्रसन्न हैं। बड़े प्राणियों को न सही, छोटों को ही छाया और आश्रय प्रदान करती हैं।

बहुत दिन बाद साधु इसी रास्ते से फिर वापस लौटे। वृक्ष का पता न था और झाड़ियों का विस्तार हो चला था।

पूछा तो पता चला कि एक बार भयंकर तूफान आया था। उसकी चपेट में अनेकों वृक्ष आए और वह शाल्मली भी उसी चक्रवात में धराशायी हो गया। साधु ने दुःख मनाया, साथ ही झाड़ियों से पूछा, आप लोग उस कुचक्र से कैसे बच गई?

झाड़ियों ने कहा, ‘देव! हमें अपनी तुच्छता का ज्ञान था, सो तूफान आते ही सिर झुका लिया, तूफान ऊपर से उतर गया। वृक्ष अकड़ा रहा और अंधड़ से टकराकर धराशायी हो गया।’

अहंता और नम्रता के अंतर पर विचार करते हुए साधु अपने रास्ते आगे बढ़ गए।


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