राष्ट्रजागरण की बात बहुत लोगों द्वारा, बहुत अवसरों पर, बहुत बार दुहराई जाती है, हालाँकि राष्ट्र की सारी गतिविधियाँ चल रही हैं। चुनावों का सिलसिला चलता है, नयी योजनायें बनती हैं, आकर्षक नारे दिये जाते हैं, समस्याओं का समाधान करने के लुभावने वादे किये जाते हैं- फिर भी राष्ट्र जाग्रत नहीं है। दरअसल सक्रियता-जागृति की पर्याय नहीं। सक्रिय मनुष्य में मनुष्यता का अभाव बेतरह खटकता है। इसी तरह राष्ट्र की विभिन्न गतिविधियों के बीच राष्ट्रीय भावना का अभाव बराबर अनुभव हो रहा है और उसे निवारण के उपाय सफलीभूत न होने से हर राष्ट्रप्रेमी का अन्तःकरण चीत्कार कर रहा है। राष्ट्रीय-चरित्र, राष्ट्रीय-गौरव, राष्ट्रीय- मर्यादा, राष्ट्रीय- आत्मीयता, राष्ट्रीय-समृद्धि आदि की वृद्धि और उत्कर्ष की बात क्या की जाये- उसका कोई न्यूनतम स्वरूप भी निर्धारित न हो सकता चिन्तनीय बात है। ऐसा लगता है कि राष्ट्र सचमुच सोया पड़ा है, सामान्य निद्रा में नहीं- मूर्च्छा जैसी गहन स्थिति में। उसे चैतन्य, जाग्रत, सतेज बनाने के लिए विशेष प्रयास किया जाता आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। पर प्रयास करे कौन? राष्ट्रीय-चेतना को कौन उभारे? उसे कैसे विकसित करे? घूम-फिरकर हमारी आदत कुछ दलों और उनकी सरकार की ओर देखने की पड़ गयी है।पर यह बड़ी भारी भ्रान्ति है। जब सरकार विदेशी थी तो उसने सोये राष्ट्र का उपयोग अपने स्वार्थ में करने के लिए उसे उसी स्थिति में रखना पसन्द किया और आज जब वह आन्तरिक है तो वह भी उसी सुप्त समाज का एक अंग है। सोया हुआ अंग सोये हुए को कैसे जगा सकता है? जिनकी दृष्टि स्वयं में सीमित है, उनसे विस्तृत दृष्टिकोण की कामना कैसे करें?
राष्ट्रजागरण का महान कार्य तो जाग्रत अन्तःकरण वाले व्यक्तियों का है। प्रचलित मान्यताओं के परे जिनका मस्तिष्क सोच सकता है, ऐसे व्यक्ति ही राष्ट्रीय चेतना जाग्रत कर सकते हैं। जिनके जीवन की गतिविधियाँ किन्हीं अंशों में स्वार्थ की सीमा के बाहर सक्रिय हैं व्यक्तिगत स्वार्थों की अपेक्षा सामूहिक हितचिन्तन जिनके स्वभाव में तथा उसके अनुरूप जीवन प्रक्रिया चलाने के जो थोड़े- बहुत अभ्यस्त हैं, वे ही इस कार्य में आगे आ सकते हैं। तात्कालिक लाभ की मृग-मरीचिका में भटकते नागरिकों को जो दूरगामी परिणामों का स्मरण दिलाकर अपेक्षाकृत अधिक स्थायी लाभप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ की प्रेरणा दे सकें, ऐसे विकसित दृष्टिकोण तथा समर्थ व्यक्तियों का यह कार्य है।
ऐसे व्यक्तियों को प्राचीनकाल में ‘पुरोहित’ कहते थे। पुरोहित शब्द से भी यही भाव निकलता है कि जो सामने का लाभ नहीं- आगे का- दूरगामी हित समझकर उसकी प्राप्ति की व्यवस्था बना सकें। हीन स्वार्थों के स्थान पर महत स्वार्थों की सीढ़ियों पर चलाते हुए ‘परमार्थ’ तक लोगों को गति दे सकें- वही पुरोहित है। पुरोहित में ‘चिन्तक और साधक’ दोनों गुण आवश्यक हैं। जो चिन्तन-विश्लेषण द्वारा सही परामर्श दे सके तथा आदर्श जीवन-पद्धति से मूर्तिमान प्रेरणा रूप बनकर रहे वही पुरोहित है। अपने जीवन में आदर्श का अभ्यास करने के साथ-साथ व्यक्तिगत हित के साथ-साथ समाजहित की जो कल्पना कर सके, ऐसे व्यक्ति इस वर्ग में आ सकते हैं। राष्ट्रजागरण का कार्य प्रमुख रूप से ऐसे ही प्रकाशवान व्यक्तित्वों का है। ये संगठित होकर स्वयं को इस महान प्रयोजन के लिए समर्पित कर सकें तो यह महान राष्ट्र विश्वमंच पर पुनः सिंहनाद कर सकता है।
-परम पूज्य गुरुदेव