परमात्मा के युवराज को यह शोभा नहीं देता

June 2003

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आत्महत्या जिन्दगी से चरम हताशा-निराशा की परिणति है। जब मनुष्य अपने जीवन के प्रति समस्त आशा, उत्साह, उमंग को खो देता है तो उसे सर्वत्र दुःखों का दुसह्य दर्द, असह्य पीड़ा, एवं अंतहीन समस्याएँ खड़ी दिखाई देती हैं। उसे कहीं भी कोई सहयोग-सहायता नजर नहीं आते। वह दुःख के पहाड़ तले दब जाता है और इस विषम एवं भयावह परिस्थिति से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या रूपी आत्मघाती कदम उठा बैठता है। अतः आत्महत्या दुःखों से भागने की चरम कायरता है। परन्तु साहसी-पुरुषार्थी हरेक परिस्थितियों से डटकर सामना करता है, वह अंतिम साँसों तक लड़ता रहता है, घुटने नहीं टेकता। क्योंकि उसे पता है कि जिन्दगी फूलों की सेज ही नहीं, दर्द का समुंदर भी है और उसे पार करना होता है।

आखिर इंसान अपने बहुमूल्य जीवन की यूँ ही क्यों तिलाँजलि दे देता है? तमाम आकर्षणों से भरे इस संसार से मुँह क्यों मोड़ लेता है? आखिर क्यों वह मरना चाहता है? मनोवैज्ञानिक अपने-अपने ढंग से आज की इस ज्वलंत समस्या पर विचार करते हैं एवं राय देते हैं। एक योग मनोवैज्ञानिक के अनुसार व्यक्ति आत्महत्या रूपी जघन्य कदम इसलिए उठाता है क्योंकि या तो वह उस संसार में जीना नहीं चाहता, या वह जीने के प्रति प्रबल आकर्षण आकाँक्षा लिए जी नहीं पाता है। प्रथम कोटि का व्यक्ति एक योगी हो सकता है, जिसका कोई साँसारिक इच्छा एवं आकर्षण न हो और संसार से उसका कोई सम्बन्ध न हो। ऐसे लोगों का मन इस संसार के सतरंगी आकर्षणों में रमता नहीं है बल्कि उच्चस्तरीय लोकों में विचरण करता रहता है। ये आत्महत्या नहीं बल्कि स्वेच्छा से शरीर का त्याग करते हैं। यह उच्चस्तरीय यौगिक प्रक्रिया है, विज्ञान-विधान है। यह वर्तमान आधुनिक मनोविज्ञान की समझ से परे है। शरीर धर्म के पूर्ण हो जाने पर ये शरीर को त्याग देते हैं। स्वामी रामतीर्थ का पद्मासन लगाये जलसमाधि लेना ऐसा ही उदाहरण है।

आत्महत्या का वास्तविक अर्थ है अपने शरीर रूपी दिव्य मंदिर में आत्मा का हनन कर देना, उसे मार देना, दफना देना। औपनिषदिक द्रष्टाओं के अनुसार मानव शरीर ही आत्मा की अभिव्यक्ति का सबसे सुन्दर एवं सर्वोत्तम माध्यम है। इस शरीर को बलात् पीड़ा पहुँचाना या इसको नष्ट करना आत्महत्या कहलाती है, क्योंकि इससे अन्तस्थ आत्मा को अनन्त पीड़ा पहुँचती है, उसके विकास का पथ अवरुद्ध हो जाता है। अतः इस दृष्टिकोण से शरीर का विनाश करना ही आत्महत्या नहीं है वरन् शरीर के रहते हुए भी वे समस्त कर्म जिनसे आत्मा की उन्नति नहीं अवनति होती है आत्महत्या के सदृश्य है। आत्मा के इस उच्चस्तरीय विज्ञान को न जानने के कारण ही आज का मनोविज्ञान मन की उधेड़ बुन में फँसा उलझकर रह जाता है और किसी स्थायी समाधान तक नहीं पहुँच पाता है।

आज के मनोविज्ञान का आधार प्रमुखतया पैथोजेनिक अर्थात् रुग्ण या असामान्य मन का अध्ययन है। इससे तो केवल संतप्त मनःस्थिति से उभरे लक्षणों को गिनाया जा सकता है, परन्तु स्वस्थ मनःस्थिति के बारे में ज्यादा कुछ कहा नहीं जा सकता। आत्महत्या का सम्बन्ध मन की गहराई से है। इससे भी गहरे उतरें तो भावनात्मक धरातल पर उत्पन्न संवेदनात्मक विकृतियाँ उभरती दिखाई देती हैं। जब तक मन एवं भावना की इस अतल गहराइयों का सर्वांग ढंग से अध्ययन, अन्वेषण नहीं होगा, आत्महत्या के यथार्थ कारणों से पर्दा उठना सम्भव नहीं है। योग मनोविज्ञान के द्वारा इस सूक्ष्म एवं गहन कार्य को साकार किया जा सकता है। इससे न केवल आत्महत्या के कारणों का पता लगाया जा सकता है बल्कि इसको रोका भी जा सकता है।

सामान्यतः मनोविज्ञान आत्महत्या के जिन कारणों का अनावरण करता है वह भी महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिक आत्महत्या के कई कारण सुझाते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति किसी घटना विशेष से इतना प्रभावित हो जाता है कि वह एकाएक आत्महत्या कर बैठता है। जीवन संग्राम से लम्बे समय तक लड़ते-जूझते जब उसे लगातार असफलता हाथ लगती है, कहीं भी उसे सफलता की रोशनी दिखाई नहीं देती है। ऐसे में जब वह अपनों से भी सतत उपेक्षा का दंश झेलता है तो अन्ततः वह आत्महत्या को उचित मानता है। व्यक्ति के अहंकार को तीव्र चोट पहुँचने पर भी प्रतिक्रियावश स्वयं को तुरन्त समाप्त कर बैठता है। समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति की प्रतिष्ठ के दाँव पर लगने पर भी ऐसे आत्मघाती प्रयास किये जाते हैं। अकूत सम्पदावानों की सम्पत्ति की भीषण क्षति उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर देती है। अमेरिका में ‘ब्लैक मन्डे’ को कई बिलियनरी, मिलियनरी आत्महत्या कर बैठे, क्योंकि इस दिन उनको करोड़ों, अरबों डालर का नुकसान हुआ था। जिससे उनकी मनःस्थिति डगमगा गई थी।

आज का अर्थप्रधान आपाधापी वाला जीवन केवल अर्थ संचय में ही चरम सुख खोजता है। वह सम्पदा से ही समस्त सुख, शाँति व आनन्द को खरीद लेना चाहता है। और जब यह असम्भव कार्य अंत में दम तोड़ देता है तो स्वयं को सर्वोपरी समझने वाला व्यक्ति असहाय हो आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है। आज के चकाचौंध से भरपूर कार्पोरेट सेक्टर का यही हाल है। इण्टरनेट के तमाम साइटों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि कार्पोरेट एवं पब्लिक सेक्टर के उच्च पदाधिकारियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो गहन चिन्ता का विषय है। यूँ तो इस जीवन से हार मान लेने वालों की कोई विशेष जाति, सम्प्रदाय, वर्ग एवं स्थान से सम्बन्ध नहीं होता है। फिर भी इस आत्महन्ता होड़ में शामिल होने वालों में से अधिकतर 15 से 29 साल के होते हैं। अर्थात् आत्महत्या की यह वृत्ति अधिकतर युवाओं में होती है, जिनकी भावनाओं पर विवेक-बुद्धि का नियंत्रण कम होता है। इसके ठीक विपरीत सर्वेक्षण कार्पोरेट जगत् का है जहाँ बुद्धि के बंजर रेगिस्तान के कंटीले धरातल पर भावना-संवेदना की शीतल ब्यार शुष्क-समाप्त हुई रहती है।

भावनात्मक अभावबोध एवं तीव्र भावुकता दोनों ही आत्महत्या के कारण बनते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में अधिकतर आत्महत्या संवेदनात्मक अभाव के कारण होती पायी गयी हैं, जबकि भारत में इसका मुख्य आधार तीव्र भावुकता बताया जाता है। हालाँकि इसके अन्य अनेक और भी कारण हैं। कुल मिलाकर प्रतिवर्ष हो रही आत्महत्या की दर दिल दहला देने वाली है। पिछले साल के दौरान हमारी जनसंख्या में 24.25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं आत्महत्या की दर 37 फीसदी बढ़ी है।

मनुष्य अपने जीवन एवं समाज से सदा-सदा के लिए दूर चला जाता है। इस दूरी में ही उसे मुक्ति की राह दिखती है। विडम्बना यह है कि वह इस दूरी की कीमत अपने ही बहुमूल्य जीवन को चुकाकर पाना चाहता है। वस्तुतः जीवन कष्ट-कठिनाइयों से निखरता है, दुःख-दर्द के ताप से तपकर पकता है और घोर संघर्ष में विजय का उल्लास मानता है। जीवन निराशा के कुहासे में मिट जाने का नाम नहीं है, असफलता के तीव्र आघात में पीस जाने का पर्याय नहीं है। वरन् जीवन जीवन्त आशा-विश्वास का सुखद सत्परिणाम है। जीवन की उच्चस्तरीय आशा, उमंग और उत्साह किसी भी आपदा-विपदा से भारी है। परमात्म ने मानव जीवन में वह सब कुछ भर दिया है, जिसे जाग्रत् कर वह दिव्य अनुदान-वरदान का अधिकारी हो सकता है। उसकी पहुँच सीधे परमात्मा तक है। वह सृष्टि के समस्त वैभव-ऐश्वर्य का पूर्ण अधिकारी है। उसकी सीमाएँ अनन्त हैं। वह सृष्टि का सर्वोच्च सौभाग्यशाली है। बस उसे अपनी महिमा-गरिमा का बोध भर होना है। उसके अपने आत्मविश्वास के जगते ही वह अपने महनीय स्वरूप को पा सकता है कि वह परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र है।

मानव की इस गरिमा के कारण ही फ्रेंकलिन के. लेन ने अपना उद्गार व्यक्त किया था, कि तमाम विसंगतियों के विरुद्ध मानव को अपने पूरे उत्साह से, पूर्ण पुरुषार्थ से देखना ही इस धरती पर सबसे दर्शनीय दृश्य है। मनुष्य ही है जो असंभव को संभव कर सकता है, अकल्पनीय को साकार एवं अमूर्त को मूर्त कर सकता है। आवश्यकता है तो बस अपने सामर्थ्य को भूले हनुमान को जामवंत के दिशा-निर्देश की, उन मोहाँधकार में डूबे अर्जुन को कृष्ण के मार्गदर्शन की। यह सम्बल मिल जाने पर समुद्र छलाँगने, महाभारत जीतने से भी बढ़कर जीवन को सुन्दर ढंग से जीने का पुरुषार्थ किया जा सकता है। आत्महत्या जघन्य एवं घृणित अपराध है जबकि जीवन पुरुषार्थ का पर्याय है और जीवन को गरिमापूर्ण जीना चरम परम पुरुषार्थ है। यही साधना है, यही सत्य है, जिसे हर इंसान को निरपवाद रूप से अपनाकर श्रेष्ठता के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। इसी में जीवन की सार्थकता है और यही सार्थक जीवन है।


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