एक संत जन्मा आविष्कार के साथ

March 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सन् 1880 की सुबह। लन्दन की एक जेल में विलियमएडिस नामक एक अपराधी एकान्त में बहन चिंतन की मुद्रा में बैठा कुछ सोच रहा था। परेशानी उसके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। दो वर्ष पूर्व आज ही के उस मनहूस दिन के बारे में वह सोच रहा था, जिसने उसे यहाँ तक पहुँचा दिया। दो वर्ष का समय कल तक तो उसने भली प्रकार काट लिया, पर आज न जाने क्यों उसका मन भारी हो रहा था। रह-रह कर एक वीभत्स दृश्य उसकी आँखों के आगे उभर कर जाता।

रक्तपात-मारकाट! लोगों की चीख-पुकारें! मासूम बच्चों के करुण क्रन्दन! निर्जीव शरीरों से अटा पड़ी बाजार की गलियाँ उनसे उठती कराहें, दम तोड़ते लोग, धूंह-धूंह करते जलते मकान, दुकान। राख के ढेर में परिवर्तित होती गलियाँ। उफ! कैसा लोमहर्षक दृश्य था कितना भयानक कितना घृणित व्यक्ति, व्यक्ति के खून का प्यासा बैठा था। काले और गोरे एक दूसरे का मानो रक्त पी जाना चाहते थे। जहाँ कही दिख जाते एक दूसरे पर झपट पड़ते और दूसरे ही क्षण लहू में सना शरीर जमीन पर पड़ता नजर आता। उफ! ओ कैसा क्रूर दिन था, कितने लोगों की जानें ले लीं घर उजड़ गये पुत्र के सिर से पिता का साया उठा गया, भाई भाई जुदा हो गये, माँ की कोख सूनी हो गयी।

चिन्तनप्रवाह थमा, कुछ क्षण के लिये। उसमें गतिरोध आया, और एक सवाल उभरा पर इसका नायक कौन था अंतर्मन से कोई पूछ रहा था।

प्रश्न के उठते ही मानो हथौड़े चलने लगे। मर्माहत हुआ, तो साँस फूलने लगी। चेहरे पर पसीने कुछ बूँदें निकल आयीं और साथ ही उभरा इसका उत्तर “तुम ही तो था।”

हाथ लगातार चल रहा था, पर अनेक आघातों के बाद चोट जब चेतना में घुसी, तब उसे होश आया। एक लम्बी साँस ली और बुदबुदाया- हाँ ‘ इस दंगे का सूत्रधार मैं ही तो था, सिर्फ मैं। पा आखिर मुझे इससे क्या मिला? हाँ सचमुच कारावास, यातना, मानसिक प्रताड़ना के अलावा कुछ नहीं मिला।

एडिस पुनः विचारमग्न हो गया। तभी सामने से कोई कैदी एक गीत गुनगुनाते हुए निकला।

धर्म की चेतना, भाव संवेदना है जगायी जहाँ, कौन कहता उसे नासमझ की तरह भी न समझदार हो बस हमारे लिये है यही वेदना।

एडिस जैसे सोते-से जगा। यह पंक्तियाँ उसके कर्ण-कुहरों में बार-बार प्रतिध्वनित होने लगीं। वह सोचने लगा कि गीत में कितना प्राण छुपा है। धार्मिक चेतना से यहाँ तात्पर्य सेवा, सहायता, सहिष्णुता, त्याग, नैतिकता और कर्त्तव्य-परायणता, जबकि धार्मिक उन्माद किसी संप्रदाय विशेष के प्रति कट्टरता है। समस्त विश्व के धर्म-सम्प्रदाय देखने में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, पर उनकी धार्मिक चेतना सदैव एक ही होती है। स्वरूप बदल जाने से चेतना नहीं बदल जाती। मनुष्य काले-गोरे सभी रंग के होते हैं, पर क्या सभी का रक्त लाल नहीं होता? हड्डियाँ श्वेत नहीं होतीं? हृदय, फेफड़े, गुर्दे का आकार एक जैसा नहीं होता? निस्सन्देह होता है। ऐसे ही समस्त विश्व की धार्मिक चेतना अर्थात् धर्म का सार एक ही है। उसका शरीर सदा उच्चस्तरीय और महान होता है, रक्तपात करना नहीं। अनैतिकता, अमानवीयता को रोकना होता है, अनैतिक अमानवीय बनना नहीं और मैं उसे स्वार्थपरता की संकीर्ण परिधि में ले जाना चाहता था। रंग, भाषा, जाति, लिंग, क्षेत्र के आधार पर बाँटना चाहता था। नहीं मैं इससे असफल रहा हूँ। मैंने निरीहों का खून बहाया है। मैं पापी हूँ, हत्यारा हूँ।

वह लगातार जमीन पर प्रकार करता जा रहा था। मैंने अवश्य की पाप किया है, इस कारण निर्दोषों की आह मेरी अशान्ति बनी हुई है, पर अब मैं कर क्या सकता हूँ? इसका प्रायश्चित क्या हो सकता है? इस नरक से मुक्ति कैसे पाऊँ? क्या आत्महत्या कर लूँ?

नहीं- उसी आन्तरिक आवाज की गंभीर वाणी उभरी- यह तुम्हारी मुक्ति का रास्ता नहीं। तुम्हारी इससे मुक्ति तभी हो सकती है, जब तुम काले और गोरे लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दो। यही सर्वोत्तम प्रायश्चित है।

समाधान पाकर मन में उठते ज्वार-भाटे कुछ शान्त हुए। एडिस ने थोड़ी राहत अनुभव की। उसने निश्चय किया कि शेष कारावास काटकर जब तक निकलेगा, तो यही करेगा, पर अभी दो वर्ष और बाकी थे। मन तो बाहर निकलकर प्रायश्चित करने को छटपटाता रहता, किन्तु किसी तरह वह उसे समझ लेता कि जब तक वह यहाँ है, तब तक क्यों न किसी और उपाय से मानवता की सेवा की बात सोची जाय। इसी विषय पर चिन्तन-मनन करता रहता।

अचानक एक दिन उसके मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। प्रतिदिन सुबह-सुबह प्रायः सभी कैदी उंगलियों से दाँतों को माँजा करते। इस प्रक्रिया में कइयों के मसूड़े बुरी तरह छिल जाते, उससे खून निकलने लगता, उसने सोचा- “क्यों न इस छोटे स्तर के रक्तपात को बन्द कर अपने प्रायश्चित का शुभारम्भ करूं। कैदियों में काले-गोरे दोनों प्रकार के लोग हैं भी। इस प्रकार उन्हें थोड़ी राहत पहुँचाकर मेरी आत्मा को कुछ संतोष तो होगा ही। बस फिर क्या था। कई दिनों सोच विचार के बाद एक दिन एक लकड़ी में अनेक बारीक छिद्र करके उनमें पशुओं के बाल चिपकाकर दाँत साफ करने का एक ब्रुश बना डाला। जब प्रयोग सफल रहा तो उसने इस प्रकार के अनेक ब्रुश बनाकर सभी कैदियों को बाँट दिये। बाकी समय में वह ब्रुश बनाने में लगा रहता। इस प्रकार उसने बड़ी संख्या में ब्रुश बना डाले। दो वर्ष बाद जब उसकी रिहाई हुई तो वह उन सबको अपने साथ ले गया और अपने क्षेत्र में काले-गोरे समुदाय के प्रत्येक घर में एक-एक ब्रुश देकर उसकी उपयोगिता समझायी एवं पिछली गलती की क्षमा माँगी।

उसने ब्रुश देते हुए लोगों से कहा- इसे आप देख रहे हैं। इसमें कई रंग के बाल एक साथ गुँथे हुए हैं, तभी उपयोगी ब्रुश बन पाये हैं। वस्तुतः हम पहले गलती कर रहे थे। हमारा रंग, भाषा, जाति, जन्म, सम्प्रदाय कुछ भी हो, हमें इस ब्रुश की तरह मिलकर रहना होगा, तभी समाज, राष्ट्र के लिये उपयोगी बन सकेंगे।”

एडिस की शिक्षा लोगों की समझ में में आ गयी। सभी ने उनसे ऐसी एकता प्रदर्शित करने का वचन दिया और करते भी रहे। वारविकशायर क्षेत्र में तब से आज तक फिर कोई ऐसी घटना नहीं घटी। विलियम एडिस ने काले व गोरे दोनों समुदायों की उन्नति-प्रगति के लिये अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। अपने इसी कार्य से ब्रुश के आविष्कर्ता वैज्ञानिक एडिस ‘सन्त एडिस’ के नाम से प्रख्यात हुये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118