मेरा आत्मावलोकन

December 1996

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मैं अपने आप को देखकर फूला न समाया। सृष्टि के विभिन्न प्राणियों, वृक्ष वनस्पतियों के बची स्वयं को गौरव शालिनी बुद्धि से संपन्न पाकर मैं बौद्धिक विशेषता ने ही मुझे विशिष्ट बौद्धिक विशेषता ने ही मुझे विशिष्ट बनाया है। इसी की वजह से ही सृष्टि के प्राणी हीन नहीं, समूची प्रकृति मेरा सचमुच ही मैं भगवान का राजकुमार परमात्मा का बेटा-कितना भाग्यवान। मुझे मनुष्य जीवन मिला । ऐसा जीवन जिसे असीम शक्ति व विकास की अनंत संभावनाएं निहित हैं देवता भी ईर्ष्यालु हो गए हैं मेरे सौभाग्य पर, कि मुझे विचारशील पुरुषार्थ का कैसा सुनहरा सौभाग्य मिला, परन्तु दुर्भाग्य

मेरे इस सौभाग्यशाली मनुष्य जीवन में एक नहीं नो ऐसे अवसर आए जब मैंने अपनी महानता का गलित होते और अपने आपको क्षुद्र जीवन देखा।

जब मैं संसार में अपनी सफलता, यश, कीर्ति एवं प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से बौद्धिक विचारशीलता को कुटिलता पूर्ण विचारशीलता को कुटिलता पूर्ण विचारहीनता में बदलने के लिए उतारू हो गया मैंने छल-प्रपंच पूर्ण ऐसे ऐसे कार्य लिए, जिनसे मेरी महानता क्षुद्रता में बदल गयी । यही नहीं, इन्हीं सब क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिए परमात्मा की बजाय मनुष्य से प्रार्थना करने लगे हर किसी के सामने दीन हीन बनकर गिड़गिड़ाया और यह समझकर उनसे याचना करने लगा, जैसे यही सब मेरे भाग्य विधाता हो। शूद्रता का यह प्रथम अवसर मेरे जीवन में इस रूप में आया।

क्षुद्रता की दूसरी अनुभूति उस अवसर पर हुई जब मैंने अनुभव किया कि मैं अपने से अधिक शक्तिसंपन्न व्यक्तियों के सामने तो दीन-हीन बनता हूँ परन्तु अपने से कमजोर एवं अपने से आश्रित लोगों से अहंकार और घमंड भरी बाते करता हूँ, मानो मेरी यह शक्ति मेरे विकास के लिए नहीं अपितु दुर्बलों निर्बलों पर रौब जमाने का ही एक साधन है। अपने कर्तव्य निर्वाह हेतु कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलते हुए काष्ट सहकर भी कर्तव्य पूर्ति करते रहना अथवा सरल सुगम मार्ग अपनाकर अस्थायी सुख प्राप्त करने के दो मार्गों में से की गए मार्ग की बुनने का अवसर आने पर जब मैंने सस्ते सुख का मार्ग चुना व कर्तव्य परायणता को परी तरह भुला दिया, तब मुझे तीसरी बार अपनी क्षुद्रता का आभास हुआ।

चौथा अवसर क्षुद्रता का मेरे जीवन में जब आया, जब मेरे द्वारा कठोर अनैतिक अव अनुचित काम एवं अपराध होने जाने पर मैंने उसका पश्चाताप व परिमार्जन न करके आम्मा की आवाज को यह कहकर दबा दिया कि परिस्थिति में एक आम शिष्टाचार बन गया है, इसमें दुःख क्या करना इस झूठ भरी प्रतिष्ठा एवं छटा अहं भावना से आत्मा की ज्योति शनैः शनैः जीवन की सत पर मन्द पड़ने लगी। लोकोत्तर प्रकाश के राज्य में पहुँचने के स्थान पर जीवन पतन के पहुँचने के स्थान पर जीवन पतन के अँधेरों में लुढ़कने लगा।

मेरे जीवन की क्षुद्रता का वह पाँचवाँ क्षण था, जब मैंने अपने मन की बातों सहन कर क्षमा कर दिया। मन को बुद्धि पर हावी हो जाने दिया। इतना ही नहीं मन की कल्पनाओं, तरंगों और मन की सतह पर उभरने वाले युक्तिहीन दृश्यों को ध्यान के क्षणों में उभरने वाली आत्मा की आवाज मान लिया। वाली आत्मा की आवाज मान लिया। मैं अपनी इस क्षुद्रता के कारण आत्मसत्ता की दिव्यता की अवहेलना कर बैठा।

छठी क्षुद्रता मुझसे उस समय हुई जब मैंने कुरूप को घृणा की दृष्टि से देखा। यही नहीं इन्हीं क्षणों में मैंने असहायों, अपाहिजों की को भी मैंने अवहेलना और उपेक्षा की नजर से देखने की कोशिश की। मैंने यह नहीं जाना कि घृणा का ही परदा कुरूपता है सर्वथा भुला बैठा कि सौंदर्य के सारे मधुर भाव प्रेम में उपजते हैं।

किसी के द्वारा प्रशंसित हो जाने पर सचमुच ही अपने आपको जब मैंने बड़ा सचमुच ही अपने आपको जब मैंने बड़ा मान लिया व दूसरों की प्रशंसा को ही मैंने अपनी अच्छाई की कसौटी मान ली तो वह मेरी क्षुद्रता की सातवीं घड़ी थी। इन क्षणों में मेरी विवेक की आँखें मुँद गयी। मैंने अपने जीवन की डोर उन अनजाने हाथों में सौंपा दी, जो स्वयंतनद गुमराह थे। मैं भी राह भटक कर उनके पीछे चलने की तैयारी करने लगा।

आठवीं क्षुद्रता उस समय मेरे जीवन में प्रविष्ट हुई,जब मैंने अपने ‘स्व’ की तो ध्यान कम रखा व दूसरों को ही देखता -परखता रहा । दूसरों के दोष-दुर्गुणों को जाँचने, परखने और छिद्रान्वेषण के प्रयास में मैं स्वधर्म से विमुख चला गया।

क्षुद्रता की नवी घड़ी तब आयी जब मैंने विपत्ति में आत्मविश्वास खोकर ‘याचना’ का मार्ग अपनाया। मैं पूरी तरह विस्मृत को अपने इंगित से नचाने वाले परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ। तनद इस विस्मृति के कारण ही मैं उनसे विमुख हो चला।

इस तरह नौ अवसरों पर मैंने अपने आपको क्षुद्र बनते देखा। यह सब मेरी विचारहीनता के कारण ही हुआ। जब से सद्बुद्धि एवं विवेक की महिमा समझी है, सोचता हूँ। तनद कि अब परमपिता परमेश्वर के दिए इस जीवन में अब परमपिता परमेश्वर के दिए इस जीवन में अब तो ऐसा कोई काम न हो, जो मुझे और अधिक क्षुद्र क्षुद्रताओं से उबरने और परमात्मा के गौरवशाली पुत्र के अनुरूप जीवन जीने की कोशिशों में जुटा हूँ। तनद क्या इन कोशिश में आप भी मेरे साथ अपने कदम बढ़ाएंगे?


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