अपनों से अपनी बात-2 - आपातकाल की वेला में एक विराट भागीरथी पुरुषार्थ

March 1998

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज जब आशंका और आतंक से हर किसी का दिल धड़क रहा है, उबरने का एक ही उपाय नजर आता है-दैवी सत्ता के आश्वासन पर दृढ़विश्वास। शाँतिकुँज गायत्रीतीर्थ की स्थापना का मूलबीज ही यह संकल्पशक्ति रही है जिसे प्रज्ञा अभियान के सूत्र संचालक परमपूज्य गुरुदेव एवं परमवंदनीय माताजी अपने स्थूलशरीर से महाप्रयाण के बाद गायत्री-परिवार, अखण्ड ज्योति परिजनों, युगनिर्माण योजना के सृजन सेनानियों को उत्तराधिकार में सौंप गये हैं। इन दिनों उबरने का एक ही उपाय है-मानवी सुधार के प्रयास यदि असफल हो गये हैं, तो आद्यशक्ति महाप्रज्ञा का अवतरण हो, दुष्चिंतन का स्थान सद्बुद्धि ले एवं चहुँओर परिवर्तन की प्रक्रिया गतिशील हो चले। शाँतिकुँज की विगत सत्ताईस वर्ष की जीवन यात्रा बताती है कि जो प्रयास इसके द्वारा विश्व भर में बन पड़े हैं, उनसे असुरता की लंका निश्चित ही जलेगी-मानव में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने वाला राम स्वयं फिर से नये रूप में प्रकट होगा। इस प्रकटीकरण के फलस्वरूप युगशिल्पियों की एक सृजनवाहिनी अनायास ही चारों ओर से खिंचती चली जायेगी एवं उनका पुरुषार्थ उन आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, जिनकी इन दिनों इन्हीं घड़ियों में अविलम्ब आवश्यकता है।

शाँतिकुँज की स्थापना चिरपुरातन ऋषिपरंपरा के पुनर्जीवन के निमित्त हुई है, यह सर्वविदित तथ्य है। हिमालय की छाया-गंगा की गोद में स्थित इस आश्रम को ऐसी तपःपूत ऊर्जा से अनुप्राणित किया गया है, जिससे श्रेष्ठचिंतन करने वाले हर सृजनधर्मी को वह वातावरण मिले जो कभी ऋषिगणों के आश्रमों-आरण्यकों में मिलता था। वातावरण की प्रभावी शक्ति को सभी असंदिग्ध रूप से स्वीकार करते हैं। प्राचीनकाल में बालकों का शिक्षण ऋषियों के गुरुकुल में होता था। और वे नवरत्न बनकर निकलते थे। वयस्कों को तीर्थवास में, अधेड़-वानप्रस्थ स्तर के व्यक्तियों को आरण्यकों में चिरकाल तक निवास करना पड़ता था, ताकि वे परिवार के अनगढ़ वातावरण से पृथक होकर कुछ समय प्रेरणाप्रद स्थिति में रह सकें। आमतौर से व्यक्ति वातावरण में ही ढलते हैं। इसीलिए तो बोर्डिंग स्कूलों, सेनेटोरियमों तथा मिलिट्री छावनियों का महत्व सदा बना हुआ है। यों तो कई तेजस्वी प्रतिकूल वातावरण में भी ढलते देखे गये हैं, किंतु ऐसे जन्मजात प्रतिभावान संचित संस्कारों के धनी होने के कारण अपवाद ही होते हैं। नदी के प्रवाह में बहते अधिक हैं। आज समाज में अपसंस्कृति की अश्लीलता की जो बाढ़ आयी है, उसमें बहते नरपशुओं को देखकर तो यही लगता है कि बिना श्रेष्ठ वातावरण वाली छावनी विकसित किये देवमानवों का निर्माण असंभव है।

ऐसी नर्सरी जहाँ महामानवों की पौधें बनती थीं, खदान, टकसाल व फैक्ट्री जहाँ से नवरत्न निकलते थे-आज कहीं दिखायी देते नहीं।पढ़ाई से अधिक अंतःकरण की ढलाई जिनका लक्ष्य हो, ऐसे तंत्रों का अभाव सबसे अधिक खटकता है। व्यक्तित्वों की ढलाई हेतु एकमात्र सुनिश्चित उपचार है-सुसंस्कृत वातावरण में रहने का अवसर मिले, जिससे कि जो बनना है उसके लिए अतिरिक्त प्रयत्न न करना पड़े। अनुकरण करने एवं अनुशासन पालने भर से चिंतन और चरित्र में परिवर्तन होता चला जाय। समय की इस माँग को शाँतिकुँज द्वारा पूरा किया गया है एवं विगत 27 वर्षों में ऐसे नररत्न श्रेष्ठ वातावरण में ढालने का प्रयास किया गया है। कितनी सफलता मिल सकी, यह तो भविष्य ही बतायेगा, क्योंकि जैसे गंगा में वास करने वाली हर मछली को मोक्ष नहीं मिल जाता तथा तीर्थसेवन करने वाले हर व्यक्ति का दृष्टिकोण नहीं बदल जाता, ऐसे अपवाद सदैव रहे हैं व रहेंगे, किंतु जिन्होंने भी शाँतिकुँज के तपःपूत वातावरण में गुरुसत्ता की प्राणऊर्जा को ग्रहण करने का प्रयास किया है। उन्हें वह अनुदान रूप में मिला है एवं उसे उनके व्यक्तित्वरूपी कल्पवृक्ष के रूप में देखा जा सकता है। यह उसे भी मिला है, जो कुछ दिन का प्रवास यहाँ करके चला गया, उसे भी जिसने कुछ माह का समय देकर यहाँ के वातावरण से कुछ ग्रहण करने का प्रयास किया तथा उसे भी जो स्थायी सेवाएँ यहाँ देते रहकर अपना हर क्षण गुरुसत्ता के लिए जिया गया मानता रहा है। गुणात्मक अंतर तो हो सकता है, पर मिला हर उस सुपात्र को है, जिसने इस तीर्थ की सूक्ष्म चेतना में स्नान करने का पुरुषार्थ न्यूनाधिक मात्रा में संपन्न किया है। शाँतिकुँज-गायत्री नगर-ब्रह्मवर्चस के समुच्चय के रूप में फैला समग्र गायत्री तीर्थ महाकाल का घोंसला है एवं जैसी गुरुसत्ता की घोषणा है, उनका फैला हुआ विराट सूक्ष्म शरीर है। आकार की दृष्टि से यह बहुत बड़ा तो नहीं, किंतु अभी तक इसने गुरुकुल-आरण्यक-तीर्थ, तीनों की दिव्यधाराओं के समन्वय की त्रिवेणी की भूमिका बखूबी निभाई है। जैसे-जैसे युगपरिवर्तन की घड़ियाँ समीप आ रही हैं, ऐसा लगने लगा है कि मत्स्यावतार की तरह पूज्यवर का सूक्ष्मशरीर भी मानों इसमें समा नहीं पा रहा है। अब और स्थान की आवश्यकता पड़ने लगी है। वह भी ऐसी भूमि की, जो संस्कारित हो-समीपस्थ हो व बहुद्देशीय प्रयोजन पूरे करती हो। पर्यटन के लिए शाँतिकुँज न कभी बना था, न अभी है। अभी भी परिजन-यात्रीगण-तीर्थयात्री आते हैं तो इस तीर्थ की चेतना में स्नानकर कृतकृत्य होकर जाते हैं। अनुशासन से भरी दिनचर्या एवं संस्कारयुक्त वातावरण उनके मन-मस्तिष्क का, अंतरंग का एक प्रकार से कायाकल्प कर डालते हैं। पर्व त्योहार से लेकर विभिन्न प्रकार के शिविरों के लिए आने वाले परिजनों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सत्प्रवृत्तियों-संवर्द्धन, दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन की महाक्राँति जैसे क्षेत्रों में विराटतम होती चली जाती है। इस युगतीर्थ में आने वाले अध्यात्म-पिपासुओं की संख्या सतत् बढ़ती जाती है। ऐसे में गुरुसत्ता के आदेश-निर्देश के अंतर्गत बड़े दिनों से अतिरिक्त भूमि की तलाश का क्रम चल रहा था, जो ठीक महापूर्णाहुति के तीन वर्ष पूर्व पूर्णता को पूर्व पूर्णता को प्राप्त हुआ एवं एक संस्कारयुक्त भूमि ठीक शाँतिकुँज के समीप मिल गयी है। इससे न केवल यहाँ के क्रिया–कलापों को विस्तार दिया जा सकेगा, वरन् शोध-अनुसंधान के बहुविधि क्रिया−कलाप जो छोटे स्थान से संभव नहीं थे, किये जा सकेंगे।

गायत्रीतीर्थ बनाने का युगऋषि का संकल्प इसी दृष्टि से उठा था कि धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न छोटे रूप में साकार करके दिखाया जाए। इसी के लिए देवपरिवार बसाया गया। अखण्ड ज्योति, युगनिर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान, युगशक्ति गायत्री पत्रिकाओं द्वारा चल रहा प्रशिक्षण-प्रतिपादन परिजनों के बौद्धिक व भावनातंत्र को प्रभावित करने के निमित्त ही था। उसने अपने दो तिहाई से अधिक यात्रा पूरी कर ली है। अब आवश्यकता इस बात की थी कि इस भावनात्मक प्रशिक्षण से उभरकर आए तंत्र से रचनात्मक कार्य संपन्न कर दिखाए जाएँ ताकि भारतीय संस्कृति के समग्र स्वरूप को इक्कीसवीं सदी की गंगोत्री शाँतिकुँज में साकार होता देखा जा सके। इमारतें तो सरकारी कालोनी में भी खड़ी हो जाती हैं एवं धमाल-विध्वंस मचाने वाले विश्वविद्यालयों में भी। यहाँ उद्देश्य इमारतें खड़ी करने का नहीं, अपितु चलती-फिरती देवप्रतिमाओं को विनिर्मित करने वाले तंत्र के निर्माण का है। वही स्थायी वैभव है-सच्ची संपदा है। नालंदा-तक्षशिला विश्वविद्यालयों के निर्माण के पीछे भी यही उद्देश्य था-वह उन्होंने भलीभाँति पूरा भी किया। जो आवश्यकता तत्कालीन समाज को थी, आज कहीं उससे भी ज्यादा है। बहुत बड़ी संख्या में युगपुरोहितों की आवश्यकता है, जो सार्थक-संस्कारयुक्त शिक्षा दे सकें-कथनी व करनी दोनों से। बहुत बड़ी संख्या में युग चिकित्सकों की आवश्यकता है, जो जन-जन तक चिर-पुरातन आयुर्वेद की विधा के न्यूनतम अनुसंधानों के निष्कर्ष पहुँचाकर उन्हें राहत दे सकें। बहुत बड़ी संख्या में युगसैनिकों की आवश्यकता है, जो विचारक्राँति के महासमर में मोर्चा लेने हेतु इस छावनी में स्वयं को तैयार कर सकें। बहुत बड़ी संख्या में मिशनरी स्तर के युगशिल्पियों की आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति का तत्वज्ञान उन तक पहुँचा सकें-जहाँ उसकी सर्वाधिक आवश्यकता है। शाँतिकुँज का समग्र परिसर अभी प्रायः पंद्रह एकड़ में फैला है। इसे अब कम से कम चार गुना और बढ़ जाना चाहिए, ताकि वह उपर्युक्त आवश्यकताओं को पूरा कर सके। शाँतिकुँज जब बना था, तब टुकड़ों-टुकड़ों में बना था। पहले वह प्रारंभिक भाग जहाँ पूज्यवर एवं माताजी का निवास रहा है व आज अखण्ड दीपक स्थापित है, बाद में पीछे का मंदिर व गायत्रीतीर्थ वाला सप्तर्षि क्षेत्र तथा उसके बाद गायत्रीनगर, जहाँ सजल-श्रद्धा, प्रखर-प्रज्ञा सहित सभी शिक्षण भवन व आवास स्थित है। बाद में विस्तार−क्रम में समीप की और भूमि उपलब्ध होती चली गयी जो पास के कैम्पस के रूप में उभरी, जहाँ माँ भगवती भवन आचार्य भवन व देवात्मा हिमालय स्थित है। ब्रह्मवर्चस का भवन भी 1978-79 में बनकर तैयार हो गया था व उसका प्रयोगशाला-ग्रंथालय वाला स्वरूप उभरकर आ गया था। यह समस्त भूमि मात्र 15 एकड़ ही थी। अब इन्हीं दिनों एक भागीरथी पुरुषार्थ के रूप में परमपूज्य गुरुदेव द्वारा शक्तिपीठ निर्माण जैसा एक बड़ा कदम उठाने के बाद अगला साहसपूर्ण कदम प्रायः चालीस एकड़ लगभग डेढ़ सौ बीघा भूमि शाँतिकुँज के सामने ही खरीदने के रूप में उठा लिया गया है। यह लगभग शाँतिकुँज से ढाई गुना अधिक भूमि है एवं वहाँ स्थित है, जहाँ कभी श्रद्धाँजलि समारोह में माँ भगवती नगर बनाया गया था। भावनाशील परिजनों ने वहाँ पुरुषार्थ कर उसे पूरे क्षेत्र को साफकर प्रायः ढाई लाख लोगों के रहने की व्यवस्था बनायी थी। वहाँ जप का क्रम भी चला एवं अंततः वही संस्कारित भूमि अब शाँतिकुँज तंत्र को उपलब्ध हो गयी है।

अभी जब इस नये शाँतिकुँज में विस्तार की योजनाएँ बन रही हैं, सभी तरह के विशेषज्ञों से परामर्श का क्रम जारी है, कई स्वरूप स्पष्ट होकर सामने आ रहे हैं। एक देवपरिवार वहाँ बसे व भारत व विश्वभर में महाप्रज्ञा का प्रकाश फैलाने हेतु गतिशील हो, इसके साथ-साथ एक लक्ष्य जो स्पष्ट हो रहा है, वह है-परमपूज्य गुरुदेव के आयुर्वेद के पुनर्जीवन के स्वप्न को साकार करने का। हम यहाँ की सीमित भूमि में स्मृति उपवन तो न बना सके-किसी तरह हरियाली को जिंदा रख सके-किसी तरह हरियाली को जिंदा रख सके-इस नये परिसर में वनौषधि वाटिका के रूप में स्मृति उपवन तो न बना सके-किसी तरह हरियाली को जिंदा रख सके-इस नये परिसर में वनौषधि वाटिका के रूप में स्मृति उपवन करने का मन है, साथ ही आयुर्वेद के विकसित स्वरूप के प्रस्तुतीकरण हेतु एवं सुनियोजित संस्थान के निर्माण की रूपरेखा बनायी जा रही है। आज आयुर्वेद सारे विश्व में धूम मचाये हुए है। सभी पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति से निराश हो चुके हैं। ऐसे में भारतीय संस्कृति का गौरव हमारा चिरपुरातन आयुर्वेद ही समस्त असाध्य रोगों के उपचारतंत्र के रूप में -जीवनी शक्ति-संवर्द्धन एवं पीड़ा निवारण के उपाय-उपचार के रूप में दिखायी देता है। अगले दिनों आयुर्वेद के परिष्कृत तंत्र की आवश्यकता सभी अनुभव कर रहे हैं। इसका सही रूप सामने आये-सभी वनौषधियों के प्रयोगों को अपनाने लगें व स्थान-स्थान पर ऐसी वनौषधि वाटिकाएँ उगायी जाने लगें-इसकी प्रेरणा देगा यह आयुर्वेद का अपने में अद्भुत अनुसंधान केन्द्र। इस विधा के सभी विशेषज्ञों से संपर्क कर इसे बड़ा विस्तृत रूप दिया जा रहा है, ताकि आधुनिक शोधों के साथ जोड़कर इसे प्रस्तुत किया जा सके। विलक्षण वन औषधियाँ उनका संरक्षण-हिमालय की दिव्यछाया में गंगातट पर उनका सजीव दर्शन, हर किसी को चिरपुरातन ऋषि-आश्रमों की स्मृति दिलायेगा। कई वनौषधियां ऐसी हैं जो लुप्तप्राय-सी हैं, उन्हें भी यहाँ उगाया जायेगा, ताकि उनकी प्रजाति को नष्ट होने से बचाया जा सके। इस संबंध में विस्तार से एक विशेषाँक अखण्ड ज्योति पत्रिका के मई माह में प्रकाशित करने की योजना है। उस विशेषाँक में नये शाँतिकुँज के विस्तार से जुड़ी अपरिमित संभावनाओं, युगपुरोहितों के नालंदा-तक्षशिला स्तर के प्रशिक्षण तंत्र का भी विस्तार से विवेचन होगा। इसे पढ़कर निश्चित ही अपने चिरअतीत के गौरव को यादकर भावी संभावनाओं का एक आभास सबको हो सकेगा।

शाँतिकुँज महाकाल का घोंसला है। इक्कीसवीं सदी की समस्त संभावनाओं का आदिस्रोत है। निश्चित ही अभी हुआ विस्तार यहाँ तक तो सीमित नहीं ही रहेगा। अब आस-पास की अन्यान्य भूमि की भी आवश्यकता विश्वविद्यालय स्तर के प्रशिक्षण तंत्र के निर्माण के लिए पड़ सकती है।प्रवासी भारतीयों के लिए पड़ सकती है। प्रवासी भारतीयों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था का पूरा एक तंत्र यहाँ बनना है। भारत की सभी भाषाओं-बंगला, आसामी, उत्तरपूर्व के छह प्राँतों की भाषाएं पंजाबी, उर्दू, कन्नड़, मलयाली, तमिल, तेलगू, गुजराती, उड़िया, सिंधी, इंग्लिश आदि तथा रशियन, फ्रेंच, जर्मन, जापानी व स्पेनिश भाषा का प्रशिक्षण भी यहाँ अगले दिनों होना है ताकि युग पुरोहित सारे विश्व में ज्ञान का आलोक फैला सकें। इसके साथ ही साथ विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के ग्रंथों की शिक्षाओं की जानकारी भी इस विश्वविद्यालय में दी जायेगी। राष्ट्र के शिक्षातंत्र को एक नयी दिशा देना भी इस प्रशिक्षण−सत्र का मूल उद्देश्य होगा। इसके लिए शिक्षानीति व पाठ्यक्रम भी यहीं तैयार करना होगा तथा पत्राचार पाठ्यक्रम से लेकर नैतिक शिक्षा व्यक्तित्व-परिष्कार प्रशिक्षण के क्रम को सुनियोजित दिशाधारा देने का दायित्व भी इसी का होगा।

महापूर्णाहुति वसंत 2000 से वसंत 2001 तक मनायी जानी है। इसके लिए प्राणवान साधक-याजक-भागीदार तैयार करने की व्यवस्था भी इस विराट तंत्र में बनायी जानी है। काम बड़े विराट स्तर का है, समय कम है। एक प्रकार से भारतीय संस्कृति के एक अनूठे विश्वविद्यालय के निर्माण का, आयुर्वेद के आधुनिक शोध-संस्थान के सृजन का यह महासंकल्प दैवीचेतना से ही उभरा है, वही इसे पूरा भी करेंगी।

अश्वमेध महायज्ञ व विराट संस्कार महोत्सवों जैसे आयोजनों ने इस मिशन के विराट रूप का दिग्दर्शन जन-जन को कराया है। अब बारी आयी है, ऐसे महायज्ञ में आहुति डालने की जो, युगपरिवर्तन की वेला में होने जा रहा है। शाँतिकुँज के वर्तमान संचालक तंत्र ने भारतीय संस्कृति की अपनी विरासत को जिंदा बनाये रखने वालों में सहयोग की अपेक्षा के साथ ही यह बड़ा कदम उठाया है। परमपूज्य गुरुदेव व वंदनीय माताजी द्वारा शाँतिकुँज के लोकसेवी कार्यकर्ताओं के लिए सुरक्षित जीवन निर्वाह के साधन इस आपातकाल में इस पुण्य-प्रयोजन के लिए निचोड़ दिये गये। एक पहाड़ जैसा कार्य सामने खड़ा है। यह बिना आत्मीयों-उदारचेताओं के सहयोग से पूरा नहीं होगा। यह गोवर्धन पर्वत उठेगा तो सभी की लाठियों पर, उस गिरधर की उँगली तो यथास्थान है ही, पर आप हम सबको अपनी लाठियाँ लगानी होगी ताकि परिवर्तन की वेला में श्रेय के अधिकारी बन सकें। जिस किसी के मन में देवसंस्कृति को जिंदा बनाये रखने की कसक है, भारत को पुनः जगद्गुरु बनाने की उमंग है-उसे अपना भावभरा सहयोग गायत्रीतीर्थ-शाँतिकुँज को देने के लिए आगे आना चाहिए। संधिकाल के समय की आवश्यकता पूरी करने वाला सभी की आशा का केन्द्रबिंदु एकमात्र यही एक तंत्र है। दैवी आश्वासन पर विश्वास रखने वाले इस तंत्र को आशा है कि भारतीय संस्कृति को विश्वसंस्कृति के रूप में परिणित करने का स्वप्न अवश्य पूरा होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118