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March 1998

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जब मैं इस संसार से प्रस्थान करने लगूँ, तो मेरे अंतिम शब्द हों-

“जो कुछ मैं देख चुका हूँ, वह अद्वितीय, अकल्पनीय, वर्णनातीत, है। मैंने आलोक सागर में विकसित सहस्रार कमल के अदृश्य मधु का रसास्वादन किया है, इसीलिए मैं धन्य हूँ। मैं अनंत आकारों के इस क्रीड़ा-भवन में जीभर कर खेल चुका हूँ और इसमें मैंने निराकार की झाँकी देखी है। मेरा समस्त शरीर, मेरा अंग-अंग उस स्पर्शातीत के स्पर्श से पुलकित है। सो यदि मेरा अंत आता है तो आने दो-ये मेरा अंतिम शब्द हों। -रवीन्द्र नाथ ठाकुर


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