विनम्रता (Kahani)

March 1998

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महात्मा की अन्तिम घड़ी निकट थी। सब शिष्य और प्रशंसक उन्हें घेरकर बैठ गये। मरते समय सब प्रशंसा करने लगे। एक शिष्य ने कहा- ऐसा ज्ञानी हमने नहीं देखा, शास्त्र तो मानो कंठस्थ थे। महात्मा ने थोड़ी आँखें खोलीं। जैसे किसी ने ठण्डा जल छिड़क दिया हो। थोड़ी देर में दूसरा शिष्य बोला-ऐसा दानी भी नहीं देखा। सदा देने को ही तैयार रहता। फिर लम्बी साँस ली महात्मा ने सन्तोष की।तब तक तीसरा शिष्य बोला- सेवा की भावना तो बाबा के रग-रग में कूट-कूट कर भर दी गयी थी। महात्मा के चेहरे पर कुछ मुस्कान फूटी फिर सबको चुप होते देख महात्मा जी बोल पड़े- अरे तुम में से किसी ने मेरी विनम्रता के बारे में तो कुछ कहा ही नहीं। प्रशंसा मरते दम तक सहाती है। इसकी भूख सदैव बनी रहती है।


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