विद्युत की उपयोगिता सर्वविदित है। घर से लेकर बाहर तक, छोटे यंत्र से बड़े उपकरणों एवं लघु औद्योगिक इकाइयों से विशालकाय कारखानों को सर्वत्र प्रकाश एवं ऊर्जा संबंधी आवश्यकता की पूर्ति इसी से होती है। इस दृष्टि से वह अत्यन्त उपयोगी है। बिजली यदि नहीं होती, तो आज जितनी प्रगति समाज शायद ही कर पाता और सर्वसाधारण उस लाभ से वंचित रह जाते, जिसे भौतिक सुविधा-साधनों के रूप में वे उठा रहे हैं। विकास के निमित्त निश्चय ही यह उसका बहुमूल्य योगदान हैं, पर उसके उस पहलू को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिये, जो स्वास्थ्य के लिये गंभीर खतरा पैदा करता है।
उल्लेखनीय है कि बिजली हमेशा अपने इर्द-गिर्द एक विद्युत चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण करती है। इस क्षेत्र का बड़ा या छोटा होना इस बात पर निर्भर करता है कि विद्युत कितनी शक्तिशाली है। छोटे उपकरणों में प्रायः न्यून वोल्टेज से ही काम चल जाता है, किन्तु बड़े यंत्रों को चलाने के लिए उच्च वोल्टेज की आवश्यकता पड़ती है मशीन की विशालता और वोल्टेज की उच्चता के अनुपात में ही उसका विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र व्यापक होता हैं। इसके विपरीत कम वोल्टेज वाले लघुयंत्रों में इसकी परिधि छोटी होती है।
हाल के अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि उक्त विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का मानवी स्वास्थ्य पर अवाँछनीय असर पड़ता है। इससे पूर्व ऐसी धारण की थी कि विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का स्वास्थ्य पर किसी प्रकार प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। अस्सी के दशक में वाँल्डर, कोलोरैडो के एडलीपर नामक भौतिकविद् और नैन्सी वरदीमर नामक महामारी विज्ञान विशेषज्ञों ने संयुक्त रूप से एक शोध पत्र प्रकाशित किया, जिसमें इस बात का उल्लेख किया गया था कि विद्युत संवाहक लाइनों के नजदीक रहने वाले बालकों को, उन बालकों की तुलना में जो इन लाइनों के दूर के मकानों में रहते हैं, रक्त कैंसर का दुगुना खतरा रहता है। इससे पहले ऐसी मान्यता थी कि एकस-रेज, अल्फा-रेज, बीटा-रेज जैसी आयनीकरण सम्पन्न करने वाली विकिरणों के विपरीत आयनीकरण की क्षमता से रहित उस विकिरण का प्राणियों पर किसी तरह का अवाँछित असर नहीं पड़ता, जो पॉवरलाइन अथवा वैद्युतिक उपकरणों से निकलती है। तब से लेकर अब तक अनेक शोध- अध्ययन इस दिशा में हुए है, जिससे इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का स्वास्थ्य पर सुनिश्चित प्रभाव पड़ता है।
पॉलब्रोडियर ने एक पुस्तक लिखी है, नाम है- ‘करेण्ट्स ऑफ डेथ’। उक्त रचना में ब्रोडियर लिखते हैं कि इन दिनों आम स्वास्थ्य संबंधी समस्या बढ़ी है और मनुष्य पहले की तुलना में अधिक बीमार एवं रोगग्रस्त हुआ है। इसके कारणों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं- “यों तो पर्यावरण से लेकर रहन-सहन तक के अनेक कारक इसके लिये जिम्मेदार है, पर बिजली के यंत्रों से बनने वाले विद्युत चुम्बकीय क्षेत्रों की भी कोई कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। दैनिक उपयोग में काम आने वाले छोटे-छोटे विद्युत उपकरणों का जब नियमित इस्तेमाल किया जाता है, तो प्रयोगकर्ता को उस अवधि में उससे उत्सर्जित किरण का सामना करना पड़ता है। बार-बार इस विकिरण के संपर्क में आने से उसमें कितनी ही प्रकार की शारीरिक-मानसिक जटिलतायें उत्पन्न होने की संभावना रहती है।”
लेखक ने उक्त पुस्तक में शहरी और ग्राम्यजीवन पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि सुदूरवर्ती गाँवों में रहने वाले लोग, जो प्रकाश एवं ईंधन के लिये दूसरे ऊर्जा -स्रोतों पर निर्भर रहते हैं।, उनका स्वास्थ्य बिजली के विद्युत चुम्बकीय विकिरण के प्रभाव में 24 घंटे रहने वाले शहरियों की तुलना में अधिक उत्तम होता है। वे इसे स्वीकारते हैं कि ग्रामीणजन प्रकृति के अधिक सन्निकट होते हैं, इसलिये स्वस्थता का एक यह भी कारण हो सकता है, लेकिन दूसरी ओर उनका यह भी कहना है कि यदि उक्त निमित्त को हटा दिया जाये, तो भी शहरी लोगों के विद्युतीय विकिरण के बीच बराबर रहने के कारण दोनों के स्वास्थ्य में स्पष्ट अन्तर दिखलायी पड़ेगा।
विकिरण की गंभीरता को दर्शाने वाले कई ऐसे उदाहरणों की भी ब्रोडियर ने चर्चा की है, जिसमें अमेरिकी प्रशासन ने स्वास्थ्य-हित को ध्यान में रखकर विद्युत चुम्बकीय विकिरण उत्सर्जित करने वाले स्रोतों को आबादी से दूर ले जाने की सलाह दी। सितम्बर, 1985 की एक घटना का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि टेक्सास सिटी काउंसिल ने विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति करने वाली कैबल लाइन बिछाने की सिर्फ इसलिये अनुमति नहीं दी, कारण कि वह एक कॉलेज के सामने से होकर गुजर रही थी, दूसरे मामले में ‘हाउस्टन प्रकाश और ऊर्जा कम्पनी’ को वहाँ से कोर्ट ने बिजली की लाइन बिछाने का पूर्व निर्धारित मार्ग बदलने का निर्देश दिया, क्योंकि उसके रास्ते में बच्चों का एक स्कूल पड़ता था। तीसरी घटना न्यूयार्क की है। फैरेज मिचेल नामक एक अमेरिकी टेलीग्राफकर्मी ने जब ‘कम्प्यूटर वीडियो डिस्प्ले टर्मिनल’ में कार्य करने के उपरान्त उभरने वाले त्वचा के चकत्तों एवं दूसरी कायिक तकलीफों के बारे में प्रबंधक से शिकायत की, तो उसने बिना किसी ननुनच के उसे उचित मुआवजा दिया।
उपर्युक्त प्रसंगों से यह स्पष्ट है कि विद्युत विकिरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, किन्तु किसी को यह नहीं समझ लेना चाहिये कि इस प्रकार का बुरा असर सिर्फ विद्युत ट्राँसमिशन लाइन का ही होता है। घरेलू उपयोग में का आने वाले छोटे-बड़े सभी विद्युत यंत्र जिनमें कपड़ों का प्रेस, मिक्सी, रेफ्रिजरेटर, लैम्प, वाशिंग मशीन, टीवी रेडियो, एयर कूलर, एयर फ्रेशनर, हेयर ड्रायर, शेवर (दाढ़ी बनाने का विद्युत यंत्र) आदि एवं ऑफिस में काम आने वाले कम्प्यूटर, फोटोकॉपियर सम्मिलित हैं- सबका आकार, आयतन एवं उत्सर्जित विकिरण के हिसाब से अपने-अपने छोटे-बड़े प्रभाव है। इन प्रभावों की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध अमेरिकी शरीरशास्त्री एण्डी कोगलन ‘न्यूसाइटिस्ट पत्रिका’ में लिखते हैं- “ऐसा समझा जाता है कि छोटे विद्युत उपकरण स्वास्थ्य की दृष्टि से निरापद हैं, पर ऐसी बात नहीं है। यह संभव है कि विद्युत टोस्टर रक्त, स्तन अथवा मस्तिष्क कैंसर का उपहार दे जाये, उपेक्षणीय आकार वाले बिजली चालित शेवर एवं टूथब्रश से भी ऐसी ही संभव्रुता बनती है, विद्युत प्रवाहित बिजली के तारों के नीचे टहलने से नींद में व्यतिक्रम पैदा होने की आशंका बनी ही रहती है।” वे कहते हैं कि घरों में बिजली चालित कोई बड़ी मशीन न हो तो इसका यह अर्थ नहीं कि पूर्णतः सुरक्षित है। यदि एक बड़े आकार के यंत्र की जगह वहाँ छोटे -छोटे कई उपकरण हों तो इससे घर का पूरा वातावरण विकिरणयुक्त बन जाता है। इस वातावरण में जो भी रहेगा, उसे किसी न किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक व्यथा-वेदना बनी हा रहेगी।
अंग्रेज शरीरवेत्ता विलहेल्म रीच अपनी कृति ‘एन इनसिडियस डेथ ट्रेप’ में लिखते हैं कि जिस प्रकार कोहरे ओर धुन्ध के प्रभाव से सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता और मनुष्य के कई प्रकार के कार्य प्रभावित होते हैं, दुर्घटनाओं की संभावनायें बढ़ जाती हैं, उसी प्रकार विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र वास्तव में एक प्रकार का ‘इलेक्ट्रॉनिक स्माँग’ (धूम कोहरा) है, जो मानव के भीतरी संसार को अव्यवस्थित कर देता है। इससे अन्तराँगों के क्रिया−कलाप त्रुटिपूर्ण बन जाते हैं और व्यक्ति शारीरिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक रूप से भी स्वयं को परिवर्तित अनुभव करता है। विकिरण के असर से सैब्रो-स्पाइनल द्रव्य में पाया जाने वाला एक विशेष प्रकार का यौगिक घट जाता है, जिसके कारण आदमी में व्यवहार संबंधी बदलाव भी सामने आने लगता है, इसके अतिरिक्त मानसिक समस्यायें भी प्रकट होने लगती हैं व्यक्ति अवसादग्रस्त अनुभव करता है एवं आत्महत्या संबंधी भावनायें प्रबल हो उठती हैं। इतना ही नहीं, उक्त प्रभाव से शरीर का अन्तःस्रावी तन्त्र भी अप्रभावित नहीं रह पाता तथा काया की रात्रिकालीन मेलाटोनिन हारमोन की आपूर्ति घट जाती है। इस ह्रास से देह की जनन क्षमता, कैंसर से लड़ने की ताकत और सेकेंडियन रिद्म सहित मिनी ही गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। कोशिका झिल्ली को भी नुकसान पहुँचता है, जो कैंसर का मुख्य निमित्त बनता है।
जानने योग्य तथ्य यह है कि विद्युत चुम्बकीय तरंगों की आवृत्ति हर्ट्ज अर्थात् एक कम्पन प्रति सेकेण्ड। घरेलू विद्युतीय यंत्र 50-60 हर्ट।ज कम्पन पैदा करते हैं, जबकि प्रकाश जो कि स्वयं एक विद्युत चुम्बकीय विकिरण है, उसकी आवृत्ति 10 14 अरब हर्ट्ज है। वैज्ञानिकों के अनुसार 300 हर्ट्ज से नीचे की तरंगों की एकदम न्यून आवृत्ति मानी गयी है। जिस प्रकार 20 हर्ट्ज से नीचे की इन्फ्रासोनिक ध्वनियाँ घातक होती हैं, उसी प्रकार अब विद्युत चुम्बकीय तरंगों के बारे में यह तथ्य सामने आया है कि अत्याधिक न्यून आवृत्ति वाली यह विकिरणें शरीर पर अप्रिय असर डालती हैं। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डॉ. रोस एडे एवं डॉ. सुजेन बोबिन ने प्रयोगों द्वारा यह प्रदर्शित किया कि अत्यधिक न्यून आवृत्ति वाले विद्युत विकिरणें उसे प्रक्रिया को प्रभावित करती है, जिसके अंतर्गत मस्तिष्क की ऊतकें कैल्शियम तत्व मुक्त करती है। इससे कोशिकाओं के क्रिया-कलाप पर गंभीर असर पड़ता है, फलस्वरूप शरीर-क्रिया में कितनी ही प्रकार की अनियमितताएं आ जाती हैं।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के विज्ञानवेत्ता कीथ मैकलाउचलन का मानना है कि चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव में आकर शरीर के अन्दर बड़े पैमाने पर स्वतंत्र मूलकों का निर्माण होता है। ये मूलक अत्यन्त क्रियाशील होते हैं और कोशिकाओं के गिर्द इकट्ठे होकर उनके डी.एन. को विनष्ट करे हैं।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रोपिकल मैटियरोलॉजी के विज्ञानवेत्ता डॉ. डी.वी. जाडव का कहना है कि बड़ी संख्या में घनीभूत धनायन भी विद्युत चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण करते हैं, जो कोशिकाओं की वृद्धिप्रक्रिया में अड़चन पैदा करते हैं। उनका कहना है कि ये आयन श्वसन नलिका में प्रवेश कर नलिका और फेफड़े की कोशिकाओं की नलिका वृद्धि में में रुकावट उत्पन्न करते हैं, जिसके कारण श्वसन नलिका संबंधी कितनी ही प्रकार की व्याधियाँ पैदा होती हैं।
डात्र जाडव का मत है कि विद्युत चुंबकीय प्रभावों को कम करने और उसके अवांछनीय असर से बचने का एक उपाय यह हो सकता है कि बिजली के यंत्रों का बाह्य आवरण इस ढंग से बना हो, जो विकिरण पैदा करने वाले पुर्जे को चारों ओर से कवच की तरह ढक कर रखे ताकि विकिरण सीधे बाहर न निकल सके। उनका विश्वास है कि न्यून वोल्टेज की आपूर्ति करने वाले बड़ी संख्या में ट्राँसफार्मर लगाकर किसी ऐसी तकनीक का विकास किया जाये, जो कम वोल्टेज पर भी उपकरणों को कुशलतापूर्वक चला सके, तो इससे भी विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र की शक्ति को घटाया जा सकता हैं शक्ति हीन क्षेत्र का प्रभाव भी उपेक्षणीय होगा। इस प्रकार स्वस्थता को काफी हद तक इसके दुष्प्रभावों से बचाया जा सकेगा।
विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार न्यून स्तर की विकिरणें तो कंक्रीट की छतों एवं धरती से बराबर निकलती ही रहती हैं, इसके अतिरिक्त अन्तरिक्ष से भी उसकी बौछार होती रहती है, पर चूँकि उसकी माख इतनी कम और शक्ति निर्बल होती है कि मनुष्य सहित सभी प्राणी उसे आसानी से बर्दाश्त कर लेते हैं, फलतः उनका कोई बुरा प्रभाव उन पर नहीं पड़ने पता। विशेषज्ञ बताते हैं कि धरती में कोई भी ऐसा स्थान नहीं, जो सर्वथा विकिरण रहित हो, यहाँ तक कि वन्यप्रदेशों के स्वच्छ-शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में भी उसकी विद्यमानता बनी रहती है। इससे कोई प्राणी कभी बीमार नहीं पड़ता। यदि ऐसी बात रही होती, तो ईश्वरीय सृष्टि में इस खतरे को क्योंकर बनाये रखा जाता, जो उसके सुन्दर संसार को ही जीवन विहीन बना दे। अतः कम स्तर की अत्यल्प शक्ति वाली विद्युतचुम्बकीय विकिरणों से कोई नुकसान नहीं। हानि तब होती है, जब बढ़ी-चढ़ी महत्वाकाँक्षा की पूर्ति के लिये व्यक्ति ऐसे-ऐसे तंत्र उपकरण एकत्रित करने लगता है, जिनके नहीं रहने से भी साधारण साधनों और सामान्य उपकरणों से काम चलाया जा सकता था और ऐसे परिणाम प्राप्त किये जा सकते थे, जिन्हें उत्तम कहा जा सके लेकिन विद्युतयंत्रों का अनावश्यक जखीरा इकट्ठा कर और उससे तिसृप्त होने वाली विकिरणों के अधिकाधिक संपर्क में आकर मनुष्य ऐसी मुसीबत मोल लेता है, जिसे किसी भी प्रकार विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
शक्ति की सार्थकता तब है, जब उसका सुरक्षित उपयोग है, अन्यथा भस्मासुर की तरह वह सबसे पहला प्रहार अपने संरक्षक और प्रयोक्ता पा ही करती है। अतएव इस ऊर्जा एवं इससे संचालित यन्त्रों का हम इस्तेमाल तो करें, पर उनका उपयोग कब, कहाँ, कैसे हो- यह भी ध्यान में रखें।