“जीवन क्या है भगवान?” प्रश्न ने सभी उपस्थितजनों के चित्त को अपनी ओर खींच लिया। कभी वे भोजन कर चुके तथागत के तेजस्वी चेहरे की ओर देखते, कभी प्रश्न पूछने वाली के मुख की ओर, जिसमें गर्व और श्रद्धामिश्रित भाव थे। पहले के ढलने के साथ दूसरी की चमक बढ़ती जा रही थी।
सचमुच इस पहेली ने कभी-न-कभी हर किसी के मन में उलझन पैदा की है। किसी-न-किसी क्षण हरेक के मन को मथा है, पर नवनीत बिरलों को मिला है। रहस्य की अनुभूति कम ही कर पाये हैं।
तथागत ने एकबारगी सभी की ओर देखा, लगा जैसे उनके अन्तर की उथल-पुथल को पढ़ रहे हों। फिर शान्त स्वर में कहा- “जीवन एक प्रवाह है।” “पर कौन-सा प्रभु? सूत्रमयी भाषा के मर्म को समझ पाना हर किसी के बूते की बात नहीं। प्रवाह यह भी है और वह भी। आपके जीवन की धारा भी गतिमान है और मेरे जीवन की भी। गति में साम्य होते हुए भी दिशा में विरोध है। फिर किस जीवन की यथार्थता समझा जाये?” “प्रवाह का ऊर्ध्वमुख होना यथार्थता है और अधोमुख होना आभास।” बुद्ध ने ठहरकर वाणी को गति दी। “मुर्दे सड़ते हैं, गलते हैं, विषैले कीटाणुओं को बिखेरते हैं, वातावरण को प्रदूषित करते और अनेकों को अपना जैसा होने के लिये प्रेरित करते हैं, पर यह जीवन नहीं है, प्रचलन नहीं है। विवेक का अवलम्बन लेना होगा। प्रचलन तो ऊपर से नीचे गिरने का दिखायी पड़ता है। आकाश में विचरने वाली उल्कायें प्राणविहीन हो जमीन पर आ गिरती हैं। हिमशिखरों की बर्फ पिघलकर गहरे गड्ढे वाली नदी बनकर खारे समुद्र में जा मिलती है। यह है संसार का अधोमुख प्रवाह, जिसका अनुसार करने वाले अधोगामी चिन्तन और प्रयास अपनाते हैं। परन्तु अग्नि की तरह कुसंस्कारों, कल्मषों को तहस-नहस कर धधकती ज्वाला का रूप ले ऊर्ध्वमुख प्रवाहित होने का नाम ही जीवन है।”
सुनकर सभी चेहरे फक पड़ गये। तथागत के इस कथन ने उन्हें सोचने पर विवश किया कि वे जिन्दा है अथवा जीवित मुर्दा। “पर क्या मुर्दे भी जीवित हो सकते हैं- प्रभु!” जैसे तैसे साहस जुटाकर उसने अगला प्रश्न किया।
“हाँ, अवश्य।”
“पर किस प्रकार?” स्वर में उत्साह था।
“जीवितों प्राण प्रवाह से जुड़कर। संघर्ष के मंत्र में दीक्षित होकर। उल्टे को उलट कर सीधा करने का बीड़ा उठाकर, पशुता की ओर से मुख मोड़कर। वासना, तृष्णा, अहन्ता से पल्ला छुड़ाकर देवत्व की ओर बढ़ चलना ही एकमात्र उपाय है।” “किन्तु मेरी स्थिति तो एक विवश की सी है।” क्या इनसे उबर पाना संभव है?” पहला प्रश्न पूछने वाली देवी ने कहा।
“विवशता नहीं मोह कहो- देवी! संसार में विवशता कहीं भी लेशमात्र नहीं है। हम स्वयं ही अपने को मोह की जंजीरों से जकड़ने और बाद में विवश होने का दिखावा करते हैं। जंजीरें सोने की हों या लोहे की, बाँधती दोनों ही है। इन्हें खोले बिना त्राण नहीं। खोलने का नाम ही संघर्ष है। संघर्ष की शुरुआत जीवन की शुरुआत है।”
संघर्ष! संघर्ष!! संघर्ष!!! शब्द हथौड़े की तरह उसके कानों में बजने लगें। जैसे एक नवीन प्राण प्रवाह उसकी रग-रग में प्रवाहित हो रहा था। अतीत के दृश्य एक-एक करके आँखों में तैरने लगे।
वैशाली जनपद की नगरवधू धन और सम्मान, वैभव और विलास। अधिकतम जिसे संसार चाहता है- सभी कुछ तो मिला उसे। पर क्या कभी तृप्ति मिली है? नहीं। शान्ति मिली? नहीं। उसके एक इशारे पर कितने ही अपनी जान न्यौछावर करने को तैयार हो जाय, किंतु अंतर्मन की जलन क्या कभी शान्त हुई? नहीं। वह अपने आप में बुदबुदायी। वह सुखद क्षण था।जब उसके मन में भगवान बुद्ध को निमंत्रण देने का विचार आया। कितना अंतर्द्वंद्व उठा था मन में। एक तीव्र संघर्ष ही तो था। सही कहते हैं भगवन्- संघर्ष ही जीवन है। सचमुच अभी तक वह मृत्यु थी, अब जी उठी है। प्रभु ने मृत संजीवनी जो प्रदान की। प्रभ सामने बैठे मुस्कुरा रहे थे।
“सचमुच में मृत्यू थी?” भगवन् आपने मुझे जीवन दिया। अब एक और कृपा करें।”
“निःसंकोच कहो।”
बोल पड़ी आम्रपाली- “कर्तव्य समझायें।”
“ संघर्ष की मृत संजीवनी औरों को प्रदान कर। मुर्दों में नवजीवन का संचार कर। सब जी उठेंगे। संघर्षशीलता, उमगने- पनपने, विकसित होने भर की देरी है।”
“ तैयार हों- भगवन्। आप मुझे प्रव्रज्या देने की कृपा करें।” आम्रपाली का स्वर था।
तथागत ने आनन्द की ओर देखा। आनन्द ने अपना उत्तरीय उतार कर आम्रपाली को भेंट किया। क्षण भर के लिए वह भीतर गयी, पर दूसरे ही क्षण वह उसी उत्तरीय वह धारण किये सामने आयी। कंजूक और कौशेय, आभूषण और श्रृंगार कुछ भी नहीं था। उसके नेत्र सजग थे। उसमें आकर अर्हन्त बुद्ध के चरणों में मस्तक रखा। बुद्ध ने सिर पर हाथ रखकर कहा- “उठ कल्याणी! जाकर द्वार-द्वार बता कि जीवन क्या होता है? अपनी स्वयं की अनुभूति को सभी से कह। सभी को इस रहस्य का बोध करा कि जीवन प्रवाह को किस तरह मोड़ा जाता है।”
वह बोल उठी “प्रभु। आज से और अभी से सम्पदा का कण-कण धर्म कार्य के लिये समर्पित है। सप्तभूमि प्रसाद जन जागृति के केन्द्र के रूप में विकसित हो- यही कामना है।”
“अवश्य पूरी होगी।” तुमने अपनी सम्पत्ति और समय को मानवहित में नियोजित कर युग धर्म को पूरा किया है। सही अर्थों में जीवन क्या है? तुम आचरण द्वारा बता सकोगी।”
बुद्ध के धर्मसंघ की वह प्रथम परिव्राजिक बनी। लोगों उसे संघर्ष की देवी के रूप में जाना। इस तरह मोड़ी जाती है जीवन की धारा- वैशाली के नागरिक आज प्रत्यक्ष रूप से देख रहे थे। उस पुण्यघड़ी से अन्तिम श्वाँस तक वह युगावतार का सन्देश देती रहीं। समाज ने अपमानित, तिरस्कृत किया, किन्तु एक दिन सभी ने उनकी प्रामाणिकता स्वीकार की। संघर्ष से परिवर्तन का मर्म समझा व नवीन जीवन की ओर अग्रसर हुये।