श्रम देवता की प्रतिष्ठा

March 1998

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आप! दायें हाथ से गालों पर लुढ़क आये आँसुओं को पोंछने का प्रयास करते हुए उन तीनों महिलाओं के मुख से लगभग एक साथ यह शब्द निकला। आश्चर्य के आवेश में सिसकियाँ थमने लगी थीं। पास खड़े बच्चे भी उसे सूनी निगाहों से निहार रहे थे। पड़ोसियों की भी लगभग ऐसी ही कुछ दशा थी। उनके आने की खबर सुनकर प्रातःकाल से ही मजदूरों की इस बस्ती में उथल-पुथल थी। ऐसा नहीं आज से पहले वह यहाँ आये नहीं हों। वे तो इन सभी के अपने थे। सबसे उनका सघन अपनत्व था। इसके बावजूद उनको इस रूप में कोई नहीं जानता था। नहीं तो भला इतना आश्चर्य क्यों?

उनके यहाँ पर इस रूप में आने का कारण था-कोलम्बिया स्टेट की एक एस्बेस्ट्स फैक्ट्री में दुर्घटना हो जाना। कुछ ही दिन पहले हुई इस घटना में तीन श्रमिकों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। श्रमिक दिन भर लोहे की दैत्य जैसी मशीनों के साथ जी-झोंककर काम करता हैं, तब कहीं परिवार की गाड़ी खींचता हैं। उसकी परिवार रूपी मोटर में उसके श्रम का ईंधन जलता है, तो वह चलती है। उन अकाल कवलित श्रमिकों की पत्नियाँ उनके काम से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थीं। बच्चे अपने आप को आश्वस्त कर रहे थे कि पापा आने वाले हैं, फिर सब मिलकर साथ खाना खायेंगे। किंतु उन्हें उनके पिता के स्थान पर उनकी मृत्यु की हृदयवेध देने वाली सूचना मिली। क्रूरकाल के एक झोंके ने उनकी दुनिया में अँधेरे की एक चादर तानकर रख दी। कितने समर्थ हाथ उनके आँसू पोंछने के लिए बढ़ें? कौन इन सबके प्राणों की आकुलता का शमन करे। इसी बीच सबने सुना कि स्वयं अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक उनके दुःख सुनने आने वाले हैं। संवाद ने घाव पर मरहम लगाया। प्राणों का उफान एकबारगी थमा। एक आशा बँधी कि सहायता मिलेगी। सोच रखा था कि जो अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का महानिदेशक है, कितना रौब-दाब होगा उसका कितनी शान-शौकत से रहता होगा? रहे भी क्यों न?

सामने आने पर आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अरे यही! यह तो उन्हीं के पतियों के साथ फैक्ट्री में मजदूरी करते हैं। सामान्य मजदूर जिसे न तो प्रमोशन की परवाह है और न डिमोशन का भय। घर में कई बार आना-जाना भी हुआ था। हँसमुख स्वभाव। छह फीट का हट्टा-कट्टा गोरा शरीर। श्रम के प्रकाश से प्रदीप्त आँखें। सामान्य मजदूर और अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का महानिदेशक। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें? उस दृश्य को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे समय थम गया। एक अपूर्व ठहराव....

“बहिनो! मुझे आने में कुछ देर हो गयी, क्षमा करना।” संबोधन उन तीनों महिलाओं की ओर था। वाणी ने समय को गति दी, ठहराव भंग हुआ। “भाई साहब आप तो अपने हैं, मैंने तो कुछ और सुना था।” कहने वाली के नेत्रों से अभी आश्चर्य की चमक धुली नहीं थी।

“इण्टरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के डायरेक्टर जनरल यही न।” पास खड़े एक साथी ने मुसकराते हुए कहा-”ये यह भी हैं और यहाँ के विश्वविद्यालय के वाद-विवाद दल के शीर्षस्थ वक्ता तथा एक वकील भी। याद है न न्यूजर्सी की ड्राईक्लीनिंग इण्डस्ट्रीज का मुकदमा।”

इस के साथ ही जानकार लोगों को याद आ गयी वह घटना जब मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी सरकार को श्रमिक कानून बनवाने पड़े थे। उन्होंने न्यूजर्सी की ड्राईक्लीनिंग इण्डस्ट्रीज व न्यूयार्क के दुग्ध उद्योग के श्रमिकों के हित के लिए बिना फीस पैरवी की थी। अनेकों विभूतियों का स्वामी उच्चतम प्रतिभा से सम्पन्न रहने पर भी यह युवक साधारण मजदूर क्यों? इस प्रश्न ने सभी के मन को स्तब्ध कर दिया। इन महिलाओं को अपना दुःख भूल गया। अनेकों आँखें उस सामने खड़े मुसकरा रहे व्यक्ति में कुछ ढूंढ़ने की कोशिश करने लगीं।

“इतना सब होते हुए भी आप मजदूर क्यों हैं?” मन के मंथन से उभरी जिज्ञासा को प्रकट होने से रोका न जा सका। “मजदूरी मेरा बोझ नहीं शान है।” होंठों पर तैरती मुसकान की रेखा ने अनेकों के अंतर को छुआ। तनिक थमकर बोले-”जीवन के मंदिर में मैंने श्रमदेवता की प्रतिष्ठा की है।”

“श्रमदेवता की प्रतिष्ठा, श्रम और देवता।” समझ पाने का असफल प्रयत्न करते हुए अनेकों मुखों से बुदबुदाहट उभरी। “हाँ श्रम देवता है।” कथन में दृढ़ता थी। बात आगे बढ़ाते हुए वे बोले-”मानव ने अनादिकाल से इसकी आराधना की है। आज जो कुछ भी प्रगति, उन्नति, अच्छाई, विकास दिख रहा है सब कुछ इसी की आराधना का सुफल है।” सभी मौन थे। कोई कुछ कहता भी क्या? प्रत्यक्ष को भी क्या कभी प्रमाण की आवश्यकता पड़ती है? श्रमदेवता का अनुग्रह भाजन सामने जो खड़ा था। कुछ मिनट यों ही बीत गये। फिर वह संवेदनशील स्वर में बोला-”क्षमा कीजिए, मैं भी कहाँ अटक गया। आया था आपकी व्यथा को बँटाने और शुरू हो गयीं यह सब बातें। आप जो भी सहायता चाहें शीघ्र भिजवा दूँगा।”

“सहायता हो गयी भैया।” उनमें से एक महिला ने स्वस्थचित्त हो कहा। “कहाँ अभी तो।.....”

“आपने जो अभी श्रमदेवता की प्रतिष्ठा करने की बात सुझाई, वह किस सहायता से कम हैं? जब ईश्वर का दिया स्वस्थ शरीर और सबल मन हमारे पास है, तब कैसी सहायता? मन में एक संशय था सो भी दूर हुआ। अभी तक सोचती थी कि श्रमशील निकृष्ट होते हैं और श्रम न करने वाले उत्कृष्ट।”

“पर अब?” सभी का जिज्ञासा रूप में एक प्रश्न उभरा। “ सोच पलट गयी।”

“अच्छा।” तनिक आश्चर्य व्यक्त करते हुए उसने कहा-”सच कहें तो हम भविष्य में जीवन जीते हैं। आप सब विश्वास मानिये, शीघ्र ही मानव के भविष्य में ऐसा समय आयेगा, जब जीवन के मंदिर में प्रतिष्ठा योग्य एक ही देवता होगा-श्रम।” बात पूरी करने के साथ ही उसने घड़ी देखी, पास खड़े बच्चों के गाल थपथपाये। उन महिलाओं के हाथ जोड़कर नमस्कार किया और फिर आने का वायदा करके चल पड़े। श्रमदेवता के यह एकनिष्ठ आराधक, जो 79 देशों के सम्मिलित अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक होकर भी कोलम्बिया की एक फैक्ट्री में मजदूरी करते रहे-डेविड मोर्स थे।


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