समाज सेवा बाद में- पहले आत्मसुधार

March 1998

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“आप क्या सोचते हैं कि व्याख्यान देते घूमने से समाज की सेवा हो जाती है?” एक ने एक दिन पूछ ही लिया उनसे। उस समय एक पूरे जिले के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे वे। न जाने कितनी बार उन्हें जेल जाना पड़ा। ऐसी कोई कठिनाई नहीं, जिसे उन्होंने न उठाया हो अथवा उठाने के लिये तत्पर न हों।

“हमारी सेवा साधारण घरेलू सेवा से थोड़ी अलग तरह की है।” प्रश्न ने उन्हें चौंकाया नहीं, सुनकर झल्लाये भी नहीं। हंसते हुए उत्तर दिया था- “हम स्वच्छता, सावधानी, जीवनविद्या का प्रचार करते हैं।स्वयं हम इन्हें न रखें तो लोग सीखेंगे कैसे? हम जनता के विचारों को जाग्रत, परिमार्जित करते हैं। ठीक दिशा दिखाना और उधर चलने की प्रेरणा देना हमारा काम है। यही हमारी सेवा है। जनजागरण से अधिक महत्त्व की सेवा और क्या होगी?”

बड़ी विलक्षण प्रतिभा है उनकी। युक्तिपूर्ण उत्तर देना तो जैसे स्वभावगत विशेषता है। वक्तृत्व शक्ति की तो पूछिये मत उनकी वक्तृत्वता सुनकर तो यदा-कदा लोग यह भी मानने लगते हैं कि जिसमें वक्ता बनने की योग्यता नहीं, वह समाज की सेवा कैसे करेगा? वे तो साधारण बातचीत में भी चुटकियाँ लेते हैं, उपदेश देते, व्याख्यान से ही करते चलते हैं। गाँधी बाबा ने जो आत्मनिरीक्षण, आत्मशोधन की प्रबल प्रेरणा दी थी किसी दूसरे ने उसे कितना ग्रहण किया, यह कहना तो कठिन है, किन्तु उन्होंने उसे बड़ी गम्भीरता से लिया था। यह प्रेरणा ही उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में ले आयी थी, यह कहना कुछ असंगत न होगा। समाजसेवा को उन्होंने एक साधन माना था- आत्म-शुद्धि का। यह आत्मशोधन की प्रेरणा उनके भीतर कभी मन्द भले ही पड़ी हो, सुप्त नहीं हुई और आज तो पता नहीं वह कुछ ज्यादा ही जग पड़ी।

‘व्याख्यान’ देने से ही समाज का कल्याण हो जायेगा। उस दिन एक के द्वारा ही क्यों, अनेकों के द्वारा अनेकों बार पूछे गये ऐसे सवालों के जवाब उन्होंने दिये थे। जवाब भी ऐसे कि पूछने वाले सुनकर चुप रहने के लिये विवश हुए बिना न रहे। आज जब कोई प्रश्नकर्ता नहीं। जब सर्वत्र उनके स्वागत में भीड़ जयध्वनि करती, मालायें सजाये खड़ी रहती है, यह प्रश्न उनके मन में प्रबल क्यों होता चला जा रहा है? उनके भीतर बैठकर कौन उनसे इतने तीखे स्वर में बार-बार पूछता है, इसका कोई समाधान वे नहीं कर पाते।

हम स्वच्छता, सावधानी, अनुशासन का प्रचार करते हैं। खुद इन्हें जीवन में न उतारें तो लोग कैसे सीखेंगे? आज उनका यह स्वयं का जवाब जैसे उनके मस्तिष्क में धधककर जल उठा है।

कितनों ने हमारे व्याख्यानों से स्वच्छता की शिक्षा ली? कितनों ने सावधानी सीखी? कितनों ने अनुशासन का पालन करना अपनाया है? निराशा से सिर झुक गया उनका।

स्वयंसेवक मेरे जैसे बाल रखते हैं। मेरे समान नंगे सिर रहते हैं। यही चप्पल पहनते हैं। यह घड़ी न सही, घड़ी बाँधते हैं। उन्होंने कभी इस बात का गर्व किया था कि लोग रहन-सहन में उनका अनुकरण करने लगे हैं। उनके जैसी धोती पहनना, वैसा ही कुर्ता बनवाना, कुर्ते के ऊपर का बटन इन्हीं की तरह खुला रखना, अब तो आस-पास के लोग भी कुछ बातों में उनकी नकल करते हैं।

इनमें अनेकों त्रुटियाँ हैं। बोलने में कुछ गर्दन एक ओर झुकाकर बोलते हैं, चलने में हाथ कुछ ज्यादा ही हिलाते हैं। हाथ धोने में.... अब रहने दीजिये त्रुटियों की बात। कमियाँ किसमें नहीं होतीं? पर यह है क्या? उनकी कमियाँ इतनी व्यापक क्यों होती चली जा रही हैं। लोग कमियों की इतनी ठीक-ठाक नकल क्यों करते हैं?

व्यापक-व्यापकतर-व्यापकतम होते जा रहे हैं उनके दोष। जैसे सम्पूर्ण दिशायें, पूरा आकाश मैला-घिनौना होता जा रहा है उनके दोषों से। आँखें बन्द कर लीं। कोई वज्र -कर्कश स्वर में पूछ रहा है उनसे- “क्या यही है तेरे व्याख्यानों का प्रभाव? यही समाज की सेवा की तूने।”

एक वह भी तो था। था नहीं, है- आज बरबस याद हो आयी अपने मित्र की। दुबला-पतला, कुछ ललाई लिये गेहुँआ गोरा शरीर, गंभीर गोलमुख, घुटा सिर, बड़ी-सी चुटिया, विबाईयाँ भरे नंगे पैर, खादी का मटमैला कुर्ता, खूब मोटी कुछ मटमैली धोती-विद्यापीठ में सभी चिढ़ाते रहते थे। चमड़े की चप्पल की जगह लकड़ी की चट्टियाँ पहनता था। चुटिया और जनेऊ की तो काफी हंसी होती थी, पर था बड़ा गम्भीर। उसी गम्भीरता का प्रभाव था कि विद्यापीठ के जीवन में भी कुछ दिन कुछ छात्र चोटी रखने और संध्या करने लगे।

दोनों विद्यापीठ में साथ-साथ पढ़े थे। उन दिनों तो जैसे विद्यापीठ की शिक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र ही था- समाज-सेवा। देशसेवा की प्रबल प्रेरणा ने ही इस संस्था की नींव रखी। देश के स्वाधीनता संग्राम में इसके शिक्षकों और छात्रों ने कितना बलिदान किया। यह क्या किसी से छुपा है। वह भी तो इन्हीं में से एक है।

पर वह वक्ता तो नहीं है। स्मृति रेखायें सिमट-सिमट कर उनके मन की कैनवास पर एक चित्र तैयार कर रही थीं। वह तो साधारण बातचीत में भी शब्दों को तौल-तौलकर मुख से निकालता है, जैसे कोई बहुत बड़ी सम्पत्ति खर्च कर रहा है। दस शब्द की जगह चार में काम चला सके तो वह साढ़े चार बोलने वाला नहीं। विद्यापीठ से वह अपने घर चला गया। इधर अब यदा-कदा उनके बारे में थोड़ा-बहुत पता चल पाता है।

गाँव वाले उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। यों तो वह खेती करता है। दोपहर विश्राम के समय चरखा चलाता है। घर में उसने चरखे लाकर रख दिये हैं। खेत में उसने कपास बोना शुरू कर दिया। घर में चरखे चलें तो बाजार में कपड़े नहीं लेने पड़ते।

कभी-कभी वह आस-पास की गलियाँ झाड़ देता है। गाँव के लोग पता नहीं क्यों उसका इतना सम्मान करते हैं, शायद इसलिये कि रोज शाम को वह पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर लोगों को रामायण सुनाता है। लोगों को कहता है- तुम अपने−आप पढ़ो तो कितना आनन्द आयें। बड़े- बूढ़े भी अब उससे क.....ख.....ग पढ़ते हैं। भोजन के बाद रात्रि में लगती है उसकी पाठशाला। अब लोग इधर-उधर कूड़ा डालते डरते हैं, “भैया देखेंगे तो झाड़ू लेकर जुट पड़ेंगे।” उसका पूरा गाँव साफ रहने लगा।

सबेरे- सबेरे एक मील जाकर गंगा-स्नान करता है। संध्या-गीता का पाठ तो जैसे उसके जीवन का अंग है। ‘देखा-देखी पाप, देखा-देखी पुण्य’ सो गाँव के तो जैसे अब सभी गंगा स्नान, संध्यापाठ करने वाले हो गये। स्त्रियों की चर्चा मत कीजिये, उनमें तो सृष्टिकर्ता ने श्रद्धा बाँटते समय एक बहुत बड़ा भाग दे रखा है। अब तो साधारण हलवाहे तक स्नान करके सूर्य भगवान को एक लोटा जल चढ़ाते हैं, तब मुँह में दाना जाता है।

सब कुछ याद आने लगा। अतीत की रेखाओं और वर्तमान के रंगों ने मिलकर एक चित्र तैयार किया। प्रतीक को देखकर प्रतीक्य के मिलन की अभिलाषा जगना स्वाभाविक है, एक तो मित्र से मिलने की चाह, दूसरे सुना है उसने किसी साधु की संगति पाई है, तो यह जिज्ञासा भी।

“कितने स्वयंसेवक हैं यहाँ?” यहाँ आने पर गाँव की स्वच्छता, लोगों की तत्परता ने उन्हें चकितकर दिया था। यह उनकी सरकारी यात्रा नहीं थी। उनका आना सहसा हुआ है। पहले से कोई तैयारी हो यह संभव नहीं।

“हम सभी स्वयंसेवक ही हैं सम्पूर्ण बाबू।” उनके मित्र दयानन्द ने छोटा-सा उत्तर दिया। “मेरा मतलब तो ऐसे लोगों से है जो बराबर यहीं रहकर आश्रम का काम करते हैं।”

अब उनकी समझ में सारी बात आयी। स्पष्टीकरण आवश्यक था। “यह आश्रम नहीं है, यह तो एक सज्जन ने अपना खाली मकान पूरे गाँव को दे दिया है। हममें से जिसे अवकाश मिलता है- यहाँ आकर बैठता है। वैसे तो यह हमारी रात्रिशाला, पंचायत, अतिथिशाला और जो भी सामूहिक काम आ पड़े सबका स्थान है।”

कोई स्वयंसेवक नहीं, कोई नेता नहीं। एक बार उन्होंने चारों ओर देखा। मन ही मन वह कह रहे थे- बापू की बात का मर्म तो देवदत्त ने समझा।

“यहाँ के लोग आपकी ही नकल करते हैं?” थोड़ी देर पीछे उन्होंने बात चलते हुए पूछ लिया था। वैसे उनका मन कहता था - इसकी नकल पूरा देश करने लग जाये तो बापू का सपना आज ही साकार हो उठे।

“नहीं तो।” देवदत्त ने सिर हिला दिया। “अच्छे काम लोग समझकर करें, यह नकल नहीं है।” देवदत्त के उत्तर की जगह उनका ध्यान लोगों की ओर अधिक था। उनकी आँखें चारों ओर घूम रही थीं। जहाँ पहुँचना, वहीं की अधिक से अधिक परिस्थिति समझ लेने का उन्हें पुराना अभ्यास है। लेकिन यहाँ उन्हें आश्चर्य हो रहा था, कोई देवदत्त की नकल करता नहीं लगता। देवदत्त थोड़ा आगे झुककर चलते हैं, उनके कुर्ते की दो एक बटन टूटी ही रहती है। बोलते समय वे प्रायः आने बायें हाथ की अंगुलियाँ समेटकर मुट्ठी बना लेते हैं लेकिन दूसरों में तो कोई ऐसा नहीं दिखता, जिसमें ये बातें आयी हों। परन्तु उनकी चुटिया व्यापक नहीं हुई, उसका कारण? यह कारण उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।

“सुना है तुम किसी साधु के पास जाते हो?” उनकी बात सुनकर देवदत्त मुस्कराया, बोला- “अच्छा! अच्छा!! संध्या समय टहलता भी हो जायेगा गंगा किनारे और सन्तदर्शन भी।” वैसे देवदत्त को अपने इस मित्र के बदलाव पर थोड़ा आश्चर्य था।

“तनिक वह गाय का गोबर उठा लाना। एक अंजलि तो होगा ही।” पहुँचते ही साधु ने आदेश झाड़ दिया। विचित्र था वह साधु भी। न जान, न पहचान, एक दूध-सी उजली खादी पहले कोई भला आदमी दर्शन करने आया तो उसे प्रणाम करके बैठते-बैठते गोबर उठा लाने की आज्ञा दे दी गयी। आदमी भी कोई साधारण नहीं- उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री।

“आप बैठिये।” देवदत्त ने उन्हें रोका और स्वयं उठने लगे। “उन्हें ही जाने दो भाई! वह तो गाय का पवित्र गोबर है।” साधु महाराज ने देवदत्त को रोक दिया।

“हमें स्वच्छता रखने और कूड़ा उठाने का अभ्यास है।” वे हंसकर उठे। इतने ग्रामीणों के सामने साधु की बात न मानना उचित नहीं जान पड़ा। गाय का गोबर गीला था। कुर्ते को ऊपर चढ़ाकर किसी प्रकार उठा लिया उन्होंने। हाथ की अंजिल कपड़े से दूर किये बहुत संभालते हुए चले आये किसी तरह। भले ही उन्होंने गांवों की सफाई में थोड़ा- बहुत भाग लिया हो, भले ही टोकरी भरते और उठाते समय के उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे हों, किन्तु उनकी एक-एक अंगभंगी कह रही थीं- कितना गन्दा उलझन भरा काम है यह।

“यहीं रख दो।” साधु ने कह दिया। गोबर भरे हाथों को धोने जा रहे थे, तब तक दूसरी आज्ञा मिली- “वह पुस्तक उठा लाओ और तनिक पोंछ दो उसे।”

“मैं हाथ धो लूँ।” उन्होंने देख लिया था कि देवदत्त कुएं से पानी ला रहा है।

“हाथ पीछे धो लेना।” साधु बोला- “पहले पुस्तक साफ करके दे दो।”

“महाराज पुस्तक में गोबर लग जायेगा। वह एकदम गंदी हो जायेगी।” यह साधु उन्हें पहली दृष्टि में ही बड़ा विचित्र लगा था। अब बहुत कुछ विश्वास हो गया था, शायद समय भी... वह कुछ और सोचते इससे पहले साधु के शब्द उनके कानों में पड़े, वह कह रहे थे- “बाबू सम्पूर्णानन्द! एक छोटी-सी किताब उठाने और साफ करने में तो तुम पहले अपना हाथ देखते हो और इतने बड़े समाज के दोष दूर करने चले हो, समाज-सेवा करने चले हो अपनी ओर देखते ही नहीं।” साधु के शब्दों में पर्याप्त गंभीरता थी- “तुम्हारे हाथों में गोबर लगा है, तो जिन-जिन पुस्तकों को छुओगे, वे मैली हो जायेंगी। तुम्हारे भीतर बुरा हो तो तुम समाज में अपना क्षेत्र जितना बढ़ाओगे, उसमें उतनी ही बुराई फैलाते जाओगे।”

शब्दों से झरते भावों को वे ग्रहण करते रहे। साधु की महानता और अपनी क्षुद्रता उन्होंने परख ली। महानता का पथ-प्रदर्शक वह साधु उनका गुरु बना और उसके शब्द गुरुमंत्र, जिसकी गूँज जीवन के अंतिम पल तक उनके कानों में रही “पहले अपने दोष दूर करो तब समाज के दोष दूर करने चलो।”

वस्तुतः आत्मसाधना ही वास्तविक समाज-सेवा की कुँजी है।


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