चिन्तन परिष्कृत हो तो ही परमात्मा का प्रवेश संभव

March 1998

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अब यह लगभग सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य-मनुष्य का परस्पर जोड़ने वाला कोई-न-कोई संबंध -सूत्र अवश्य है, जिसके जिसके माध्यम से सूक्ष्मस्तर पर सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव होता है। पिछले दिनों तक इसे अध्यात्म क्षेत्र की विशिष्टता के रूप में जाना-समझा जाता था, पर अब इसे विज्ञानवेत्ता भी एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में स्वीकारने लगे हैं।

इस संदर्भ में प्रथम वैज्ञानिक परीक्षण सोवियत संघ में हुआ। परीक्षण से प्राप्त परिणाम दस बात की पुष्टि करते थे कि उच्चस्तरीय मानसिक धरातल से उद्भूत तरंगों को उच्चस्तर पर अवस्थान करके ग्रहण किया जा सकता है। प्रयोग के लिए वैज्ञानिकों के एक दल का गठन किया गया। इस दल ने दो ऐसे व्यक्तियों का चयन किया, जो सहजता से उच्चमानसिक धरातल में प्रतिष्ठित हो सकें और उस स्थिति को देर तक बनाये रह सकें। इनमें एक थे कैमेन्स्की नामक एक शिक्षाविद् और दूसरे निकोलाई नामक मूर्धन्य मनःशास्त्री। कैमेन्स्की को मास्को में रखा गया एवं निकोलाई को चार सौ मील दूर लेनिनग्राद की एक शान्त-एकान्त प्रयोगशाला में। कुछ समय पश्चात् निकोलाई ने जब स्वयं को संदेश ग्रहण करने के लिये पूरी तरह तैयार कर लिया, तो उससे सम्बद्ध ई.ई.जी. मशीन चालू कर दी गई। उसमें अल्फा तरंगें आने लगीं। निकोलाई को इस बात की तनिक भी जानकारी नहीं थी कि दूसरी ओर विचार- सम्प्रेषण की प्रक्रिया कब प्रारम्भ होगी। थोड़ी देर उपरान्त जब मास्को से विचार -सम्प्रेषण की क्रिया प्रारम्भ हुई, तो निकोलाई की मानसिक तरंगों में महत्वपूर्ण परिवर्तन परिलक्षित हुआ। यह इस बात का संकेत था कि इस ओर संदेश सफलता पूर्वक ग्रहण किये जा रहे हैं। टेलीपैथी संबंधी विज्ञान सम्मत यह प्रथम प्रमाण था इस प्रयोग के द्वारा जो एक महत्त्वपूर्ण बात सामने आयी, वह यह थी कि प्रयोग की सफलता के लिए ग्राही व्यक्ति की मनोदशा एक विशिष्ट स्तर की एवं भावनाएं उच्चस्तरीय होनी चाहिये, तभी वह सूचना ग्रहण करने योग्य बनता देखा गया। ग्राही की मानसिक तरंगें इसी बात की द्योतक थीं। इसके प्रमाणस्वरूप ग्रहीता के स्थान पर निकोलाई की जगह एक ऐसे व्यक्ति को रखा गया, जो आक्रामक प्रवृत्ति का एवं निषेधात्मक चिन्तन वाला था, तो उन विचारों को पकड़ने में सर्वथा विफल रहा, जो दूसरी ओर से उसके लिये भेजे जा रहे थे।

वास्तव में विचार के रूप में सम्प्रेषित होने वाली यह तरंगें और नहीं, विशेष स्तर के विशिष्ट तरंग दैर्ध्य वाले मस्तिष्क के विद्युतीय कम्पन होते हैं। ग्रहण करने वाले व्यक्ति की मनोदशा भी जब ऐसी ही उच्चस्तरीय होती है, तभी वह उन्हें आकर्षित कर पाता है, अन्यथा नहीं। रेडियो कार्यक्रम में प्रसारण केन्द्र से संगीत को एक विशेष आवृत्ति पर भेजा जाता है और उस आवृत्ति को जब हम अपने ट्राँजिस्टर सेट पर मिलाते हैं, तभी उसे सुन पाते हैं। मनुष्य में उसकी भिन्न-भिन्न मानसिक तरंगों के लिए उसका चिंतनतंत्र जिम्मेदार है। व्यक्ति यदि सात्विक प्रकृति का है, तो उसकी विचारणा- भावना भी सौम्य-सात्विक होती है, तो अपनी ही प्रकृति की सतोगुणी तरंग उत्सर्जित करती है। ऐसे ही व्यक्ति सूक्ष्म-संदेशों को पकड़ने में सफल होते देखे गये हैं।

प्रयोगों के दौरान यह भी देखा गया है कि ग्रहीता और प्रेषक जब उच्चस्तरीय भावधारा से जुड़े होते हैं, तो उनमें से एक दिमागी तरंग में परिवर्तन से वही बदलाव दूसरे में संचरित होता है। रूसी शोधकर्ताओं द्वारा सम्पन्न किये गये एक ऐसे ही प्रयोग का उल्लेख एम. रिजल ने ‘इण्टरनेशनल जनरल ऑफ पैरासाइकोलॉजी’ नामक पत्रिका के एक लेख में किया है। इस प्रयोग में कैमेन्स्की के समक्ष जलने-बुझने की आवृत्ति अल्फा दायरे में थी। दूसरी ओर निकोलाई ने जब स्वयं को संदेश प्राप्त करने के अनुकूल बनाया, तो थोड़ी देर पश्चात् देखा गया कि उसकी तरंगों की आवृत्ति भी बिलकुल वही हो गई है, तो सम्प्रेषक की थी। ऐसा ही निष्कर्ष जैफर्सन मेडिकल कॉलेज, फिलाडेल्फिया के दो शरीरशास्त्रियों द्वारा दो जुड़वा भाइयों पर किये गये प्रयोग से मिला, जिसका वर्णन न्यूयार्क के ‘हैराल्ड ट्रिब्यून’ पत्र के ‘ट्वीन प्रूव इलेक्ट्रॉनिक ई.एस.पी.’ नामक निबन्ध में जे. हिक्सन द्वारा किया गया है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि शब्द-शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। हम जो कुछ सोचते-विचारते हैं, वह विचार-तरंगों के रूप में अंतरिक्ष में घूमता रहता है। वैज्ञानिकों ने इस परिधि को ‘विचारमण्डल’ नाम दिया है। उनका कहना है कि भाव-तरंगें इसी क्षेत्र में मंडराती रहती हैं। यदि हम अपनी विचार-चेतना को उस स्तर तक परिष्कृत कर सकें, तो ऊपर चक्कर काटती उदात्त विचारणायें सहज ही हम तक आकर्षित होकर हमारे कार्य में सहयोग दे सकती हैं। अमेरिकी शरीरशास्त्री डब्ल्यू. पेनफील्ड एवं एच.जास्फर अपनी पुस्तक ‘एपीलेप्सी एण्ड दि फक्शनल एनोटॉमी ऑफ दि ह्यूमन ब्रेन’ में लिखते हैं कि सापेक्षवाद के जनक एवं विज्ञानजगत के मूर्धन्य भौतिकीविद् अलबर्ट आइन्स्टीन की मस्तिष्कीय तरंगों की जाँच से पता चला था कि उनके दिमाग से अनवरत अल्फा तरंगें निकलती थीं, चाहे वह जटिल गणितीय गणना में ही क्यों न उलझे हों। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि अल्फा तरंगें मस्तिष्क की समग्र सक्रियता की स्थिति में नहीं, शिथिलता की दशा में निकलती हैं, किन्तु आइन्स्टीन के मामले में यह एकदम विपरीत था। वहाँ सक्रिय मस्तिष्क में भी अल्फा तरंगें देखी गईं। इसका अर्थ यह हुआ कि उनकी मानसिक क्रियाशीलता गहरे ध्यान स्तर की हुआ करती थी। अर्थात् ध्यान की स्थिति में साधक जिस उन्नत भावभूमि में आरुढ़ होते हैं, वैसी ही उच्चस्तरीय मनोदशा जटिल गणनाओं के समय में आइन्स्टीन की हुआ करती थीं इस स्थिति में अनेक बार उन्हें आश्चर्यजनक रूप से कठिन गणितीय गणनाओं संबंधी समस्या के हल हाथ लगे। कहते हैं कि ‘सापेक्षवाद का सिद्धान्त’ ऐसी ही एक चिन्तन-प्रक्रिया की फलश्रुति था।

शशिभूषण सान्याल की गणना बंगाल के प्रसिद्ध संतों में होती हैं। वे जितने बड़े ज्ञानी और विद्वान थे, वैसे ही अद्भुत कर्मयोगी भी थे। अक्सर अध्ययन और लेखन में इतने तल्लीन हो जाते थे कि समय का ध्यान नहीं नहीं रहता और कभी-कभी तो 15-16 घंटे तक लगातार कार्य करते रहते। वे उच्चकोटि के ईश्वरभक्त भी थे। ज्ञान, कर्म और भक्तियोग में एक समान गति होने के कारण ही लोग उन्हें ‘योगत्रयानन्द’ के नाम से पुकारने लगे। बाद में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने साधना-विज्ञान पर कुछेक उच्चस्तरीय पुस्तक भी लिखीं। लेखनसंबंधी चर्चा के दौरान वे प्रायः कहा करते कि जब कभी उनकी बुद्धि निरुपाय हो उठती और यह नहीं सूझ पड़ता था कि आगे की जटिलता का समाधान क्या हो, तभी अकस्मात उसका हल दिमाग में कौंध उठता और वे उस बौद्धिक गतिहीनता के अवरोध को सरलतापूर्वक पार कर लेते। कभी गहरी उधेड़बुन में फंसते, तो आगे का मार्गदर्शन उन्हें विस्मयकारी ढंग से मिलता और लेखनकार्य संबंधी गतिरोध से उबर जाते। इसे ईश्वरीय सहायता कह लें या विचार-मंडल से उच्चस्तरीय विचारों का आदान-प्रदान, बात एक ही है। उपरोक्त उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि गहन-चिन्तन की स्थिति और गहरे-ध्यान की अवस्था, दोनों अभिन्न हैं। जब किसी एक विषय -वस्तु के गिर्द विचारणा चलती है, तो वह चिन्तक को धारणा-ध्यान जैसी भूमिका में प्रतिष्ठित कर देती है, अन्तर एक ही है कि मनीषी का चिंतन सापेक्ष सत्य की तलाश कर रहा होता है, एक को पुस्तकीय तथ्य कहें, तो दूसरे को चरम सत्य कहना पड़ेगा। एक माया है, तो दूसरा ब्रह्म, एक कह तुलना बर्फ से करें, तो दूसरे को अगोचर वायप् मानना पड़ेगा। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अतः उन्हें दो नहीं, तत्वतः, एक ही कहना चाहिये।

कर्मयोग इसी तथ्य का प्रतिपादक है और इस बात की घोषणा करता है कि इसके माध्यम से भी उस एकत्व अद्वैत की प्राप्ति की जा सकती है, जिसका उल्लेख ज्ञानयोग और भक्तियोग की चर्चाओं में होता है। यदि यह सत्य है कि गहराई में उतारकर विचारमंडल के उच्चस्तरीय तथा अभीष्ट विचारों से संपर्क-सूत्र जुड़ जाना अथवा उस दशा में परमात्मा का सहयोग प्राप्त कर लेना कोई आश्चर्यजनक या अनहोनी बात नहीं।

दैनिक जीवन में भी किसी-किसी के समय यदा-कदा ऐसे घटनाक्रम घटित हो जाते हैं। देखा यह जाता है कि हम किसी विषय पर सोचते हुए गहराई में उतर जाते हैं, तभी गहन तमिस्रा में तड़ित-प्रकाश की तरह समाधान उभरकर ऐसे सामने आता है, मानो किसी ने बलात् उसे मस्तिष्क में प्रविष्ट करा दिया हो। विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार, ऐसा इसलिये होता है कि इस स्थिति में निकलने वाली मानसिक तरंगें विचारमंडल के कम्पन प्रवाह के एकदम सारूप्य होती हैं, अतएव वहाँ से उसी स्तर का विचार-प्रवाह मस्तिष्क में संचारित होने लगता है। यही समस्या का परोक्ष हल है।

बिजली के निगेटिव और पॉजिटिव तार जब परस्पर जुड़ते हैं, तो तत्काल विद्युतधारा उसमें दौड़ने लगती हैं। ठीक उसी प्रकार जब चिन्तक का मानसिक धरातल विचारमंडल के आयाम में आ जाता है अर्थात् जब दोनों एकस्तरीय एवं एकप्रकृति होकर परस्पर सम्बद्ध होते हैं, तो अन्तरिक्ष से वाँछनीय विचारधारा मानवी मस्तिष्क में दौड़ने लगती है। सर्वसाधारण में यह प्रवाह अवरुद्ध बना रहता है। अध्यात्मविद्या के आचार्य इसका एक ही कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि विद्युत किसी कुचालक पदार्थ में नहीं दौड़ सकती। उसके लिये सुचालक का अनुबन्ध अनिवार्य है। सामान्य मस्तिष्क उस दिव्य प्रवाह के लिये कुचालक और कुत्सित स्तर का साबित होता है, अस्तु उसे ग्रहण कर पाने में समर्थ नहीं हो पाता। जो लोग अपनी चिन्तन-चेतना को परिष्कृत कर लेते हैं, वो मानसिक एकाग्रता द्वारा अनायास ही ऐसे उच्चस्तरीय विचार-प्रवाहों से संपर्क साधने में सफल होते हैं जो उनके भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की कितनी ही समस्याओं से हल ढूंढ़ने में समर्थ सहायक की भूमिका सम्पन्न करते हैं।

विचारणा वास्तव में चेता की उत्पाद है। कच्चा माल जिस स्तर का होगा, उससे निर्मित वस्तु की गुणवत्ता भी तदनुरूप होगी। यहाँ निकृष्ट के माध्यम से उत्कृष्ट हस्तगत करने का कोई प्रावधान नहीं है। कीचड़ सदा गंदगी और बदबू ही फैलाती है, जबकि कमलपुष्प अपनी मोहक सुवास से वातावरण को भर देता है। यों कमल कीचड़ में ही खिलते हैं फिर भी सुगन्ध और दुर्गन्ध की सत्ता अपना पृथक अस्तित्व बनाये रहती है। न कमल फूल कभी दुर्गन्धित होते हैं, न कीचड़ में ही खुशबू आ पाती है। दोनों की प्रकृति कभी एकाकार नहीं होती, कारण कि वे विरोधी गुणधर्म वाले हैं। कीचड़ की निकृष्टता कमलपुष्प की सुगन्धि को नहीं प्रभावित कर पाती, वैसे ही कमल की उत्कृष्टता कीचड़ की सड़ाँध में कहाँ समा पाती है? विलय-विसर्जन के लिये परस्पर घुलने-मिलने के लिये दो तत्वों का समानधर्मी होना अत्यन्त आवश्यक है। विचारणा और चेतना तात्विक दृष्टि से यों एक ही है और एक के परिष्कार से दूसरे का परिमार्जन स्वतः सम्पन्न हो जाता है। इतने पर भी भिन्न प्रकृति और स्तर होने के कारण ही विचारमण्डल के दिव्य चेतना प्रवाह से संपर्क साधने में वे विफल रहते हैं।

हम प्राण चेतना के अनन्त सागर में रह रहे हैं। समस्त संसार उसी का क्रीड़ा-कल्लोल है। अपनी व्यष्टिसत्ता भी उसी की अभिव्यक्ति है। जो प्राण हममें है, वही अन्यों में और इस शून्याकाश में संव्याप्त है। उसका मूल तत्व एक ही है, पर व्यक्तिभेद और जीवभेद के आधार पर उसकी प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है।

स्वामी अभेदानन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि योगीजन दूसरों के मनोभावों को इसलिये सरलता से समझ लेते हैं क्योंकि हमारे प्राण-परमाणु वातावरण में घुलते-मिलते रहते हैं। संदेश-सम्प्रेषण की स्थिति में ही परमाणु तरंग रूप में निर्दिष्ट व्यक्ति तक पहुँचते और उससे बार-बार टकराते हैं। यदि उक्त व्यक्ति का प्राण-कम्पन सम्प्रेषक के प्राण-कम्पन के समतुल्य हुआ, तो संदेश उसकी सम्पूर्ण चेतना में संचारित हो जाता है, अन्यथा सम्प्रेषक की प्राण-तरंगें बिना संपर्क के वापस लौट आती हैं।

हम अपनी चिन्तन-चेता को परिष्कृत करें, परमात्मा का दिव्यप्रवाह हमारे अन्दर प्रवाहित होता चला जायेगा। परिमार्जन से कम स्तर पर जीवसत्ता और परमसत्ता का मिलन-समागम संभव नहीं। अस्तु, इसे नैमित्तिक क्रिया की तरह अभीष्ट और आवश्यक मानते हुए तत्परतापूर्वक सम्पन्न कराने का हर एक को प्रयत्न करना चाहिये


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