विज्ञान का सराहनीय सृजनात्मक योगदान

June 2003

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अनुवाँशिकी विज्ञान एवं जैव विज्ञान दो ऐसी विधाएँ है जिन्होंने मनुष्य- जीव जन्तु, पशु-पक्षी के बारे में ऐसे रहस्यों से पर्दा उठाया है जिसे असंभव नहीं तो अशक्य तो कहा ही जा सकता है। सचेतन जीव जन्तुओं की प्रकृति, उनके क्रियाकलाप, कई पीढ़ियों तक प्रभावित करने एवं अनेक पीढ़ियों के संस्कारों को दोनों ही विधा ने न केवल जाना, समझा अपितु ऐसे तकनीक विकसित किये जिससे उनके प्रजातियों के मूल गुणों को मनोवाँछित रूप में ढाला जा सकता है। पशु पक्षियों के नस्लों में सुधार किया जा सकता है।

अब दोनों ही विधाओं के वैज्ञानिक वनस्पति जगत् एवं पेड़ पौधों पर शोध-परीक्षण कर रहे हैं एवं सफलता भी उन्हें मिल रही है। क्या जंगली एवं जहरीले पौधों को उपयोगी बनाया जा सकता है? क्या रेगिस्तानी, बंजर एवं समुद्र तट के अम्लीय-क्षारीय भूमि को उपजाऊ एवं हरा-भरा बनाया जा सकता है? क्या आम, संतरा, नीबू, नारियल जैसे फल एक वर्ष में ही उपलब्ध हो सकते हैं? जैसे जटिल सवालों का हल उनने प्रस्तुत किया है।

‘द इंटरनेशनल सेन्टर फॉर जेनेटिक इन्जी. एण्ड बायो टेक्नालॉजी इटली’ एवं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली की जेनेटिक इन्जी. एवं बायो टेक्नालॉजी एक नई तकनीकी खोज रहे हैं जिससे भारत ही नहीं विश्व के खाद्य उत्पादन एवं कृषि क्षेत्र में अभूतपूर्व क्राँति हो सके। इटली का इंजीनियरिंग विभाग मुख्यतया औद्योगिक माइक्रोबायोलॉजी के क्षेत्र में ऐसे तकनीकी विकसित कर रहा है जिसके द्वारा ऊर्जा क्षेत्र में नई क्राँति हो सके।

जेनेटिक इंजीनियरिंग एवं बायोटेक्नोलॉजी की नई खोजें बड़े व्यापक क्षेत्र तक फैली हुई है। जो औद्योगिक एवं हरित क्राँति द्वारा चिकित्सा, कृषि जगत्, खाद्य उत्पादन आदि की पुरानी मान्यताओं एवं आविष्कारों को तोड़ रही हैं और वह असम्भव कार्य सम्भव कर दिखा रहा है, जिसके बारे में सोचा भी नहीं गया।

वनस्पति एवं कृषि जगत् में इस आधुनिकतम विज्ञान का सदुपयोग एक ऐसी क्राँति है जिसने तीसरी दुनिया (प्रगतिशील देशों) के खाद्यान्न संकट को एक अंश तक ठीक कर दिया है। फिर भी इसके माध्यम से उत्पन्न हुई हरित क्राँति, खाड़ी देशों की भुखमरी की समस्या को दूर नहीं कर सकी है और न ही समुचित समाधान दे सकी है। फिर भी यह विज्ञान बढ़ती जनसंख्या को खाद्यान्न संकट से मुक्त करने हेतु नित-नवीन योजनाएँ बना रहा है। हालाँकि हरित क्राँति को जिस ढंग से व्यापक होना चाहिए था वह अभी नहीं हो सका है, क्योंकि प्रकृतिगत सीमाओं के कारण वह भी अपनी सांसें गिन रहा है।

जीन (जेनेटिक्स) पर निर्भर बड़े-बड़े फार्म उत्पादन इस बात की साक्षी देते हैं कि थोड़े-साधन एवं सीमित जल से अधिक उत्पादन संभव नहीं, बल्कि इसके लिए उत्कृष्ट स्तर के उर्वरक, रसायन, कीटनाशक एवं पर्याप्त पानी चाहिए। इन कारणों से बड़े-बड़े कृषि फार्म रंग-बिरंगे सुन्दर फूल, बड़े फल, आश्चर्यचकित करने वाले गेहूँ, गन्ने, चावल की किस्में बनाकर गिनीज बुक में अपना नाम तो अंकित कर सकता है लेकिन विश्व स्तर पर खाद्यान्न संकट का सम्पूर्ण समाधान नहीं ढूंढ़ सकता। दूसरी ओर आवश्यकता इस बात की है कि जीन तकनीक ऐसी नवीन खोज करें, जिसके अंतर्गत किसी विशेष क्षेत्र वातावरण में उत्पन्न होने वाले, मनुष्य जीवन के लिए उपयोगी वनस्पतियों, पेड़-पौधे विश्व के किसी भी कोने में कम साधनों एवं लागत मूल्य में व्यापक स्तर पर उत्पादन दे सके। जीन एवं बायो इंजीनियरिंग तकनीक इन दिनों कुछ इसी दिशा में कार्य कर रही है। यह विज्ञान कम्प्यूटर विज्ञान से जुड़कर और प्रभावी हो गया है, जिसके कारण खाद्यान्न, फल-फूल-पौधों की परिसीमाएँ टूट रही हैं।

मनुष्य जाति अपने परिकर के लिए उपयोगी पौधों में से मुट्ठी भर का ही प्रयोग कर पाया है। इसके अतिरिक्त लाखों प्रकार के ऐसे वृक्ष वनस्पति हैं जिसके बारे में न तो वह जान सका है और न ही उसका सदुपयोग कर पाया है। इसके कारण लाखों प्रकार के वनस्पति पेड़-पौधे अनुपयोगी एवं उपेक्षित पड़े हुए हैं। किन्तु नई तकनीक इस क्षेत्र में उन्हें उपयोगी प्रभावी एवं सहज उपलब्ध कराने का प्रयास कर रही है। अखाद्य एवं जहरीले फलों को खाने योग्य एवं पौष्टिक बनाया जा रहा है। रंग एवं स्वाद को दूसरे तरह के फलों जैसा ही सुन्दर और मधुर बनाया जा रहा है। पौधों-वृक्ष वनस्पतियों के बाह्य आकार प्रकार को भी जीन के माध्यम से मनोवाँछित बनाया जा रहा है। इस नई तकनीक के प्रयास सफलता के अंतिम छोर पर है तथा कई क्षेत्रों में असाधारण सफलतायें हस्तगत हो चुकी हैं।

नये शोध निष्कर्ष के अनुसार सभी पेड़-पौधों तथा फसलों को अनुवाँशिकी रोगों-खरपतवार-कीट-पतंगों से बचाने के लिए रोग प्रतिरोधी बनाया जा सकता है। रोग प्रतिरोधी सामर्थ्य किसी भी रोग के एक जीन से एक पौधे में प्रवेश कराने के बाद अनेकों पौधों तक पहुँचाया जा सकता है। एक बार यह संभव होने के बाद कीटनाशक दवाओं, खाद्य उर्वरकों का खर्च पूर्णतः बच जाता है।

ऐसे नवीन पौधों की प्रजाति विकसित की गई है जो रेगिस्तान अथवा समुद्र तटों पर नमयुक्त क्षारीय या अम्लीय एवं शुष्क क्षेत्रों में भी पर्याप्त उत्पादन देता है। इस तरह के पौधे रेगिस्तान एवं बंजर भूमि को भी हरा-भरा बना देते है। इण्टरनेशनल राइस रिसर्च इन्स्टीट्यूट के डायरेक्टर डॉ. एम.एस. पैट्रिक के अनुसार फिलीपिन्स, मनीला, दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया के 86.5 मिलियन हेक्टेयर भूमि को इस विधा से उपजाऊ बनाया गया है। जो अम्लीय एवं क्षारीय कारणों से बंजर पड़ी हुई थी। इस तरह की योजनाओं से भारत के रेगिस्तानों, समुद्र तटों एवं बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने की योजना को भी क्रियान्वित किया जा रहा है।

कोशिका योग (सेल फ्यूजन) भविष्य के लिए बड़े ही आश्चर्यजनक संभावनाओं को अपने आँचल में समेटे हुए है। दो तरह के प्रजाति वाली कोशिका को जोड़कर ऐसी नई प्रजाति उत्पन्न करना, जो दोनों ही मूल स्वरूप से भिन्न हों। प्रकृतिगत परिसीमाओं से परे शोधकर्त्ता ऐसे एन्जाइम्स का उपयोग कर रहे हैं, जो कठोर सेल की दीवार को तोड़कर पौध सेल में घुल−मिल जाता है। दो विभिन्न प्रजातियों के प्रोटोप्लास्ट (वनस्पति के जीवन आधार तत्त्व) को अब एक बनाया जाता है और जब यह एक सेल के रूप में विकसित होता है तो उसमें दोनों ही प्रजातियों के गुण पूर्णरूप में पाये जाते हैं। जीव-जन्तु, मनुष्य आदि के सम्बन्ध में यह प्रयोग खतरनाक भले ही हो किन्तु वनस्पति जगत् के लिए यह एक वरदान ही है। इसी विधा से अखाद्य एवं जहरीले समझे जाने वाले वृक्ष वनस्पतियों को खाने योग्य उपयोगी बनाया जा रहा है। जंगली पेड़-पौधों में आम, नीबू, संतरा, सेब की फसलें व्यापक स्तर पर उत्पन्न हो रही हैं। ये वृक्ष वनस्पतियाँ विपरित परिस्थितियों में भी भरपूर उत्पादन देती हैं।

नई शोध के अनुसार मक्का, गेहूँ, चावल-बाजरा की ऐसी प्रजातियाँ विकसित की गई हैं जो खुद ही अपनी जड़ों में नाइट्रोजन उर्वरक बनाती हैं, नाइट्रोजन चक्र को संतुलित रखती हैं। इसके लिए बाह्य रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता नहीं होती। नाइट्रोजन उर्वरक भारी उत्पादों का महत्त्वपूर्ण आधार है जो सामान्य वर्ग के किसानों को महंगा पड़ता है। इसीलिए इस नई शोध को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। तभी नई विधा का लाभ गरीब एवं प्रगतिशील राष्ट्र को मिल पायेगा।

बायोटेक्नोलॉजी ने नाइट्रोजन चक्र को नियंत्रित करने वाले सस्ते उर्वरकों का समाधान ढूंढ़ निकाला है। उनने बहुत ही सस्ता नीला-हरा एलगी (पौधा) हारा बायोटेक्नोलॉजी से बायोफर्टीलाइजर बनाकर धान्य उत्पाद को बढ़ाया है। यह बायोफर्टीलाइजर 25 से 30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन उर्वरक प्रति हेक्टेयर प्रति फसल में उत्पन्न कर सकता है, जिसके माध्यम से 16 प्रतिशत उत्पादन बढ़ाया गया।

जेनेटिक इंजीनियरिंग की दूसरी महत्त्वपूर्ण खोज है ‘टिशू कल्चर’। इसने वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन किया है। इसके माध्यम से लाखों पौधों के एक कोश को बढ़ने, विकसित होने वाली समय सीमा को कम कर दिया है। जो वनस्पति-पेड़ पौधे 4 से 10 वर्ष में फल-फूल के माध्यम से उत्पादन कर सकते हैं वे इस नई विधा से मात्र एक वर्ष में ही इस योग्य बनने लगे हैं। इससे समय सीमा कम हो गई है। अब नारियल, आम, नीबू, चंदन की लकड़ी, लौंग एवं दूसरी बहुमूल्य जड़ी-बूटियों के लिए लम्बे समय तक प्रतीक्षारत नहीं रहना होगा। अब वह शीघ्र ही उपलब्ध हो जायेगा।

जेनेटिक इंजीनियरिंग एवं बायो तकनीक ने तीसरी दुनिया के लोगों के स्वास्थ्य सुधार के लिए महत्त्वपूर्ण शोध किया है। जिसके कारण 1995-96 में तीन वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार भी दिया गया। एन्टीबायोटिक्स की नई खोजों ने अनेकानेक रोगों से जूझने के लिए अमोघ अस्त्र प्रदान किया है। इस क्षेत्र में इसकी सेवाओं को कैसे नकारा जा सकता है। अब इसका संकल्प दुनिया से भुखमरी एवं खाद्यान्न संकट को दूर करने का है। समुद्र तटीय क्षारीय अम्लीय एवं बंजर भूमि को हरा-भरा बनाने का है। अखाद्य वनस्पतियों, जंगली पेड़-पौधों में स्वादिष्ट एवं मधुर फल उत्पन्न करने का है। इस क्षेत्र में जो सफलता मिली है, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अब जेनेटिक इंजीनियरिंग का सार्थक उपयोग हो रहा है। मानव मात्र के कल्याण हेतु इस विधा के प्रतिभाशालियों का ध्यान आकर्षित हुआ है। विज्ञान का ऐसा ही सार्थक उपयोग सदैव सराहा जायेगा।


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