मनुष्य एवं अन्य जीवों की मूलसत्ता अत्यन्त छोटी होती है, पर उसी में सम्पूर्ण जीव समाहित होता है। उस सर्वथा सूक्ष्म इकाई से सर्वांगीण सुन्दर प्राणी के विकास को अंगुलिनिर्देश कहाँ से मिलता है? उसका मार्गदर्शन एवं संचालन करने वाली वह कौन-सी शक्ति है, जो उसे यह बतलाती है कि अमुक कोशिका से अमुक अवयव बनेंगे एवं उसका आकार प्रकार अमुक प्रकार का होगा? इस सम्बन्ध में शरीरशास्त्री भी अब लगभग उसी निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं, जिसके बारे में तत्वज्ञानी ऋषियों ने बहुत पहले ही कह दिया था कि सृष्टि के समस्त पदार्थ और प्राणियों का अभिवर्धन, विकास, नियमन, नियंत्रण ईश्वर के अधीन है।
उल्लेखनीय है कि प्राणीशास्त्रियों की जीव विकास को लेकर आरम्भ से ही कई प्रकार की जिज्ञासायें रहीं हैं, यथा जीव की उत्पत्ति कैसे होती है? उसके विकास पर अंकुश किसका होता है? किस विधान के अंतर्गत जीवन-मरण का चक्र चलता है और किसके निर्देश पर वे अव्यक्त से व्यक्त एवं व्यक्त से अव्यक्त में निश्चित अवधि बिताकर आते जाते रहते हैं? जीवविज्ञान की समस्याओं चर्चा जिस विभाग के अंतर्गत होती है, उसे ‘मार्फोजेनिसिस’ कहते हैं, जिसका अर्थ है ‘आकृति का अस्तित्व’।
सर्वविदित है कि विज्ञान के अध्ययन अनुसंधान का क्षेत्र “अपरा” प्रकृति है। इसी में वह अपनी समस्त उलझनों का हल ढूंढ़ने का प्रयास करता है। पदार्थगत रहस्यों का उद्घाटन करने में वह सफल भी होता है, पर जो पहेली ‘परा’ प्रकृति से सम्बन्धित है, पदार्थ ज्ञान के आधार पर उनको कैसे सुलझाया जा सकेगा? इसी प्रकार का स्वर मूर्धन्य विज्ञानी रुपर्ट सेल्ड्रेक की रचना- ‘ए न्यू साइन्स ऑफ लाइफ’ से ध्वनित होता है।
सेल्ड्रेक ने अपने उपयुक्त ग्रंथ में जीव विकास के सम्बन्ध में पाँच प्रकार के प्रश्न उठाये हैं और उन पर गहन विचार मंथन करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्राणीशास्त्री भले ही विकास की नियंत्रित और सुसम्बद्ध प्रक्रिया को जीन और डी.एन.ए. जैसे इकाइयों की परिणति मानें, पर वास्तविकता यह है कि उस पर किसी पदार्थ सत्ता का नहीं, अपार्थिवसत्ता का आधिपत्य हैं। वह कहते हैं कि यदि जीन को विकास प्रक्रिया का विधाता माना गया, तो फिर एक के बाद एक प्रश्न- प्रति प्रश्न पैदा होते जायेंगे, जिसका जवाब दे पाना शरीरवेत्ताओं के लिये आसान काम नहीं होगा। जैसे बीज कोष यदि विकास सम्बन्धी सम्पूर्ण क्रियाविधि को संचालित करते हैं, तो फिर उन्हें निर्देश देने वाली पदार्थ सत्ता कौन है? उस अज्ञान पदार्थ सत्ता का संचालन कहाँ से होता है, फिर वे किनके द्वारा नियंत्रित होते हैं? इन सवालों के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि भौतिक विज्ञान का अनुसंधान अभी उस गहरायी तक नहीं पहुँचा है कि ऐसे गम्भीर प्रश्नों का हल खोज सके। भविष्य में बीजकोषों के उपरान्त यदि विज्ञान ऐसी सूक्ष्म स्तर की इकाइयों को ढूंढ़ लेने में सफल हो भी जाता है, तो भी आगे चलते हुए अन्ततः हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जायेंगे, जहाँ हमें किसी अभौतिक सत्ता को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
सेल्ड्रेक के प्रश्नों से ऐसा आभास मिलता है कि विज्ञान अपने पूर्वाग्रह से उबर कर अब किसी परासत्ता को अंगीकार करने की स्थिति में पहुँचा है। इस संदर्भ में उनने जो पहला प्रश्न उठाया है, वह वृद्धि और विकास से संबंधित है। उनका कहना है कि शुक्राणु और अण्डे के मिलन के बाद जो भ्रूण-कलल पैदा होता है, वह एक कण के सदृश्य संरचना है। धीरे-धीरे उसके आकार में वृद्धि होती जाती है और वक एककोशीय संरचना कोशा-विभाजन द्वारा बहुकोशीय बन जाती है। इस स्थिति में वह बिलकुल गेंद की शक्ल और रूप ग्रहण कर लेती है। सेल्ड्रेक की मूल समस्या इसी स्थिति से सम्बन्धित है, वे कहते हैं कि भ्रूण-कलल जब आरम्भ से ही गोलाकार रूप में बढ़ता हुआ ‘लास्टोसील’एवं ‘ब्लासटुला’ ‘अवस्थाओं तक अपना व आकार अक्षुण्ण बनाये रहता है, तो फिर बाद में उसकी उक्त शक्ल’ में व्यवधान क्यों पैदा होता है? वह अपना प्रारम्भिक गेंदनुमा स्वरूप खो क्यों देता है? पदार्थसत्ता स्वयं कभी अपना स्वरूप खोती नहीं। वह अपने मौलिक रूपाकार में ही वृद्धि करती रह सकती है, पर यहाँ तो एक निश्चित अवधि के पश्चात् भ्रूण अपना वास्तविक स्वरूप परिवर्तित कर लेता है और मानवाकार में बनने-ढलने लगता है, ऐसा क्यों? नियत समय के उपरान्त उसे रूप-परिवर्तन की प्रेरणा कहाँ से मिलती है? यदि इसे पूर्णतः याँत्रिक प्रक्रिया भी मान लें, तो भी उपकरणों में त्रुटियाँ और गड़बड़ियाँ तो प्रायः होती ही रहती है, किन्तु यहाँ ऐसी कोई भूल कभी नहीं देखी जाती। यदि 64 सेल अवस्था में आकार परिवर्तन होना है, तो बराबर उसी अवस्था में यह घटित होगा, न तो इसमें 32 सेल अवस्था की गुँजाइश है, न 128 सेल अवस्था की। ऐसी त्रुटिहीनता किसी याँत्रिक प्रक्रिया से परे ही हो सकती है, उसके अंतर्गत कदापि नहीं।
इसके अतिरिक्त विभिन्न आकृति व प्रकृति वाले अंग-अवयवों का विकास एक नितान्त माँसयुक्त पिण्ड से कैसे होता है? यह समझ से परे हैं। माँस की ऊतक एक प्रकार की है, जबकि मानव शरीर में त्वचा, रक्त, अस्थि, मज्जा, नाखून, बाल आदि कितनी ही प्रकार की ऊतकें होती हैं। यह सब अकेले रक्त-माँस के पिण्ड (गर्भ की आरम्भिक अवस्था) से कैसे उत्पन्न हो जाती हैं और उनके सही-सही विकास का नियमन कहाँ से होता है? क्या इस समूची प्रक्रिया में किसी अदृश्य सत्ता का हाथ होना नहीं माना जाना चाहिये?
सेल्ड्रेक की दूसरी समस्या भी गर्भ से संबंधित है। अपवादों को छोड़ दिया जाये, तो अक्सर देखा यह जाता है कि किसी भी जन्तु के आधे हिस्से को नष्ट कर देने के बाद जीव की मौत हो जाती है। गर्भ के साथ ऐसी बात नहीं। इसकी पुष्टि के लिये वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया। उन्होंने ‘ड्रेगन फ्लाई’ के अण्डे के भीतर पल रहे गर्भ के साथ छेड़छाड़ की। अण्डे के मध्य भाग को एक मजबूत धागे से कसकर बाँध दिया और गर्भ के दो हिस्से कर दिये। तत्पश्चात् उसके एक भाग की हत्या कर दी गयी। इतने पर भी उस विभाजित गर्भ का विकास रुका नहीं, वह एक सम्पूर्ण ‘महामक्खी’ के रूप में विकसित हुआ, अन्तर सिर्फ इतना पाया गया कि उसका कद थोड़ा छोटा बना रहा। यही प्रयोग ‘सी-अर्चिन’ नामक एक समुद्री जीव में दुहराया गया। परिणाम वहाँ भी पहले जैसा ही देखा गया अर्थात् आधे गर्भ से ही एक सम्पूर्ण ‘सी-अर्चिन’ पैदा हो गया। इसका आकार भी सामान्य प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न अर्चिन से बतिपय लघु रहा।
उपर्युक्त दोनों प्रयोगों में जब गर्भ को दो हिस्सों में विभक्त करके छोड़ दिया गया, उनमें से किसी भी गर्भार्द्ध को विनष्ट नहीं किया गया, तो दोनों हिस्सों में से दो सर्वांगपूर्ण प्राणी उत्पन्न हुए। यह स्थिति बिल्कुल निम्न कहलाने वाले जीवधारियों तक में ही केवल सीमित है, सो बात नहीं, वरन् धरती का सर्वोपरि प्राणी मनुष्य तक में समान रूप से देखी जाती है, फर्क मात्र इतना है कि यहाँ सब कुछ स्वतः सम्पन्न होता है। विज्ञानवेत्ता बताते हैं कि मानव की दशा में जहाँ एक बार में एक एक अधिक बच्चे पैदा होते हैं, वहाँ इसका मतलब गर्भ का सुनिश्चित विभाजन है। अब यह बात और है कि यहाँ कार्य प्राकृतिक ढंग से होता है, पर गर्भ के टुकड़े तो हुए ही। पिछले दिनों इस संबंध में एक आश्चर्यजनक घटना प्रकाश में आई।
विगत नवम्बर में अमेरिका की केनी मैकाए नामक एक 24 वर्षीया महिला ने वहाँ के मैथोडिस्ट अस्पताल में एक साथ सात बच्चों को जन्म दिया। इनमें से चार लड़के और तीन लड़कियां हैं एवं सभी स्वस्थ हैं। एक साथ इतने अधिक बच्चे के जन्म होने की विश्व की यह पहली घटना है। ऐसा कैसे हुआ।? इस सम्बन्ध में मैकाये का कहना है कि उसने प्रजनन शक्ति बढ़ाने वाली दवाओं का सेवन किया था। संभव है इन्हीं दवाओं के प्रभाव के कारण भ्रूण एक साथ सात हिस्सों में बंट गया और प्रत्येक भाग पृथक-पृथक भ्रूण की तरह व्यवहार करता हुआ स्वतंत्र तथा सम्पूर्ण शिशु के रूप में विकसित हो गया।
“सेल्ड्रेक का असमंजस यहाँ यह है कि गर्भ के खण्ड-खण्ड में अंट जाने के बावजूद उसके सभी टुकड़े स्वयं में सम्पूर्ण इकाई की तरह क्योंकर व्यवहार करते हैं? ऐसा करने का निर्देश उन्हें कहाँ से मिलता है? भ्रूण खण्डित होने के पश्चात् तो उन्हें विनष्ट हो जाना चाहिये था, पर ऐसा नहीं होता। क्या यह किसी अलौकिक सत्ता को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है?
इनकी तीसरी आपत्ति ‘रीजनरेशन’ के संबंध में है। निम्न श्रेणी के जीवों की यह एक प्रमुख विशेषता है। वे अपने कटे हुए अंगों का पुनरुत्पादन बड़ी सरलता से कर लेते हैं। छिपकली की पूँछ किसी प्रकार कट जाये या काट दी जाये, तो वे उसे कुछ ही दिनों में दुबारा उगा लेती हैं। केंचुए में यह प्रक्रिया और भी आश्चर्यजनक ढंग से होती है। सम्पूर्ण केंचुए के यदि कई टुकड़े कर दिये जायें, तो सभी हिस्से स्वतंत्र केंचुए के रूप में विकसित हो जाते हैं। जिनमें सिर नहीं है, वे सिर विकसित कर लेते हैं, जिनमें जननाँग नहीं है, वह खण्ड नये सिरे से अपने जननांग पैदा कर लेते हैं। ऐसी ही विचित्रता जन्तुओं की आँतों में पायी जाने वाली ‘टेपवर्म’ (फीताकृमि) में देखी जाती है। वे भी अपने अलग-अलग खण्डों में से पृथक-पृथक सम्पूर्ण कृमि उत्पन्न कर लेते हैं। इसे शरीरशास्त्र की सामान्य प्रक्रिया कैसे कहा जाय? उन छोटे-छोटे टुकड़ों को अपने अभावग्रस्त अंगों का ज्ञान कैसे हो जाता है और वे कहीं सिर, कहीं जननाँग कैसे विकसित करने लगा जाते हैं, यह कार्य इतना सटीक और दोषरहित होता है कि कभी भी किसी एक ही खण्ड में वही अंग दुबारा पैदा नहीं होते, जो उस भाग में पहले से ही विद्यमान हैं अर्थात् सिर वाले हिस्से में पुनः सिर नहीं पनपता या जननाँग वाले भाग में भूलवश भी उसका पुनरुत्पादन नहीं होता। इससे भी अचम्भे की बात यह है कि वे टुकड़ों में कट-बंटकर भी जीवित बने रहते हैं। यह शरीरशास्त्र के सामान्य सिद्धान्त के विपरीत है। तिलचट्टे का सिर यदि काट दिया जाये, तो यह सच है कि बहुत समय तक वह जिन्दा बना इधर-उधर घूमता फिरता रहता है, लेकिन अन्ततः उसकी मौत सुनिश्चित है। यहाँ वैसा क्यों नहीं होता? स्पष्ट है- अंग-अवयवों का कटना- मिटना ही मरण का निमित्त नहीं है। उसे सुनिश्चित करने वाला तत्व कोई और है।
इसी तथ्य की पुष्टि एक अन्य प्रयोग से भी हुई। उसमें वैज्ञानिकों ने छिपकली की आँख में से लेन्स निकालकर उसे अन्धा बना दिया। विज्ञानवेत्ताओं का विश्वास था कि अब छिपकली स्थायी रूप से अन्धी हो गई और आजीवन ज्योतिहीन बनी रहेगी, किन्तु जो परिणाम प्राप्त हुआ, वह चौंकाने वाला था छिपकली ने अपने नेत्र -लेन्स का पुनरुत्पादन कर लिया, जो आशा से एकदम विपरीत था। अब तक की अवधारणा के अनुसार, सम्पूर्ण शरीर-तंत्र पर बीजकोषों (जीनों) का नियंत्रण होता हैं उसी के अधीन काया की समस्त क्रियायें नियमित और संचालित होती हैं। निम्न श्रेणी के प्राणियों में अंगों के पुनरुत्पादन की क्रिया भी उसी के अधीन है। दिप्कली के मामले में इसका प्रश्न ही पैदा नहीं होता, कारण कि उसका लेन्स त्वचा से निर्मित होता है। जब छिपकली पूर्णतया वयस्क बन जाती है, तो न सिर्फ त्वचा से अपितु शरीर के शेष भाग से भी लेन्स का सम्बन्ध बिल्कुल समाप्त हो जाता हैं। वह एक सजीव आँख के अन्दर निर्जीव काँच की तरह होता है। अंगों के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि विनष्ट अवयव का अपने जनक अंग से हर प्रकार का संपर्क बना रहे तभी बीजकोष उसके रीजनरेशन में सहायक होते हैं। यहाँ इसका सर्वथा अभाव था, इसलिये शरीरविज्ञानियों को यह बिल्कुल भी आशा नहीं थी कि लेन्स को एक बार काटकर निकाल देने के उपरान्त छिपकली उसे दुबारा उगाने में समर्थ सिद्ध होगी, लेकिन आश्चर्य की बात कि आइरिश (पुतली का भीतरी हिस्सा) में से उसका पनपना आरम्भ हो गया और करीब एक महीने बाद एक नवीन लेन्स ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया। यह नया लेन्स हर प्रकार से पुराने की अनुकृति थी। उसमें कहीं कोई दोष नहीं था। यहाँ सेल्ड्रेक जीवविज्ञानियों के समक्ष एक प्रश्न प्रस्तुत करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? सर्वमान्य नियम की उपेक्षाकर यह घटना कैसे घटी? इसके पीछे क्या किसी परोक्षसत्ता के हाथ की बात नहीं स्वीकारी जा सकती?
उनका अगला प्रश्न रूप-विन्यास का है। वे इस बात से हैरान हैं कि मानवी शुक्राणु और अण्डाणु में से कोई भी आकृति मनुष्य शक्ल से मिलती-जुलती नहीं है, फिर भी उनके संयोग से मानवाकृति का जन्म होता है, ऐसा क्यों? कोई अन्य आकृति भूलवश भी उससे क्यों नहीं पैदा होती? सूच्यग्र के बराबर शुक्राणु और अण्डाणु! इसके बावजूद इतना चमत्कारी परिणाम कि शिशु में माँ की छवि भी झलके और पिता का चेहरा भी झाँके। इतना ही नहीं, दोनों के स्वभाव और आदत संबंधी गुण-दोष भी अवतरित हों एवं वंश-परम्परा के रूप में पीढ़ियों से चले आ रहे रोगों का का क्रम भी न टूटे। पदार्थ स्तर पर इतनी शुद्धता और त्रुटिहीनता असंभव है। वे कहते हैं कि यदि इसके पीछे बीजकोषों की भूमिका होना स्वीकारा जाये, तो वह भी पदार्थसत्ता की ही सूक्ष्म इकाई है। उससे इतनी शुद्धता की आशा करना अनुचित होगा। पदार्थ से निर्मित निर्जीव यंत्र-उपकरणों से अगणित गलतियाँ होती रहती हैं, फिर उक्त मामले में किसी प्रकार की कभी भी अशुद्धि न होने के पीछे क्या निमित्त माना जाये? इसका उत्तर दे पाने में विज्ञानविद् असमर्थ हैं।
इसके अतिरिक्त कशेरुकी प्राणियों (वटिबे्रट) के भ्रूण, विकास की आरम्भिक अवस्था में लगभग मिलते-जुलते देखे जाते हैं। उसके बाद ही वे अपना जातिगत रूप और आकार ग्रहण करना प्रारम्भ करते हैं। एक जैसी अवस्था के उपरान्त अपनी-अपनी जातिगत विशेषताओं वाली शक्ल ग्रहण करने संबंधी मार्गदर्शन उन्हें कहाँ से मिलता है? बीजकोषों से? नहीं! यह अवधारणा पहले ही अमान्य हो चुकी है, कारण कि पदार्थसत्ता कभी भी इतना सही और शुद्ध दिशादर्शन नहीं करा सकती, कभी-न-कभी भूल उससे अवश्यम्भावी है, जबकि जीवजगत में कभी भी ऐसा देखा-सुना नहीं गया, जिसमें घोड़ी से गधा पैदा हुआ हो और बकरी से बिल्ली जनी हो। क्या इससे किसी अलौकिक सत्ता के अस्तित्व का होना सिद्ध नहीं होता?
उनकी अन्तिम शंका परिस्थितियों से संबंधित है। वे कहते हैं कि परिस्थितियाँ एक जैसी हों, परिवेश एक जैसे हों, चुनौतियाँ और आवश्यकतायें एक जैसी हों, इसके बावजूद भिन्न-भिन्न जीवों के विकास की शैली भिन्न-भिन्न होती है, ऐसा क्यों? यह भी नहीं कि यह विशेषता केवल जीवजगत की हो, वनस्पतिजगत में भी यह व्यतिरेक समान रूप से दृष्टिगोचर होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई एक ही तत्व दोनों में से प्रक्रिया का समान रूप से नियमन करता है। उदाहरण के लिये, उष्ण कटिबंधीय वृक्षों को लिया जा सकता है। कटिबंध एक ही है, इतने पर भी अलग-अलग पेड़ों का स्वभाव अलग-अलग है। पर्यावरण समान है, फिर भी वनस्पतियों के आचरण में असमानता झलकती है।
आमतौर पर एक जलवायु और एक वातावरण में प्राणियों और वनस्पतियों में अक्सर सदृश्यता ही दिखलायी पड़ती है। शीतप्रधान देशों के निवासी गोरे होते हैं तथा उनके बाल भूरे ही होंगे। इसमें किसी प्रकार के व्यतिक्रम की कोई गुंजाइश नहीं है। रेगिस्तानी इलाकों में उगने वाले पौधों में काँटे अवश्य होंगे। इन उपाँगों के माध्यम से ऐसे (जेरोफाइटिक) पौधे अपने अन्दर के जल को सुरक्षित रखने में सफल होते हैं। बर्फीले क्षेत्र में साइकस और पाइनस प्रकृति के ही वृक्ष पाये जाते हैं, दूसरे नहीं।
इतने पर भी क्या कारण है कि एक ही प्रकार की मिट्टी में अगल–बगल खड़े पादपों की प्रकृति में जमीन-आसमान जितना अन्तर पाया जाता है? एक वृक्ष अपनी पत्तियों को धरती के लगभग समानान्तर रखते हुए पेड़ के नीचे छाया करने का कार्य करता है, जबकि उसी के पार्श्व में मौजूद दूसरा पेड़ अपनी पत्तियों को खड़ी मुद्रा में रखते हुए ऐसा कोई आच्छादन बनाने में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखाता, फलतः उसके नीचे धूप व्याप्त रहती है। अब सवाल यह है कि एक ही जलवायु, एक ही वातावरण, एक ही कटिबन्ध में दो नितान्त पृथक प्रकार के पादप कैसे पैदा हो गये? उपरोक्त तर्कों के आधार पर वार करने पर यह आश्चर्यजनक मालूम पड़ेगा।
ऐसी ही विसंगति प्राणियों में भी देखी जाती है हाथी और जिराफ पर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि दोनों की प्रकृति करीब मिलती-जुलती है। हाथी को पेड़ के पत्ते खाने पड़ते हैं और जिराफ को भी अपने भोजन के लिए उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है। विकासवादियों के कथनानुसार, जिराफ को चूँकि ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की पत्तियाँ खानी पड़ती थीं, इसलिये उसकी गर्दन पर निरन्तर दबाव बना रहा, जिससे वह लम्बी हो गई। दलील अपने स्थान पर सही है। असमंजस एक ही है कि बिल्कुल इसी प्रकार का प्रयत्न करने वाले हाथी की नाक लम्बी क्यों हुई? जबकि गर्दन एकदम सामान्य बनी रही। दोनों के सामने अस्तित्व संबंधी चुनौती एक जैसी है, फिर भी एक की गर्दन लम्बी हो जाती है, जबकि दूसरे की नाक, ऐसा क्यों?
इन प्रश्नों का सटीक और तर्कसंगत जवाब देने में विज्ञानवेत्ता असमर्थ हैं। ऐसे में उनके समाधानों को सारगर्भित कैसे माना जाये? कुल मिलाकर इस संदर्भ में वे एक ही बात कहते हैं कि विकास में बीजकोषों की भूमिका निर्णायक होती है, पर सेल्ड्रेक उक्त तर्क को यह कहकर निरस्त कर देते हैं कि विकास की आरंभिक अवस्था में शरीर के समस्त बीजकोष एक जैसे होते हैं, उनमें विभेद तो बहुत बाद में उत्पन्न होता है। बीजकोषों में जब यह अन्तर उत्पन्न होता है, उससे पूर्व ही काया के अन्तराँगों और बहिराँगों का निर्माण आरम्भ हो चुका होता है। ऐसी स्थिति में किस कोश से कौन-सा अवयव बनना है? शरीरशास्त्री यहाँ निरुत्तर हो जाते हैं।
रूपर्ट सेल्ड्रेक कहते हैं कि जीव-विज्ञानी जब तक इनका हल पदार्थस्तर पर ढूँढ़ते रहेंगे, तब तक उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी, जबकि यह उससे ऊपर की चीज है। इसे उन्होंने मोफोंजेनेटिक क्षेत्र नाम दिया है और कहा है कि हर जीवधारी का ऐसा अपना एक निजी क्षेत्र होता है। यहाँ से उसे हर प्रकार का नियंत्रण और निर्देश प्राप्त होता है। यह वास्तव में और कुछ नहीं, जीवचेतना का ही बदला हुआ नाम है।
आत्म-चेतना परमात्मचेतना की अंशधर है। जीवों में परिवर्तन, वृद्धि और विकास के रूप में जो कुछ भी सजीवता और सक्रियता दिखलायी पड़ती है, उसकी यथार्थ निमित्त वास्तव में यही है। यह इस बात से भी स्पष्ट परिलक्षित होता है कि प्राणहीन कलेवर अपनी वृद्धि और विकास तो दूर, देर तक काया की यथास्थिति बनाये रख पाने में भी असमर्थ साबित होता है और जल्द ही सड़ने-गलने लगता है। वास्तव में हमें अन्तः-चेतना को ही समस्त कायिक गतिविधियों का नियामक और नियंत्रक मानना पड़ेगा। आत्मा चूँकि परमात्मा का प्रकाश है। अतएव यह कहने में हर्ज नहीं कि प्राणी के अन्तर के सम्पूर्ण क्रिया−कलाप उसी के द्वारा संचालित है। विज्ञान अब इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका है।