हरी बाबा का बाँध

March 1998

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गंगा की जल की उफनती लहरें किनारों के अनुशासन को तोड़ती तिरस्कृत करती बढ़ती जा रही थीं। जहाँ तक नजर जाती, जल ही जल दिखायी दे रहा था। स्थिति बाढ़ की थी। किसानों को हजारों एकड़ जमीन जलमग्न थी। कितने ही परिवार बेघर-बार हो गये थे। सैकड़ों पशु पानी में बह गये। प्रकृति के इस प्रकोप से ग्रसित बदायूँ (उत्तर प्रदेश) जिले के गँवा ग्राम के निवासी गुमसुम थे। बाढ़ को देखकर उसाँसे भर लेते थे। समझ में नहीं आ रहा था क्या करें?

उन्हीं दिनों एक संत गाँव में पधारे। प्रवेश करते ही दिखायी पड़ा- दुर्दशा का ताण्डव नर्तन। घूम-फिरकर स्थिति का जायजा लिया, ग्रामवासियों से परिस्थितियों की जानकारी ली। पूछा-”अब तक इसके लिए क्या किया गया?’

“सरकार ने निवेदन।” अनेकों कण्ठों से वाणी निकली। इसके अतिरिक्त और कुछ-सभी की ओर दृष्टि घुमाते हुए उनका अगला सवाल था।

“भला इस भीषण प्रकोप के सामने हम लोग और करते भी क्या? “ प्रतिवर्ष धन-जन की हानि सहने के अलावा।” भीड़ से घिरे साधु ने वाक्य पूरा किया। “आप लोग कुल ग्रामवासी कितने हैं? कुछ क्षण सोचते हुए उन्होंने कहा।”

“एक हजार युवक और अधेड़, स्त्री, बच्चों, वृद्धों को मिलाकर यह संख्या तकरीबन ढाई हजार के आस-पास हो जायेगी। वे बोले-कर्मठता की कसौटी पर इसमें से यदि एक हजार भी खरे उतरें, तो दो हजार भुजदण्ड क्या कुछ नहीं कर सकते? जिनमें से इस आपत्तिकाल में कुछ करने का उत्साह है, कल हमारे साथ आयें।

और अगले दिन उन्होंने प्रातः “हरि बोल” का नारा लगाया और अपने एक हाथ में फावड़ा और दूसरे हाथ में टोकरी लेकर चल दिये बाँध बनाने के लिए। वर्षा थम चुकी थी। जल किनारों की मर्यादा स्वीकारता जा रहा था। गाँव के सैकड़ों स्त्री-पुरुष उनके पीछे चल पड़े। हरिबोल का सामूहिक स्वर उच्चरित होने लगा, मिट्टी खुदने लगी। बाँध तैयार। इस अद्भुत दृश्य को देखने आने वालों की तादाद कम न थी। जो अभी आता कार्य में संलग्न समुदाय के साहस व कर्मनिष्ठा की सराहना किये बगैर न रहता। आस-पास के गाँव वाले अपनी भागीदारी बाँटने आने लगे। दिन−प्रतिदिन श्रमदानियों की संख्या बढ़ती जा रही थी।

उन दिनों की अंग्रेज सरकार का भी ध्यान टूटा। संत के प्रेरक व्यक्तित्व के सामने उसे घुटने टेकने पड़े। अनेकों ओवरसीयर तथा इंजीनियर भी आ जुटे। अगली बरसात के पूर्व ही बाँध बनकर तैयार हो गया। मनुष्य ही क्यों उस क्षेत्र के पशुओं को भी राहत मिली इस बाँध पर किये गए कार्य ने शत सहस्र लक्षाधिक नेत्रों से अपनी ओर आकर्षित किया। सर्वत्र आत्मनिर्भरता की सराहना की गयी। हर किसी के मुँह से निकला कि यदि ऐसे संत नेतृत्व को संभाल लें तो लोकजीवन का उद्धार हुए बिना न रह सके।

लोकजीवन के उद्धारक यह संत थे-हरिबाबा जिनके नाम पर बना ‘हरिबाबा का बाँध’ आज भी उनके कर्तृत्व का मुखर स्मारक है। बाँध बन जाने के बाद बाबा ने वहाँ एक कुटिया बना ली। अभी उनका काम समाप्त कहाँ हुआ था। इस क्षेत्र में परिव्याप्त नैतिक पतन उन्हें इस गंगा की बाढ़ से भी भयंकर प्रतीत हुआ। जो प्रतिवर्ष धन-जन को नष्ट करता था। गाँजा, शराब जैसे अनेकों दुर्व्यसनों में बँधे-फँसे लोग अपनी जीवन संपदा को यों ही फुलझड़ी की तरह जलाकर खुश हो रहे हैं। यह देख उनका निर्मल मन कुछ करने के लिए आतुर हो उठा। वह अकेले थे, पर इससे क्या? निविड़ अंधकार से निपटने के लिए जब माचिस की एक तीली अपने को जलाने का साहस सँजोकर प्रकाश प्रकट करती है तो एक ही क्यों अनेकों दीपक उससे अपने को ज्योतिर्मय कर लेते हैं, प्रकाश बाँटने लगते हैं। कीर्तन-सत्संग का क्रम चल पड़ा। इसमें आने वाले हर एक को वे सदाचार की सीख देते। अनेकों ने व्यसनों का त्याग किया, जिंदगी जीने की सच्ची राह पकड़ी। जिंदगी जीने की राह को स्वयं के लिए खोजने, औरों को सुझाने वाले इस संत का जन्म होशियारपुर जनपद के मेंगरवाला ग्राम में विक्रमी संवत 1941 को हुआ था। पिता प्रताप सिंह ने उनका नाम रखा दीवान सिंह। पिता की लालसा थी कि बालक पढ़-लिखकर बड़ा अधिकारी बने। घर के प्रत्येक कोने में धन के ढेर लगा दे, पर गुरुवर सच्चिदानंद के सत्संग के प्रभाव से उस जीवन की दिशा खोज चुके थे। उस पर चलना बाकी था। माता-पिता ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने स्पष्टतया नकारते हुए कहा-”जीवन में करने के लिए इतना कुछ महत्वपूर्ण है, जिसके सूझ पड़ने पर विवाह उसी तरह महत्वहीन और नगण्य हो जाता है, जैसे सूर्य के प्रकाश के सामने चंद्रमा।” अंतर में वैराग्य का दीपक जलाये वह बढ़ चले ‘आत्मनोमोक्षार्थ जगद्हिताय च’ की परम साधना की ओर।

यों श्रेयपथ पर कदम बढ़ाने वालों का उपहास और विरोध आरंभ होता है, पर जब स्पष्ट हो जाता है कि उच्चस्तरीय लक्ष्य की दिशा में कोई चल ही पड़ा है, तो उसके साथी-सहयोगी भी क्रमशः मिलते और बढ़ते चले जाते है। हरिबाबा के साथ यही हुआ। वह 76 वर्ष की आयु तक मानव में संव्याप्त हरि की सेवा करते हुए हरिधाम पधारे। लोकहित के सागर में स्वहित की बूँदों के विसर्जन का महत्व और गौरव उस समय और अधिक बढ़ जाता है जब इक्कीसवीं सदी अगणित श्रेय सौभाग्य की वर्षा करने के लिए घनघोर-घटाटोप की तरह उमड़ती-घुमड़ती चली आ रही है।


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