गंगा-गायत्री

June 2003

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गंगा और गायत्री में भारत माता की चेतना समायी है। ये दोनों ही देव संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान की पुण्य धाराएँ हैं। इनमें देवभूमि भारत के पुरातन ऋषियों के महातप का प्रखर परिचय है। सूर्यवंश की पीढ़ियों की तप साधना ‘भगीरथ’ के रूप में अवतरित हुई। और महातपस्वी भगीरथ की महासाधना ने माता गंगा के अवतरण को सम्भव-साकार किया। गंगा की लहरों ने भारत देश की चेतना में नवप्राण भरे।

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के पावन दिन भगवती गंगा के अवतरण के साथ एक दैवी सन्देश भी अवतरित हुआ- भारतवासियों! राष्ट्र निर्माण के लिए पीढ़ियों को बिना थके- बिना रुके अनवरत तपना पड़ता है। अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए किसी अन्य की ओर न निहारो, किसी और से कोई आशा न रखो। स्वयं महातप का संकल्प करो। भगीरथ तप ही उज्ज्वल भविष्य का एक मात्र रास्ता है।

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के इसी पुण्य दिन ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के तप को भी पूर्णता मिली। राजस स्वभाव वाले महाराज विश्वरथ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बने। आदिशक्ति माता गायत्री उनके अन्तःकरण में अवतरित होकर युगशक्ति के रूप में भारत माता की सम्पूर्ण चेतना में संव्याप्त हो गयीं। मानव की व्यक्तिगत एवं सामूहिक चेतना में सम्भावनाओं के नए द्वार खुले। प्रकृति का परिमार्जन सम्भव है। जीवन बदल सकता है। मानव जाति माता गायत्री के आँचल को थामे तो सही। चौबीस अक्षरों वाले गायत्री महामंत्र की साधना से दुर्भाग्य का सौभाग्य में रूपांतरण सहज सम्भव है।

गंगा के जलकणों और गायत्री के मंत्र अक्षरों में भारत और विश्व में बसने वाली सम्पूर्ण मानवता के लिए सन्देश है- पुकार है। तुम कर सकते हो- भगीरथ की तरह, विश्वामित्र की तरह। तुम्हारे तप में देश की समृद्धि है- तुम्हारे तप से ही देश की संस्कृति है। भगीरथ और विश्वामित्र के वंशजों! जागो, उठो और महातप की कठिन साधना के लिए संकल्पित हो जाओ। महातप से ही माँ गंगा की जलधारा निर्मल होगी। महातप से ही माँ गायत्री की साधना वरदायिनी सिद्ध होगी।


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