मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी बदलनी होगी

June 2003

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पैमाने गलत हो, मूल्याँकन की कसौटियाँ विकृत हो तो उसकी परिणति भी वैसी ही होती है। आज समाज में अन्याय, अनीति तथा भ्रष्टाचार की जो कुटिल व्यूह रचना दिखाई पड़ती है, उसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व उन गलत मापदंडों पर भी है, जिनके आधार पर मनुष्यों को तोला-नापा जा रहा है, जो उनके व्यक्तित्व के मूल्याँकन की कसौटी बने हुए हैं।

लोगों ने देखा कि कितनी विशाल कोठी है, सोने की तरह दमक रही है। खिड़की, दरवाजे और रोशनदान रंगीन काँच से जुड़े हुए हैं। रेशमी पर्दे झिलमिला रहे हैं। मूनलाइट बल्ब जल रहे हैं। स्टीरियो डेक से गायन-वादन के स्वर गूँज रहे हैं। आँखें चकाचौंध हो गई, कान लालायित हो उठे, मन कह उठा-साक्षात स्वर्ग का निवास है। बड़ा भाग्यवान है इसका मालिक! कितना बड़ा आदमी होगा! लाखों-करोड़ों होंगे इसके पास। अनायास श्रद्धा जागी और उस अनजान धनवान की ओर झुक गई। उसका बड़े आदमी के रूप में मूल्याँकन हो गया। वह चर्चा और प्रतिष्ठा का पात्र बन गया। कोई अवसर आने पर सम्मान आदि के रूप में उसका मूल्य व्यक्त कर दिया जाता है।

धन तो प्रतिष्ठा का विषय रहा है, इसलिए कि यह परिश्रम एवं पुरुषार्थ का साक्षी होता है। प्राचीन समय में जब धन को प्रतिष्ठा के विषयों में स्थान दिया गया था, लोग यह कल्पना तक भी नहीं कर सकते थे कि इसका अर्जन-उपार्जन अनीति के मार्ग से भी किया जा सकता है। अनुचित तथा अनीतियुक्त पैसे और पैसे वाले से लोग ऐसे डरते और घृणा किया करते थे, जैसे विषैले सर्प से। लोग किसी का अन्न खाने, दान या सहायता लेने में हजार प्रकार से सोच-विचार किया करते थे। उसी की सेवा अथवा सहायता स्वीकार की जाती थी, जिसकी कमाई के विषय में यह विश्वास रहता था कि प्रत्यक्ष तो क्या परोक्ष में भी इसका पैसा अन्याय अथवा अनीति से दूषित नहीं हुआ है। यदि इस प्रकार का संदेह भी हो जाता था तो समाज का बच्चा-बच्चा लक्षाधिपति होने पर भी उस धनवान को नीची नजरों से देखा करता था, जिससे उसकी धनाढ्यता ही उसके लिए काल-फाँस की तरह दुःखदायिनी हो जाती थी।

समाज द्वारा इस कठोर मूल्याँकन से अनुशासित तब के धनवान अपने व्यापार एवं व्यवसाय में पराकाष्ठा तक पवित्र एवं सत्यपरायण रहकर विशुद्ध परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उस स्थिति तक पहुँचकर प्रतिष्ठा के पात्र बनते थे, साथ ही यह विशुद्धता भी तब तक मान्यता नहीं पाती थी, जब तक उसका पवित्र धन पवित्र एवं पुनीत कामों में व्यय नहीं होता था। इस प्रकार आय-व्यय दोनों की समान पवित्रता से तुलकर ही कोई धनवान धन के आधार पर उसी प्रकार समाज में मान्यता एवं श्रद्धा के भाजन बन पाते थे, जैसे जन-सेवा के अन्य कार्य करके कोई सत्पुरुष।

पहले जहाँ धन की मात्रा का कोई मूल्य नहीं था, मूल्य था उसकी आय-व्यय की रीति-नीति का, वहाँ आज आय-व्यय की रीति-नीति का तो कोई मूल्य रहा नहीं, धन की मात्रा को ही श्रेष्ठत्व का मापदंड मान लिया गया है। स्थिति बिलकुल विपरीत हो गई है, इसलिए उसका प्रभाव एवं परिणाम भी उलटा हो गया है।

लोगों ने कोठी, कार, एयर कंडीशनर, टी.वी. − वी.सी.आर, मोबाइल फोन आदि वैभव विलास और आमोद-प्रमोद की चहल-पहल देखी नहीं कि बड़ा आदमी मान लिया और मान-सम्मान देना शुरू कर दिया। मान-सम्मान जैसी बहुमूल्य चीज और श्रद्धा जो कि त्याग, तपस्या, साधना, सेवा, श्रम और पुरुषार्थ के आधार पर मिलती है, वह इतनी सस्ती और आसानी से मिल सकती है, तब क्या किसी ने भाँग खाई है कि वह प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने के लिए संयम तथा साधना करता फिरे, सेवा और त्याग का प्रमाण देता घूमेँ क्यों न किसी प्रकार से धन बटोरकर उसे प्राप्त किया जाए? जनता द्वारा धन के प्रभाव में आकर दी जाने वाली इस सस्ती सामाजिक प्रतिष्ठा ने लोकप्रियता के प्यासे लोगों को अंध आर्थिकता में डुबो दिया है।

यही नहीं कि लोग किसी धन-वैभव देखकर ही प्रभावित हो जाते और उसे प्रतिष्ठापूर्ण दृष्टि से देखने लगते हों, बल्कि उसका धन उसके अथवा समाज के किसी हित में आता हो अथवा न आता हो, अब तो यहाँ सब कुछ स्वीकार्य और सम्माननीय है। संप्रति प्रतिष्ठा का स्तर इतना गिर गया है, सम्मान इतना सस्ता हो गया है कि जनसामान्य की दृष्टि से देखते हैं। राग-रंग में डूबा रहना, शराबखोरी और फैशनपरस्ती में लगा रहना, ब्याह-शादियों में धूम-धड़ाका करते रहना, बड़ी-बड़ी दावतों में पैसा पानी की तरह बहाना तक लोगों के लिए सम्मान श्रद्धा का प्रतीक बन गया है। लोग उन्हें उदार, बड़ा आदमी, शाही खर्च कहकर सम्मान करने लगे हैं। जनता की इस सस्ती श्रद्धा और अस्तरीय मापदंड ने भी समाज में मूल्यों का पतन तथा अधिकाधिक धनसंचय बढ़ाने में बहुत कुछ योग दिया है।

हर विचारशील व्यक्ति का नैतिक कर्त्तव्य है कि वह किसी के वैभव-विलास से प्रभावित होकर उसका मूल्याँकन करने से पहले यह अवश्य देख ले कि इस संपत्ति का आधार नीतिपूर्ण रहा है या नहीं? उसके साधन, उपायों तथा युक्तियों की पवित्रता की खोज कर लेना आवश्यक है, जिससे कि गलत कामों के त्रुटिपूर्ण मूल्याँकन का अपराध न हो जाए।

जब यह बात स्पष्ट दिखाई देती है कि अमुक व्यक्ति छल-कपट, छीना-झपटी, चोरबाजारी, मुनाफाखोरी और भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कोठी-पर-कोठी बनाए जा रहा है, बैंक बैलेन्स, कारोबार बढ़ाता जा रहा है, तब क्या उसे अधिकार है कि वह हमारी प्रशंसा अथवा सम्मान की भावना को पाए और क्या हमें ही अधिकार है कि हम उसे कुछ दें? यदि हम दोनों में से कोई भी ऐसा करता है तो अनधिकार चेष्टा करता है, समाज में अंधे अर्थवाद को बढ़ावा देकर भ्रष्टाचार फैलाने में सहयोग करता है, जो कि सामाजिक अपराध एवं आध्यात्मिक पाप है।

आज यदि लोग धनाढ्यता का मूल्यांकन करना छोड़कर साधनों और उसके शुचिताप्रधान उपायों पर ध्यान रखने लें तो समाज में पैसे के लिए फैला हुआ भ्रष्टाचार बहुत कुछ कम हो सकता है। अनुचित साधनों के कारण यदि धनिकों का मूल्याँकन कम हो जाए, उनका वह अन्याय उपार्जित वैभव घृणा एवं तिरस्कार का प्रसंग बन जाए तो निश्चय ही लोग आवश्यकता से अधिक धनवान बनने की लिप्सा छोड़कर सम्मान रक्षा के लिए कमाई के उचित एवं उपयुक्त उपाय अपनाने के लिए विवश हो जाएं।

आर्थिक क्षेत्र की ही तरह धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में भी जनता के मूल्याँकन की कसौटी खोटी हो गई है। वहाँ अब मापदंड का आधार व्यक्तित्व का खरापन न होकर वक्तृता की चतुरता को माना जाने लगा है। जो वाक्जाल में जनता को जितना उलझा दे, उसे उतना बड़ा महात्मा स्वीकार किया जाता है, किन्तु वास्तविक संतों की सीधी=सच्ची बात की उपेक्षा की जाती है। सादगी और सरलता अब अध्यात्म क्षेत्र के मूल्याँकन का आधार नहीं रहा, यह आज की सबसे बड़ी विडंबना है। सर्वसाधारण संतों को भी अब भौतिकता के रंग में रंगा देखना चाहते हैं और यह भी उनकी परख का एक पैमाना होता है। यह ठीक है कि आज के भौतिक युग में आवागमन का साधन बैलगाड़ी नहीं हो सकता। समय जिस रफ्तार से चल रहा है, उस गति से हमें भी चलना पड़ेगा, अन्यथा हम पर पिछड़ेपन का अभिशाप आ लदेगा। इस दृष्टि से कार, कंप्यूटर आज के आवश्यक साधनों में सम्मिलित हो गए हैं। अतएव इस आधार पर धर्मक्षेत्र में मूल्याँकन नहीं होना चाहिए। देखा यह जाना चाहिए कि किसने व्यक्तित्व को गरिमापूर्ण बनाकर धार्मिकता की वास्तविक श्रद्धा को संजोया है। इससे कम में न तो धर्म का प्राण तो व्यक्तित्व की शालीनता में छुपा हुआ है, व्यवहार की चतुरता और बहिरंग के आडंबर में नहीं। जिसने अंतरंग को जितना परिष्कृत कर लिया, उसे उतना महान माना जाना चाहिए। सज्जनता की यह माँग है। धर्मक्षेत्र में संतत्व का यही चिह्न होना चाहिए और इसी आधार पर व्यक्तित्व की परख भी। किन्तु खेद है कि नासमझ जनता की अंधश्रद्धा, अंधविश्वास और मूल्याँकन की खोटी कसौटी ही हित-अनहित का निर्देशन नहीं करने दे रही।

यह बात बड़ी सीमा तक सत्य मानी जा सकती है कि यदि लोकजीवन में विवेकशीलता उभर सके और मूल्याँकन के विषय में अपनी श्रद्धा एवं प्रतिष्ठा का मापदंड ठीक करके सही कसौटी काम में लाई जाए तो जीवन के व्यापक दायरे में छाया भ्रष्टाचार बहुत हद तक दूर हो सकता है। अर्थ तथा धर्म के क्षेत्र में देखने, परखने और मूल्याँकन करने का सही मापदंड, साधन और सच्ची कसौटी व्यक्तित्व के कथन और आचरण की एकरूपता ही है। जिस दिन लोकमानस इस तथ्य को हृदयंगम कर तटस्थ आचरण पर उतारू हो जाएगा, उसी दिन सुधार-शुभारंभ सुनिश्चित हो जाएगा।


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