रंग और उल्लास का पर्व-होली

March 1998

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होली-मंगलोत्सव भारतवर्ष में मनाये जाने वाला एक प्रख्यात लोकपर्व है। रस, रंग माधुर्य से सराबोर यह पर्व आँतरिक उल्लास को उभारने वाला एक साँस्कृतिक पर्व है। यह पर्व कृषि कुसुमित संस्कृति के एक प्रतीक के रूप में भी प्राचीन समय से प्रचलित है। यह सार्वभौम विशेषता ही है, जिसके कारण देश के हर वर्ग, जाति,धर्म एवं सम्प्रदाय के लोग इसे बड़े उत्साह व आनन्द के साथ मानते हैं। रंगों का यह पर्व प्रकृति से मानव को एकाकार कर तादात्म्य स्थापित कर देता है एवं जीवन को उल्लास के साथ जीने की रीति-नीति का शिक्षण भी देता है।बसन्त से ही आरम्भ हो जाने वाले इस पर्व में जहाँ एक ओर वासन्ती रंगों से रंगी प्रकृति सुन्दर छटा बिखेरती है, वहाँ दूसरी ओर गुलाल-अबीर से रंगा मानव-समुदाय अपनी आन्तरिक पुलकन को भी प्रकट करता है। होलिकापर्व निष्क्रिय जड़ता पर जीवन्त एवं सजीव चैतन्यता की स्थापना का पर्व है।

वैदिककाल से ही होली पर्व मनाने की परम्परा रही है। भारत के साँस्कृतिक जीवन की चिरन्तन मान्यताओं से संबंधित यह पर्व कृषियज्ञ प्रसूत हमारी संस्कृति की आनन्द रूप में अभिव्यक्ति का त्योहार है। इसे नवसस्येष्टि यज्ञ भी कहा जाता है, क्योंकि रबी की फसल इस समय तक आधी पक चुकी होती है। होलिका शब्द के बारे में निरुक्त कहता है-

“तृणाग्नि भ्रार्ष्टछपक्व शर्माधायं होलकः” अर्थात् तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके फली वाले अन्न को ‘होलक’ कहते हैं। होलिका शब्द की व्युत्पत्ति इसी होलक शब्द से हुई मानी जाती है। भारत के कुछ प्रान्तों में गेहूँ-चना आदि की सिकी–भुनी बालियों को ‘होला’ कहा जाता है। इन नवान्न बालियों को प्रज्वलित अग्नि में भूनने की परम्परा अति प्राचीन है। संभवतः इसी कारण इसे होली पर्व नाम दिया जाने लगा। वैदिक ऋचाएं भी यही कहती हैं कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्यगण वैश्वदेव की पवित्राग्नि में नवान्न गेहूँ और जौ आदि बालियों से हवन किया करते थे। पौरोहित्य के ग्रन्थों में होली को ‘यवाग्रयन यज्ञ’ नाम से संबोधित किया गया है। होली मन्वन्तरारंभ का पर्व भी है। इस प्रकार वैदिक काल के नवसस्येष्टि यज्ञ में कालान्तर में होलिकोत्सव का रूप ले लिया, ताकि व्यक्ति के चार पुरुषार्थों में से एक ‘काम’ को धर्म-प्रधान रूप से उल्लास के साथ सुनियोजित किया जा सके। ऋग्वेद इस नवान्न महोत्सव की प्राचीनता को इस तरह वर्णित करता है-

“गिरा च श्रुष्टिः सभरा असन्नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमेयात्।” (ऋग्वेद 10/101/3)

शास्त्रकारों ने होलिकादहन को एक यज्ञ की संज्ञा देते हुए इसके निमित्त लकड़ी-संचयन को भी एक पुण्यकार्य माना है। उनके अनुसार, फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पंचमी से पूर्णिमा तक की दस तिथियों में होली की लकड़ी एकत्रित की जानी चाहिये। भविष्यपुराण होली को हास्य-विनोद का पर्व उल्लिखित करते हुए कहता है-

नानारंग मर्येर्वस्त्रैश्चंदनागरु मिश्रितैः अबीरं च गुलालं व मुखे ताम्बूल मसतम्। वशोत्थं, जलमंत्रं च धर्म मंत्रं करैघृतम्॥ गालिदानं तथा हास्य ललनार्त्तनं स्फुटम्॥

अर्थात् होलिकोत्सव को मनाने के लिए भाँति-भाँति के सुन्दर व रंगीन वस्त्र पहनें। अबीर, गुलाल, चन्दन एक-दूसरे को लगायें। हाथों में बाँस तथा चमड़े की पिचकारियाँ लेकर एक- दूसरे के घर जायें और रंग डालें। नर-नारी सभी इस हास्यविनोद के पर्व में शामिल हों।

वस्तुतः होली बहुत प्राचीन उत्सव है। इसकी आरंभिक काल में ‘होलिका’ कहा जाता था। भारत के पूर्वी भागों में अभी भी यह शब्द प्रचलित है। जैमिनी एवं शबर ने भी इस कथन की पुष्टि की है। ‘होलिका’ उन 20 क्रीड़ाओं में से एक है, जो सम्पूर्ण भारत में कभी प्रचलित थीं। इसके अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा पर लोग श्रंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। लिंगपुराण इस पर्व को ‘फाल्गुनिका’ कहकर संबोधित करता है एवं इसे विभूति एवं ऐश्वर्यप्रदायक पर्व मानता है। डाँरु रामानन्द तिवारी ‘हमारी जीवन संस्कृति’ में लिखते हैं- “राग-रंग और उल्लास का यह पर्व अपनी व्यापकता, स्वच्छता और संपन्नता में अनुपम है। अनेक विशेषताओं से युक्त वर्ष का यह अंतिम पर्व जीवन में संस्कृति के पूर्ण समन्वय का द्योतक है। वैदिक यज्ञ और लोकोत्सव का एक अद्भुत समन्वय इसमें मिलता है। होली के पर्व पर अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर वर्ष की रागिनी नये वर्ष की नई रागिनी को जन्म देती है।”

मात्र बंगाल को छोड़कर सारे देश में यह उमंग का पर्व प्रचलित रूप में मनाया जाता है। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु का जन्म इसी पावन

दिन होने के कारण होली पर्व ढोलयात्रा पर्व के रूप में मनाया जाता है। होलिकादहन यहाँ कम ही देखा जाता है। यात्रा का समग्र परिवेश राधाकृष्ण की प्रेमलीला व राधाकृष्ण सहित अन्यान्य देवी-देवताओं की मूर्तियों की यात्रा के रूप में बदल गया। तीन से पाँच दिन तक चलने वाले इस पर्व में 16 खंभों से युक्त मण्डप में श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित की जाती है। प्रतिमाओं को पंचामृत से स्नान कराया जाता है। रंगों, गुलाल, चन्दन आदि से पूजा की जाती है एवं सभी मिलकर फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को रात्रि को आनन्दोत्सव मनाते हैं। बिहार एवं उत्तर प्रदेश में तो होली अपने प्रचलित रंगोत्सव के रूप में बसन्त पंचमी से प्रारम्भ होकर फाल्गुन पूर्णिमा तक मनायी जाती है। ब्रज की होली तो विश्वप्रसिद्ध है। दक्षिण भारत में इसे ‘कामदहन पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।

भारत के बाहर भी यह पर्व सुप्रसिद्ध है। चीनी भाषा में इसे ‘फोश्चेइचिये’ कहते हैं। चार दिन तक चलने वाले इस उत्सव में पहले दो दिन पुराने साल की विदाई के लिए एवं अन्तिम दो दिन नये वर्ष के स्वागत के लिये होते हैं। उत्सव की शुरुआत ‘काओशंग’ नामक आशिबाजी से होती है। घण्ट-घड़ियाल, धौंसों एवं काओशंग की सम्मिलित आवाज सुरीली सिम्फोनी की सृष्टि करती है। घड़े, लोटे व अन्य पात्रों द्वारा रंग मिल जल से होती सदृश हर्षोल्लास मनाया जाता है। इसी पर्व के दौरान एक लम्बे बाँस पर पाँच ताबीज बाँधकर उछाले जाते हैं। जिसके हाथ में ये ताबीज गिरते हैं, वे साल भर लाभ की स्थिति में रहते हैं, ऐसी मान्यता है।

जर्मनी में बसंत के आगमन पर हंसी- ठिठोली, उमंग एवं मस्ती का पर्व ‘कार्निवाल’ नाम से मनाया जाता है। क्रिसमस व नये साल के मनाने के तुरन्त बाद जनवरी के अंत या फरवरी के प्रारम्भ में कार्निवाल की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। राइन नदी के तट पर विचित्र वेशभूषा धारण कर अजीबोगरीब मुखौटे लगाकर मुँह व शरीर पर तरह-तरह के रंग पोतकर निकलने की एक प्रतिस्पर्धा-सी चलती है। जर्मनी के सारे शहर 15 दिन की अवधि तक चलने वाले इस पर्व पर रंग से सराबोर हो जाते हैं। ‘कार्निवाल’ के प्रमुख चार दिनों में जर्मन समाज के जीवन के अंग माने जाने वाले अनुशासन को एक तरफ रख दिया जाता है एवं चारों ओर आनन्द-उल्लास की बाढ़-सी आ जाती है। इस दौरान एक मूर्ख सम्मेलन का आयोजन भी (बतर्ज-भारत में मनाये जाने वाले मूर्ख व टेपा सम्मेलन) किया जाता है। जर्मनवासियों के अनुसार आज के टूटते- बिखरते समाज का स्वस्थ-स्वच्छ मस्ती भरा पर्व कार्निवाल तनाव-घुटन से मुक्त करने का एक सफल प्रयास है।

होली का नैसर्गिक संबंध ऋतुपरिवर्तन से है। शिशिर और हेमन्त कालीन शीत की ठिठुरन के बाद बसंत का आगमन उल्लास लेकर आता है। फाल्गुन मास व बसंत दोनों मिलकर प्रकृति में अपूर्व आनन्द व उमंग का रंग घोलते हैं। कोयल की कूक, खिलते पुष्पों की सुगंध व आम्र-मंजरियों की मादकता से भरा बहता पवन तन-मन में उत्साह एवं जीवन के प्रति एक नयी दृष्टि का विकास करता है। प्रकृति के इन रूपों को देखकर मानवमन हर्षित हो उठाता है एवं कभी कवि, कभी साहित्यकार, कभी कलाकारों के माध्यम से भावनाएं अभिव्यक्त होने लगती है। रत्नावली में कवि का वर्णन है कि “होलीपर्व के शुभावसर पर उड़ते हुए केशर मिश्रित गुलालों से ऊषाकाल का भ्रम हो रहा है।”

एक कवि ने तो इन शब्दों से मानो अपना सारा उल्लास ही इसमें भर दिया है-

केसर के रंग बहै छज्जनपै छाजन पै। नारे पै नदी पै और निकास पै उछाल है॥

ग्वालन कवि कुँकुम की त्रालन रसाल पै। तंलन तमालन पै फूटत उसाल है॥

गुँजन गुलालन पै, लालन पै ग्वालन पै। बला बाल बालन पै घुमड्यो गुलाल है॥

होली और भगवान श्रीकृष्ण का संबंध अटूट है। इसे साहित्य के प्रत्येक ग्रन्थ में वर्णित देखा जा सकता है। गर्ग संहिता, फागुकाव्य, बसन्तविलास, पृथ्वीराज रास (चंदवरदायी कृत) सूरदास एवं परमानन्द के काव्यों में मीरा-रसखान के दोहों में सभी जगह होली एवं कृष्ण का सरस, सजीव एवं सुन्दर चित्राँकन मिलता है। फागविलास और फागविहार नामक रीतिकालीन नागरीदास नामक कवि की दो रचनायें होली पर सुप्रसिद्ध हैं। बिहारी, घनानन्द पद्माकर, केशव, सेनापति आदि सभी रीतिकालीन कवियों ने अपनी लेखनी से होली का रंग भरा है। भवभूति के ‘मालती माधव’ नाटक में तो इसी पर्व का बड़ा सुन्दर चित्रण है। 1857 की होली का चित्रण करते हुए बहादुरशाहजफर ने लिखा था-

हिन्द में कैसे फाग मत्ती जोराजोरी फूल तख्त हिन्द बना केशर की सी क्यारी। कैसे फूटे भाग हमारे लुट गई दुनिया सारी गोला में गुलाल बनायो तोप की पिचकारी॥

कितनी विडम्बना है कि जो वेदना जफर ने अभिव्यक्त की, आज भारत की आजादी की स्वर्णजयन्ती पर उपरोक्त पंक्तियों के लिखने के 141 वर्षों बाद भी वही कहानी दुहरा रही है। भारतवर्ष जातिवाद, क्षेत्रवाद, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता से घिरा हुआ है। आतंक के साये में आज अपने ही भाईयों के खून से होली खेली जा रही है। कहीं बम के धमाके हैं, तो कहीं राजनैतिक दांव–पेंचों पर जनसाधारण को नचाया जा रहा है। युवाशक्ति नशे में, डूबी, दिखायी पड़ती है, तो संस्कृति के नाम पर अश्लीलता का नंगानाच देखने को मिलता है। विश्वविद्यालयों-कालोनियों-परिसरों के प्राँगण अराजकता से भर गये हैं। रंग तो गहराया है, पर है वह स्वार्थपरता-भ्रष्टाचार व अवसरवाद का।

ऐसी स्थिति में होली हमें पुनः याद दिलाने आयी है समरसता से भरे उमंगों से भरे एक ऐसे अवसर की, जब हम छोटे- बड़े का भेद मन से निकालकर स्वयं के मन का मैल निकाल फेंकें। होली का त्योहार सामूहिकता के भाव की वृद्धि करने वाला तथा संगठन और एकता को सुदृढ़ बनाने आता है। यदि यही उद्देश्य रखकर समता के इस पर्व को मनाया जाये तो आपस की असमतारूपी असुरता को होली में जलाकर नष्ट किया जा सकता है। होली के अनेक उद्देश्य व शिक्षाएं हैं, किन्तु यहाँ इसके इतिहास के साथ-साथ एक पक्ष को ही स्पर्श किया गया है। एक सबसे बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षा इस पर्व की यह है कि मनुष्य को दीन-दुर्बल ओर डरपोक होकर नहीं रहना चाहिये। सर्वदा इस संसार में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जीना चाहिये। जैसे प्रह्लाद ने इस पर्व पर असुरता को अपनाने के बजाय भले ही वह उसकी अभिभावक रही हो, भगवत्सत्ता को, श्रेष्ठता को, आदर्शों को अपनाया, हमें भी वैसा ही साहस अपने अंदर जगाना चाहिये, तभी ही इस पर्व को मनाने की सार्थकता है।


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