महाकाल का पुरुषार्थ हो रहा है कटिबद्ध

March 1998

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‘सम्पत्ति बढ़े और गरीबी का पूरी तरह अंत हो’ यह आवश्यक है, किंतु यदि यह एकदम न हो सके जो है उसका लाभ हर किसी को मिलना चाहिए। मिल-बाँटकर खा लिया तो इतने से भी भलीप्रकार निर्वाह चल सकता है। अशिक्षित एक भी व्यक्ति न रहे और शिक्षा का प्रसार हो, यह आवश्यक है, लेकिन तुरत-फुरत ही सबको शिक्षित नहीं किया जा सकता। यह तो संभव ही है कि जो शिक्षित हैं वे अपने शिक्षित होने का लाभ सबको दें, तब शिक्षा के अभाव से अनुभव होने वाली रिक्तता भी अखरन जैसी नहीं रहेगी। जहाँ भी ज्ञान संचित है, उसके वितरण और उपयोग की सुविधा हर किसी को प्राप्त होने लगे तो प्राचीनकाल की तरह थोड़ी-सी सुविधाएँ होते हुए भी उनका लाभ जन-साधारण को मिलता रह सकता है।

थोड़े से लोग खेती करते हैं पर उससे पैदा होने वाले अन्न से पेट सभी का भरता है। यही प्रयोग बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में भी चल सकता है। प्राचीनकाल के ब्राह्मण ऐसा ही करते थे। अब भी अन्य क्षेत्रों में ऐसे ही होता है, जैसे थोड़े से चिकित्सक प्रायः सारे समाज की स्वास्थ्य सेवा करते हैं। थोड़े से सैनिक पूरे राष्ट्र की सीमा की सुरक्षा करते हैं। थोड़ी-सी पुलिस अपराधियों से निपटती हैं और थोड़े से कलाकार व्यापक क्षेत्र में विनोद और उल्लास का वातावरण बनाये रहते हैं। थोड़े से साहित्यकार को दिशा दे सकते है, थोड़े से राजनेता समूचे देश को प्रगति की ओर अग्रसर कर सकते हैं, तो यह अनिवार्य नहीं है कि पूरे समाज को समुन्नत करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न हो। मूर्धन्य वर्ग के थोड़े लोग भी समूचे समाज को समुन्नत और प्रगति की दिशा में अग्रसर कर सकते है।

मूर्धन्य वर्ग द्वारा समाज को समुन्नत करने की संभावना के समान ही प्रज्ञावतार का आलोक भी जाग्रत आत्माओं में ही प्रथम अवतरित होगा। यद्यपि उस आलोक से समस्त भूमण्डल आलोकित होगा, किंतु उसका आरंभ जाग्रत आत्माओं के अन्तःकरणों में प्रज्ञाशक्ति के अवतरण से ही होगा। उनकी विचारणा संकीर्ण-स्वार्थपरता से आबद्ध रहने से इनकार करेगी। चिंतन की, लोभ-मोह की कृपणता में बँधे रहना ही भवबंधन हैं। जाग्रत आत्माओं में जब ऋतम्भरा-प्रज्ञा का अवतरण होगा तो वह इस भवबंधन से मुक्त होने के लिए छटपटायेगा।

हृदय की विशालता ही जीवनमुक्ति है और कला के जागरण पर ही उसके स्वार्थ का विस्तार होता है। फिर उसका आत्मगौरव अहंता के पोषण में नहीं, आदर्शवादिता अपनाने से ही तृप्त होता है। पीड़ा और पतन के उन्मूलन तथा सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में ही अपनी शक्तियाँ नियोजित होती हैं। निर्वाह करने में संतोष की नीति को जिन्होंने हृदयंगम कर लिया है, उनके पास महान कार्यों को सम्पन्न करने के लिए ढेरों समय, श्रम और चिंतन बच जाता है। इस बचत पूँजी से वे समाज का, ईश्वर का अनुग्रह प्रचुर परिणाम में प्राप्त कर सकते हैं। आत्मगौरव और आत्मसंतोष को भी यदि महत्व मिलता हो तो श्रद्धाशक्ति व्यक्ति को हर घड़ी उसकी अनुभूति होती रहती है। श्रद्धा का अमृत उमगने लगे और अनास्था का विष घटने लगे तो फिर व्यक्तित्व की गरिमा गगनचुम्बी होती चलती है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो भी काम होते हैं, वे अपनी विशिष्टता और सुँदरता का परिचय देते रह सकते हैं, निजी जीवन में वे स्वस्थ, प्रसन्न, संतुलित, आशान्वित एवं निश्चिंत पाये जाते हैं और पारिवारिक जीवन में सुव्यवस्था तथा सहयोग-सद्भाव का वातावरण बना रहता है।

सात दीपक जलाकर पितरों की विदाई रात 8.30 पर गेंदे की माला व दुर्गा चालीसा माता की

यों पारिवारिक जीवन में सुविधा-सम्पन्नता की भी आवश्यकता पड़ती है, पर उस कमी को शालीनता बनी रहने पर सहन भी किया जा सकता है, अथवा सम्पन्न परिवारों में विग्रह और दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण बना रहता है, अन्यथा सम्पन्न परिवारों में विग्रह और दुर्भाग्यपूर्ण सम्पन्न परिवारों में विग्रह और दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण बना रहता है, जबकि विपन्नताजन्य कठिनाइयों के रहते हुए भी स्नेह सौहार्द के सहारे सरलतापूर्वक हँसता-हँसाता जीवन जिया जा सकता है। इस मर्म से अपरिचित रहने के कारण अन्य लोग विपुल खर्च करने तथा कठिन श्रम करने पर भी पारिवारिक सद्भावना के लिए तरसते रहते हैं, जबकि श्रद्धा हो तो पत्थर से भी प्रेम किया जा सकता है, परिवार में परस्पर स्वार्थों से बँधे हुए लोगों से प्रेम न होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है।

मानवी अन्तःकरण में अपने सजातियों को खींच बुलाने की क्षमता सदा से विद्यमान है। समान आकृति के तो नहीं, पर अपने जैसी प्रकृति के असंख्यों लोग मनुष्य के सहज संपर्क में आते रहते हैं और घनिष्ठ बनते जाते हैं। सामाजिक अव्यवस्था के कारण कष्ट तो सभी को होता है, पर साधारणतया निकृष्टता से बचने की सावधानी न बरतने वाले लोग ही प्रायः जमाना खराब होने की शिकायत करते हैं, अन्यथा सज्जनों को अपने स्तर का साथी ढूँढ़ने में कठिनाई नहीं होती। ऐसा संपर्क निकटवर्ती न होकर दूरस्थ होते हुए भी सहायता करता रहता है। यहाँ तक कि महामानवों के साहित्य और चरित्र से भी उतना ही लाभ उठाया जा सकता है जितना की निकटवर्ती बहुत घनिष्ठ सामान्य व्यक्ति भी नहीं दे पाते।

सत्संग-कुसंग का महत्व सभी जानते हैं और मानते हैं पर यह ध्यान नहीं रखते कि सौभाग्य या दुर्भाग्य अनायास ही नहीं टपक पड़ते। उन्हें आग्रह-अनुरोध करके ही पाया जाता है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी होती है, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं, इसीलिए श्रद्धालु व्यक्ति के सगे संबंधी सज्जन ही होते हैं। अन्य प्रकार के लोग या तो निकटस्थ होते ही नहीं, यदि किसी प्रकार हो भी जाय तो ज्यादा देर तक साथ नहीं रहते। श्रद्धा ही स्वर्गीय वातावरण का सृजन करती है और उसके पहले सज्जनों का समुदाय अपने इर्द-गिर्द कर लेती है।

किसी व्यक्ति के प्रति कोई क्यों आकर्षित होता है, इसके तो अनेकों आधार हो सकते हैं, पर किसी के प्रति सघन सम्मान का एक ही कारण है और वह है, चरित्र में प्रामाणिकता बनकर उछलने वाली आदर्शवादी श्रद्धा, इसी से प्रभावित होकर लोग उसका पूरा और पक्का विश्वास करते तथा सहयोग प्रदान करते हैं। महामानवों को मिलने वाली चमत्कारी सफलताओं का मुख्य कारण भी यही है, जिससे की उन्हें जनसहयोग उपलब्ध हुआ। आरंभ में श्रेष्ठ व्यक्तियों को अपनी कठिनाइयों और अवरोधों का सामना करके अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनी पड़ती है। इसी कसौटी पर आदर्शवादी श्रद्धा को परखा जा सकता है।

जब कोई व्यक्ति लोभ और भय के दबावों को अस्वीकार करके अपनी उत्कृष्टता पर अडिग रहता है, तो जनसाधारण को उसकी वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ती है। यही वह परिपक्व आस्था है, जिसमें जन सम्पत्ति और जन सहयोग का उदार अनुदान अजस्र रूप से प्राप्त होने लगता है। जनता का नेतृत्व करने वाले इतिहास के पृष्ठों पर अपने पदचिह्न छोड़ जाने वाले व्यक्तियों की अन्य क्षमताएँ तो सामान्य मनुष्यों जैसी होती हैं, आदर्शों के प्रति अडिग श्रद्धा। भावना स्तर पर सुदृढ़ व्यक्तियों के लिए ही अनुकरणीय चरित्र बनाये रहना संभव होता है, अन्यथा उथले उत्साह वालों का तो कुछ समय में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का जोश समाप्त हो जाता है।

लौकिक विशेषताएँ आकर्षक होती है। इसीलिए वे चमत्कृत करती हैं। बल, रूप, धन, चातुर्य, कला, कौशल, प्रतिभा, प्रभाव आदि में भी जन-साधारण का आकर्षण होता है, लेकिन अन्तःकरण की गहराई से निकलने वाला वह सम्मान उन्हें प्राप्त नहीं होता, जो महामानवों को या देवपुरुषों को उपलब्ध होता है। नर्तकों, विदूषकों, गायकों, धनवानों और विद्वानों की ओर भी ध्यान जाता है तथा उनकी विशेषताएं देखकर मनोरंजन भी होता है। अतः आकर्षण की परिधि इतनी ही उथली रह जाती है। मनुष्य की आँतरिक इच्छा जन सम्मान पाने की रहती है। यह उचित भी है और आवश्यक भी, किंतु इसका मूल्य आदर्शवादी श्रद्धा से भरा पूरा आचरण ही हो सकता है। इससे कम में उसे नहीं खरीदा जा सकता। उथली वाहवाही तो विदूषक भी प्राप्त कर लेते है। छद्म लोग भी कई बार वाहवाही पाने में सफल हो जाते हैं। इतने से किसी को न तो संतोष होता है और न ही कोई महत्वपूर्ण सहयोग मिलता है। सरकस में काम करने वाले कलाकारों के करतब देखकर हैरत होती है, लोग प्रशंसा करते हैं, किंतु किसी नट के संकट में फँस जाने पर उसकी कोई सहायता करने नहीं आता। स्मारक अभिनेताओं के ही बनते हैं, जिन्होंने उत्कृष्ट उद्देश्यों के लिए बलिदान किये हैं, ऐसे व्यक्ति ही धन्य बनते हैं और लोकमानस को दिशा प्रदान करते हैं।

में भी देर नहीं लगती। कई बार तो ऐसी या जानी दुश्मनी तक में बदलती देखी गयी है। जमाने का दौर ही कुछ ऐसा है कि दोस्ती की ओट में दुश्मनी निभाई जाती है। समाधान का कारण यहाँ उथले तरीकों से नहीं, प्रामाणिकता सिद्ध करके ही जन सहयोग प्राप्त किया जा सकता है।

अतीन्द्रिय क्षमताएँ और सिद्धियाँ भी उथले कर्मकाण्ड करके प्राप्त नहीं की जा सकतीं। साधना के पीछे श्रद्धा की शक्ति ही काम करती है। उसका अभाव रहने पर कर्मकाण्ड मात्र टंट-घंट और लकीर पीटने भर जैसे क्रिया−कलाप रह जाते हैं, उससे कुछ नहीं बनता। अध्यात्म क्षेत्र के सिद्धपुरुषों में से प्रत्येक की अन्तःभूमिका श्रद्धासिक्त होती है। ईश्वर-दर्शन, आत्मसाक्षात्कार, स्वर्ग मुक्ति जैसी दिव्य सफलताएँ भी किसी कृत्य विशेष से नहीं, अपितु श्रद्धा की शक्ति से ही प्राप्त की जा सकती हैं। इस उत्कृष्टता के रहते सामान्य क्रियाकृत्य भी योगसाधना एवं तपश्चर्या का प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं, किंतु यदि भीतर नीरसता छाई हो, भाव संवेदनाएँ प्रसुप्त पड़ी हों तो कितना ही कायकष्ट सहा जाय कितना ही जप, तप क्यों न किया जाय उससे कुछ नहीं बनने का।

भौतिक सफलताओं का क्षेत्र हो या आत्मिक विभूतियों का, सफलता प्राप्त करने के लिए हर हालत में श्रद्धा की सघनता अपेक्षित है। उसके बिना लौकिक पुरुषार्थ भी उस स्तर के नहीं हो सकते, जो सफलता के लिए आवश्यक हैं। धुन के धनी, लगनशील, तन्मयता और तत्परता बरतने वाले थोड़े ही साधनों तथा नगण्य स्वार्थों के रहते भी अनवरत प्रयत्नरत रहकर उन्नति के शिखर पर जा पहुँचते हैं, जबकि अस्थिर मार्ग के आस्थारहित मनःस्थिति के व्यक्ति प्रचुर साधनों के रहते भी अपनी बढ़ी-चढ़ी क्षमता का कुछ लाभ नहीं उठा पाते और अस्त–व्यस्तता के कारण हर समय असफल होते रहते हैं। यदि कुछ प्राप्त कर सके तो वह भी नगण्य ही होता है। दिशा, स्थिरता और तन्मयता ही महत्वपूर्ण उपलब्धियों का आधारभूत कारण होते हैं। इसे प्राप्त कर पाना केवल श्रद्धातत्व के लिए ही संभव है। उसके अभाव में व्यक्ति हवाई कल्पनाएँ करने तथा पत्तों या तिनकों के साथ इधर-उधर भटकने में ही अपना समय गँवाकर और असफलता के लिए अन्य लोगों को दोष देता रहता है।

स्मरण रखा जाना चाहिए कि श्रेष्ठ और सुहृदय व्यक्तित्व बाह्यसाधनों से विनिर्मित नहीं हो सकता। अभ्यास और शिक्षण में उथला शिष्टाचार ही पल्ले पड़ता है। गहराई तो अंतःश्रद्धा से ही उपजती है। पेड़ उतना ही ऊँचा उठता है और उतना ही फैलता-फैलता है, जितनी उसकी जड़े गहरी और मोटी होती है। यद्यपि जड़े नहीं दीखती हैं, तना ही दृष्टिगोचर होता फिर भी तथ्य तो तथ्य ही है। जड़ों के आधार पर ही तना वृक्ष स्थिर रहता है। उथली जड़ों वाले पौधे न स्थिर रह पाते हैं और न ही प्रतिकूल प्रभावों को सहन कर सकते हैं। इसी प्रकार उथली जिंदगी ही जी पाते है। आत्मसंतोष, जनसम्मान और दैवी-अनुग्रह दे सकने जैसी कोई ठोस संपदा उनके पास नहीं होती,फिर मूल्य चुकाये बिना बड़ी उपलब्धियाँ किस प्रकार, किस आधार पर अर्जित की जा सकती हैं। व्यक्ति के अंतराल में सन्निहित उसकी मूलभूत क्षमता एक ही है, श्रद्धा उसी को गँवाने और बढ़ाने पर मनुष्य पतन के गर्त में गिरता तथा आकाश जितना ऊँचा उठता है।

नये युग के सारे संसार का, सारे समाज का सम्पूर्ण ढांचा ही बदल देने की योजना है। निकृष्टता के आवरण उघाड़े और उत्कृष्टता के आच्छादन चढ़ाये जाने हैं। परिस्थितियाँ बदलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की योजना है और उसका निर्माण अंतराल के मर्मस्थल से भावश्रद्धा के रूप में फूटता है। परिवर्तन शब्द कहने और सुनने में सरल होता है, वह रुचिकर भी है और अभीष्ट भी। किंतु कठिनाई एक ही है कि लगभग असंभव नहीं तो अत्यधिक कष्टसाध्य इस कार्य के साधन जुटाना अनिवार्य होता है और पहाड़ जैसा पुरुषार्थ एवं परिश्रम करना पड़ता है।

परिवर्तन का अभीष्ट प्रयोजन पूरा करने के लिए आदर्शवादी श्रद्धा उथले स्तर की नहीं, गहन स्तर की चाहिए। यह न तो समाज में, न साधनों में, न श्रम में और न चातुर्य में सन्निहित है। यह मणि–माणिक व्यक्तित्व के गहन अंतराल में समुद्र की तली में पाई जाने वाली संपदा का न, समर्थता का तथा नहीं साधनों का मूल्याँकन होगा, अपितु श्रद्धा का ही मूल्याँकन किया जायेगा। कौन शुद्ध है और कौन महान, इसका मापदण्ड श्रद्धा ही होगी। इसी सामर्थ्य के बल पर लोग इतने समर्थ होंगे कि पर्वत जैसी अवाँछनीयताओं को उलट सकने और स्वाति वर्षा जैसी सत्प्रवृत्तियों से नन्दनवन जैसा समाज बना सकना संभव हो सकेगा। समर्थ व्यक्ति ही ऐसे चमत्कार उत्पन्न कर सकते हैं, जिन्हें असंभव को संभव कर दिखाने जैसा चमत्कार माना जा सके। ऐसा चमत्कारी मनुष्य एक ही हो सकता है-श्रद्धालु।

विवेक और श्रद्धा का समन्वय ही ऋतंभरा-प्रज्ञा है। वही गायत्री, वहीं ब्रह्मा विद्या अथवा संस्कृति की अन्तरात्मा है। इन दिनों उसी का अरुणोदय प्रज्ञावतार के रूप में हो रहा है। दूसरे शब्दों में, इसे यों कहना चाहिए कि लोकमानस में विवेक युक्त श्रद्धा की प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है। इसी विभूति से सम्पन्न मनुष्यों को प्राचीनकाल की तरह देवमानव कहा जायेगा। उनका समुदाय और आदर्शवादी क्रिया−कलाप धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियों का सृजन करेगा, यही है नवयुग का आधार तत्व, जिसे प्रचुर परिणाम बरसाने के लिए महाकाल का प्रबल पुरुषार्थ अदृश्य रूप से अंतरिक्ष में कटिबद्ध हो रहा है। इस तथ्य को देखने और समझने वाले नवयुग को सन्निकट देख सकते है। (युगशक्ति गायत्री अगस्त 1979 से)


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