संक्राँतिकाल में उभरकर आ रहा है आध्यात्मिक समाजवाद

June 2003

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आज विश्व संक्रमण काल से गुजर रहा है। भयंकर उथल-पुथल भरे इस वर्तमान काल के पीछे मानवीय विकास का एक लम्बा इतिहास समाहित है। प्रारम्भिक स्तर में मनुष्य शारीरिक दृष्टि से बलशाली था, परन्तु वह कल्पना एवं विचारणा के क्षेत्र में मंद था। पी लीबर मैन ‘मैन आन ह्यूमन इवाल्यूशन’ में कहते हैं कि इस काल में शारीरिक वीरता ही सर्वश्रेष्ठ गुण था। आवश्यकता भी इसी की थी। मनुष्य को शरीर बल के सहारे ही सिंह व्याघ्र जैसे हिंस्र प्राणियों से लड़ना पड़ता था। इसके पश्चात् मानसिक संकल्पना व भावना का उदय हुआ, जिससे परिवार व्यवस्था पनपी, समाज सुसंगठित हुआ। कालक्रम में बौद्धिक विकास रूपी, एक नये आयाम का विकास हुआ। सभ्यता का नया स्वरूप दिखाई देने लगा। पुरानी मान्यताओं के स्थान पर नए आधार गढ़े गये। भावना के बदले बुद्धि का वर्चस्व हुआ। सब कुछ बदलाव की चरम सीमा तक पहुँच गया। यही है वह संक्रमण काल जिसमें हम जी रहे हैं।

बौद्धिक समाज की यह अवस्था अत्यन्त खतरनाक सिद्ध हो रही है। इस समाज में बुद्धि की कृति एवं विकृति दोनों अवस्थाएँ हैं। एक ओर जहाँ बुद्धि ने चमत्कार किया वहीं उसकी विकृतियों ने समूचे मानवीय समाज को संकट की स्थिति में डाल दिया है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी ठीक ऐसा ही कहा है- आज की सभ्यता पर संकट का बादल गहरा रहा है। सभी तरफ टूटन, विघटन का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है। धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक क्षेत्र में किसी बड़े तूफान का खतरा मण्डरा रहा है। समस्या के समाधान के लिए किसी व्यवस्था के आने के पूर्व ही उसमें दरकन की संभावना निहित होती है।

बीसवीं शताब्दी के समाज का अवलोकन करने पर पता चलता है कि यह रूसो के प्रजातन्त्र, मार्क्स के साम्यवाद और नीत्से के नास्तिकवाद के इर्द-गिर्द घूमता रहा। प्रजातन्त्रवादी आँधी ने राजतंत्र को उखाड़ फेंका। भगवान् बुद्ध के समय लोकतंत्र एवं राजतंत्र का सम्यक् विकास हुआ था। कालान्तर में राजतंत्र का समापन होता चला गया। मुगल, पेशवा आदि इतिहास के पृष्ठो में गुम हो गए। प्रजातंत्र के प्रबल वेग के परिणामस्वरूप दुनिया के अधिकाँश देशों में प्रजातंत्र शासन स्थापित हुए। अपना देश भी पिछले 50 सालों से प्रजातंत्रात्मक शासन पद्धति से चल रहा है। अमेरिका का लोकतंत्र एक मिसाल है। लोकतंत्र का निर्माण मानव समाज को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए विकसित किया गया था। यह आपसी विचार विमर्श, परस्पर सहयोग, सहिष्णुता, उदारता के गुणों से विकसित तथा पल्लवित होता है। आँतरिक लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए संसद, कार्यपालिका, स्वतंत्र न्यायपालिका, स्वतंत्र प्रेस, स्वायत्त चुनाव व्यवस्था के बीच सम्बन्ध होना अनिवार्य है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव पर ही लोकतंत्र का भविष्य सुरक्षित रहता है। महान् विचारक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने लोकतंत्र की सफलता के लिए तीन मनोभावों पर बल दिया है- सहिष्णुता और संयम, अनासक्त भाव तथा कानून के प्रति आदर।

प्रजातंत्र प्रजा के हाथों से निकलकर अवाँछनीय तत्त्वों के पास पहुँच जाने से यह संकटों से घिर गया है। प्रजा के स्थान पर निहित स्वार्थी लोगों ने इसे अपने अधिकार क्षेत्रों में ले लिया है। प्रजा तो मात्र मूकदर्शक बनकर खड़ी रही। इसलिए इसने भी प्रजातंत्र पर अस्वीकृति की मुहर लगा दी। जब प्रजातंत्र पर प्रजा की आस्था एवं विश्वास उठ जाता है तो वह अधिनायकवाद में बदल जाता है। पाकिस्तान जैसे देश इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। अमेरिका, फ्राँस का राष्ट्रपति शासन भी कोई कारगर उपाय नहीं दे पा रहा है। लैटिन अमेरिका, जापान एवं अफ्रीका के कुछ देश भी इसी समस्या से त्रस्त हैं। अपने देश का लोकतंत्र भी मर्यादा और लोकतंत्र की सारी सीमाओं को लाँघ चुका है। इतिहास प्रसिद्ध घोटाले एवं महाभ्रष्टाचार, चुनाव में धाँधली इसी का परिणाम हैं। चुनाव तो होते हैं, परन्तु किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाता। गठजोड़ की राजनीति पनप रही है। आज की राजनीति राजनीति न रहकर कूटनीति बन गई है। दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध हो गया है। राजनीति के लिए भ्रष्टाचार एक मजबूरी बन गई है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र का पतन होता चला जा रहा है।

प्रजातंत्र ने जैसे प्रजा के लिए प्रारम्भिक आकर्षण पैदा किया, ठीक उसी तरह साम्यवाद का भी आरम्भिक उत्साह कम नहीं था। आर्थिक समानता का नारा निर्धन और अभावग्रस्त वर्ग को बहुत आकर्षक लगा। इस लुभावने नारे एवं सुखद स्वप्नों ने समाज में हलचल मचा दी। अनेक देश साम्यवादी बन गए, जो नहीं बन सके वहाँ भी साम्यवाद से प्रभावित लोगों की संख्या कम नहीं रही। एच. सी. चारलेटन ने प्रकट किया है कि यह एक प्रकार का समाज है जो पृथ्वी पर स्वर्गराज्य की स्थापना करेगा। सी जी टामौन ने यहाँ तक बताया कि साम्यवाद इसी की शिक्षाओं का क्रियात्मक प्रकटीकरण है। भारत में इसका प्रवेश 1976 में हुआ। इसके बाद यह सन् 1992 तक विभिन्न रूपों में प्रचलित रहा। इसका सर्वमान्य और प्रचलित अर्थ है उत्पादन और वितरण के साधनों पर लोगों के नाम पर जनता की सरकार का नियंत्रण। समाजवाद के अनुसार पूँजी पर अधिकार व्यक्ति का नहीं वरन् सरकार का होना चाहिए। यह व्यक्तिगत पूँजीवाद का विरोधी है एवं सरकारी पूँजीवाद की स्थापना करना है। सन् 1992 के बाद भारत में आर्थिक उदारीकरण के प्रवेश करने के साथ समाजवाद का संकट गहराने लगा।

साम्यवाद को समता के आदर्श के साथ जोड़ा गया। वस्तुतः साम्यवाद में समता की सोच आधी अधूरी है। आकर्षण का यह जाल सोवियत रूस, चीन एवं वियतनाम एवं यूरोप के कई देशों को अपनी चपेट में ले लिया। समय के प्रवाह में साम्यवाद के दोष उभरकर सामने आये। साम्यवाद ने सर्वप्रथम व्यक्तिगत चेतना को समाप्त कर दिया। व्यक्ति को शासन का मूक बधिर एवं गुलाम होकर जीने के लिए विवश होना पड़ा। कुछ नए सुधार, सुझाव, संशोधन प्रस्तुत करने के बदले बौद्धिक अपंगता का शिकार होना पड़ा। व्यक्ति की मौलिकता एवं स्वतंत्रता के खो जाने से सामान्य जन विद्रोह पर उतारू हो गया। हर साम्यवादी देश इस कट्टरपन के विरुद्ध आवाज उठाने लगा। साम्यवाद का सबसे प्रबल समर्थ देश प्राचीन रूस में साम्यवाद लाने के लिए स्टालिन के सी.आई.डी. ने 50 लाख और एक करोड़ के मध्य राजनैतिक तथा कृषकों का निर्मम हत्या की थी। बाद में सोवियत रूस के प्रशासन ने सबको पदोन्नति का लालच देकर ‘केजीपी’ द्वारा जासूसी का कार्य करवाया गया। पति पत्नी के बीच स्नेह सौहार्द्र की भावना नहीं रही। पता नहीं कौन किसकी जासूसी करने लगे, कौन ‘केजीपी’ का सदस्य हो? ईस्टरमेन के अनुसार निर्दोष व्यक्तियों के खून बहाने का आँकलन करने में स्टालिन एक झील, हिटलर छोटा तालाब और मुसोलिनी एक कुँए के सदृश्य ठहरेंगे।

स्वतंत्रता की चाह में जन विद्रोह ने सर्वप्रथम सोवियत रूस को विखण्डित कर डाला। यह लहर पोलैण्ड, यूगोस्लाविया तथा चीन तक पहुँची। बर्लिन की दीवार ढहने के साथ ही उसकी सारी आशाएँ चकनाचूर हो गई। भले चीन आज सबसे बड़ा साम्यवादी देश है परन्तु इसकी सामाजिक दशा अत्यन्त विस्फोटक है। चीन के तिआनमैन चौक में हुए निहत्थे नवयुवकों का नरसंहार इसकी उबलती चिंगारी है। जिन देशों में अभी भी साम्यवादी शासन या प्रभाव मौजूद है वे भी परिवर्तन की तीव्र माँग करने लगे हैं।

प्रजातंत्र एवं साम्यवाद के पश्चात् पूँजीवाद का आगमन एवं अनुगमन प्रारम्भ हुआ। पूँजीवाद को आर्थिक एकाधिकारवाद भी कहा जा सकता है। पूँजीवाद छल बल कौशल के साथ शोषण का पर्याय है। जब पूँजीवाद अपने देश से बाहर पाँव पसारता है तब वह साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लेता है। प्राचीन समय में यह सैनिक आक्रमण के द्वारा प्रारम्भ होता है, जबकि आज की स्थिति में व्यापार से आरम्भ होता है। अपने व्यापार को व्यापक करने के लिए हर प्रकार के हथकण्डे अपनाए जाते हैं। इसका मुख्य आधार होता है कच्चा माल। अंग्रेज भारत से कच्चा माल लेकर ही अपने व्यापार को सारे विश्व तक फैलाने में सक्षम हो सका था।

विश्व में व्यापार के लिए गैट का गठन किया गया। अब इसका स्थान विश्व व्यापार संगठन ने ले लिया है। यह नया संगठन विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के बाद भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था का तीसरा स्तम्भ माना जा रहा है। इसमें विश्व के लगभग 125 देशों ने अपनी सहमति प्रदर्शित की है। जिस प्रकार पूँजीवाद व्यक्ति स्वतंत्रता से आरम्भ होकर पूँजीपतियों के एकाधिकार में परिवर्तित होता है उसी प्रकार साम्राज्यवाद भी अंतर्राष्ट्रीय स्वतंत्र व्यापार से आरम्भ होकर शक्तिशाली पूँजीपति राष्ट्र के आधिपत्य में बदल जाता है। वर्तमान समय में एकाधिकार का साम्राज्यवाद अमेरिकी हाथों में कैद हो गया है। विश्व व्यापार संगठन भी अमेरिका की सोची समझी एक रणनीति है। इस नीति के तहत कोई भी देश छोटा हो या बड़ा, विपन्न हो या सम्पन्न अंतर्राष्ट्रीय दबावों और इन दबावों से संचालित आर्थिक, राजनीतिक प्रक्रियाओं से संबंधित होने के लिए विवश है। विकसित देश विकासशील देशों में पूँजी निवेश कर उसके सारे कच्चे माल पर अधिकार करने पर तुले हुए हैं। पेटेंट कानून इसीलिए विनिर्मित किया गया है। अब तो बौद्धिक सम्पदा, और सेवा जैसे पवित्र क्षेत्र का भी व्यापारीकरण कर दिया गया है। इस तरह व्यापारिक संगठन ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया है।

पूँजीवाद की स्थिति शुरू से ही अच्छी नहीं रही। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ही 1921 में पूँजीवादी जगत् में औद्योगिक आर्थिक संकट फूट पड़ा। 1929 में पूँजीवाद के इतिहास का सबसे बदतर और अत्यंत विध्वंसकारी विश्व आर्थिक संकट आरम्भ हुआ। पूँजीवाद 1937 में एक नये आर्थिक संकट के भंवर में फँस गया। आर्थिक विकास की असमानता के फलस्वरूप, विश्व अर्थ व्यवस्था की पूँजीवादी पद्धति का संकट अधिक गम्भीर हो गया। जर्मनी, इटली और जापान ने अपनी अर्थ व्यवस्थाओं के सैन्यीकरण का मार्ग अपनाया। इसके परिणाम स्वरूप विश्व को द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में भयावह त्रासदी झेलनी पड़ी। इसके बाद अमेरिका साम्राज्यवाद ने उपनिवेशवाद के नये रूपों के नवउपनिवेशवाद का सहारा लिया तथा अनेक विकासशील देशों को अपने जाल में फँसा लिया। गैट और विश्व व्यापार संगठन इसी का परिणाम हैं। पूँजीवाद अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र के आधिपत्य में है। एकाधिकार और शोषण की यह भावना समाज समुदाय के लिए अत्यन्त घातक होती है।

प्रजातंत्र, साम्यवाद और पूँजीवाद की असफलता को देखकर मनीषी पीटर एफ डूकर ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘इज कैपिटैलिज्म कमिंग टू एन एण्ड’ में उल्लेख किया है कि विश्व इस समय अपने इतिहास के अद्भुत मोड़ पर है। साम्यवाद मर चुका है, समाजवाद रास्ते से हट गया है और यही हाल पूँजीवाद का भी है। इन सबके अतिरिक्त एक अन्य प्रचण्ड विचारधारा नीत्से का नास्तिकवाद रहा है। नीत्से ने अपनी विचारधारा में एक आकर्षण घोषणा की- ‘ईश्वर मर गया है। हमने और तुमने मिलकर उसे मार दिया।’ यह घोषणा विपर्ययवादी मनोवृत्ति को बहुत भायी। इस दौरान नीत्से की संगीत की आत्मा से त्रासदी का जन्म, प्रफुल्ल, विवेक, पुण्य पाप से दूर, नीति वाक्यों की वंश परम्परा आदि पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई। ईश्वर और आत्मा को अस्वीकार कर देने से उच्छृंखलता और अनैतिकता का बोलबाला बढ़ जाता है। आदर्शवादी ईश्वर के दण्ड से डरता है और अनैतिकता से दूर रहता है। परन्तु नास्तिकवाद इसकी अवहेलना ही करता है।

इससे समाज में धर्म का रहा सहा अस्तित्त्व भी मिटने लगा। धर्म एक ऐसी वस्तु है जो व्यक्ति तथा समाज को बाँधती है। धर्म समाज और जीवन की व्यवस्था और दिशा है। इसे यदि निकाल दिया जाय तो जीवन अव्यवस्थित और दिशाहीन हो जाता है। समाज को बचाने वाली नैतिकता का पाठ धर्म से ही व्यक्ति सीखता है। वह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे चाहो तो स्वीकार किया, चाहो तो फेंक दिया। धर्म से विलगाव का अर्थ है समाज की पूरी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर देना। परन्तु आज के समाज में धर्म को प्रतिगामी एवं अंधविश्वासी कहना फैशन है। तथाकथित बुद्धिवादी प्रगतिशीलता के जोश में धर्म को अफीम की गोली कहते हैं और उसे प्रगति का अवरोधक ठहराते हैं। वस्तुतः यह धर्म नहीं है जिस पर ऐसा कहा गया। वह धर्म का छल है, बाहरी स्वरूप है। इसी धर्म की ओट में समाज के अत्याचारी और अनाचारी तत्त्वों ने मानवता को अनगिनत बार चोट पहुँचायी है। धर्म के नाम पर जितना शोषण, हिंसा एवं नरसंहार हुआ शायद ही किसी अन्य वजह से हुआ हो।

उपरोक्त विचार धाराओं की विफलता के संदर्भ में परम पूज्य गुरुदेव आध्यात्मिक समाज को ही इनका एकमात्र विकल्प मानते हैं। उनके अनुसार आध्यात्मिक समाज की परिकल्पना आध्यात्मिक रीति-नीति को अपनाकर ही संभव है। इसमें बाह्य अनुशासनों, नीतियों, कानूनों के स्थान पर मनुष्य के सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों सद्भाव को उभारने विकसित करने वाले उपचारों की प्रधानता होगी। पूज्यवर के अनुसार यह व्यवस्था मात्र एक परिकल्पना भी नहीं है, बल्कि आज की आवश्यकता और कल की सुनिश्चित संभावना है।

परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार आध्यात्मिक समाजवाद में एकता और समता की भावना प्रबल होगी। इसी की सुखद परिणति ही अगले दिनों विश्व धर्म, विश्व संस्कृति, विश्व भाषा और विश्व राष्ट्र के रूप में दिखाई पड़ेगी। आध्यात्मिक समाज की भावी व्यवस्था ऋषि तंत्र द्वारा संचालित होगी। व्यवस्था क्रम में इसके तीन स्तर होंगे, विचारक, प्रशासक और लोक शिक्षक। इन्हें ही ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षि के रूप में अलंकृत किया जा सकता है। इस समाज में नारी की भूमिका महान् एवं मुख्य होगी। समय-समय पर विभिन्न अतीन्द्रिय द्रष्ट जैसे स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द तथा जीन डीक्सन प्रभृत भविष्यवक्ता ने इस ओर संकेत किया है। महर्षि अरविन्द ने तो आगामी शताब्दी को ‘मदर सेंचुरी’ के नाम से पुकारा है।

आध्यात्मिक समाज की भावी व्यवस्था के पाँच मुख्य आयाम होंगे। इन्हें समाज व्यवस्था, प्रशासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, शिक्षा एवं अर्थ व्यवस्था के रूप में अनुभव किया जा सकता है। समाज में गहरी जड़ जमाई मूढ़ मान्यताओं को बदले बिना मानव जीवन का स्वरूप निर्धारण करना संभव नहीं है। इसी के अभाव के कारण सारी क्रान्तियाँ असफल सिद्ध होती जा रही है। इस समाज में प्रज्ञावान व्यक्तियों का वर्चस्व होगा। यही उच्चस्तरीय व्यक्ति ही इस समाज का नेतृत्व कर सकेंगे। आध्यात्मिक समाज में इनका प्रमुख योगदान रहेगा। लोकतन्त्र का विकेन्द्रीकरण होगा। पंचायती राज ही अपना क्रमिक विकास कर विश्व शासन व्यवस्था संभालेगा। परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार शासन की गतिविधियाँ सुविधा और सुव्यवस्था के वितरण तक सीमित होनी चाहिए। न्याय की समूची प्रक्रिया का हल परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में ‘मानव मात्र एक समान’ से मिल सकेगा। अर्थ व्यवस्था उत्पादन और वितरण के बीच सामंजस्य की व्यवस्था है। पूँजी पर व्यक्तिगत अधिकार के बदले समाज का अधिकार होना चाहिए। इस समाज में हर व्यक्ति को अपने क्षमता के अनुरूप श्रम एवं आवश्यकता के अनुसार साधन मिलेगा।

परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि वर्तमान शिक्षा जीविकोपार्जन का साधन मात्र है। अमेरिकन मनीषी इवान इलिच की विख्यात कृति ‘डिस्कूलिंग सोसायटी’ के अनुसार शिक्षा की दुकानों में बन्द शिक्षण क्रिया अपनी परिणति भौतिकवादी प्रदूषण, सामाजिक ध्रुवीकरण और मनोवैज्ञानिक भावना शून्यता में कर रही है। एक खास आयुवर्ग की सीमा में समेटकर शिक्षा का व्यापारीकरण हो गया है। आचार्य श्री इसके लिए शिक्षण का एक नया तन्त्र विकसित करने की आवश्यकता पर जोर देते हैं, जहाँ शिक्षा कैदमुक्त और सार्वभौमिक हो। आध्यात्मिक समाज में स्वच्छ परम्पराएँ विकसित होंगी। इन्हीं की गौरवमयी अभिव्यक्ति से मानव जीवन संचालित होगा। परम्पराओं के इस क्रम में गुरुदेव ने ऋषि परम्परा, संस्कार, पर्व त्यौहार, साधु ब्राह्मण, वानप्रस्थ एवं आश्रम देवालय तथा तीर्थ परम्परा का प्रचलन किया।

उपर्युक्त प्रकार की सामाजिक व्यवस्था एवं परम्परा का आदर्श स्वरूप आचार्य जी की दार्शनिक दृष्टि तक सीमित नहीं है। इस पर उन्होंने शाँतिकुँज आश्रम में सफल वैज्ञानिक प्रयोग भी सम्पन्न किया है। उनके द्वारा स्थापित शाँतिकुँज को आध्यात्मिक समाज के भव्य भवन का छोटा मॉडल कहा जा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा प्रतिपादित एवं प्रस्तुत आध्यात्मिक समाजवाद का उपरोक्त स्वरूप ही विश्व समाज की स्थापना कर सकता है।


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