गृहस्थ एक तपोवन (Kahani)

March 1998

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महारानी विक्टोरिया के जीवन में एक बहुत मार्मिक प्रसंग है-एक दिन उन्होंने अपने पति अल्बर्ट की किसी बात पर चिढ़कर कह दिया “महारानी मैं हूँ “। महारानी के इस अहंकार की चोट खाकर अल्बर्ट का पौरुषेय स्वाभिमान जाग उठा, वे वहाँ से उठे और अपने विश्राम कक्ष में जाकर लेट गये। भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। महारानी के व्यंग्य के कारण उनका हृदय बुरी तरह झुलस गया था।

महारानी अपने पति की वेदना ताड़ गई। वे उनके विश्रामकक्ष के पास गई और बाहर द्वार खटखटाया। अल्बर्ट ने पूछा-”कौन है? विक्टोरिया ने अपने उसी प्रशासनिक लहजे में उत्तर दिया-”महारानी विक्टोरिया”। अल्बर्ट उत्तर सुनकर यथावत चुप रहे, उन्होंने उठकर दरवाजा खोलना तो दूर कुछ बोले भी नहीं। अब कहीं जाकर विक्टोरिया को अपनी भूल समझ आई। उन्होंने पुनः दरवाजा खटखटाया। अल्बर्ट ने पुनः प्रश्न किया-कौन? इस बार महारानी ने मृदुल स्वर में उत्तर दिया-”आपकी प्यारी पत्नी।” अल्बर्ट का सारा क्रोध, सारा दुःख दूर हो गया। उन्होंने उठकर द्वार खोल दिये। दोनों ने हृदय पुलकित हो उठे, मन का सारा गुबार क्षण भर में धुल गया। सुखी गृहस्थ के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे का पूरक समझें। अपने को दूसरे से बड़ा मानना वह हेय धारण है, जिससे दाम्पत्य सौमनस्य चूर-चूर हो जाता है। -गृहस्थ एक तपोवन (वाङ्मय क्र. 61)

*समाप्त*


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