विट्ठल पंडित काशी जाकर संन्यास की दीक्षा लेकर वही रहने लगे। जब गुरु को पता लगा कि यह गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को पूरा किए बिना ही संन्यासी हो गया है, तो उन्होंने संन्यास दीक्षा को रद्द कर दिया और गृहस्थ पालन की आज्ञा दी। उनसे कहा-” गृहस्थ को बन्धन मानकर उससे भागों मत । उसके साथ जुड़ी आत्म-परिष्कार की ब्राह्मणोचित साधना करो तथा युग की आवश्यकता के अनुरूप सन्तान समाज को देने का उत्तरदायित्व पूरा करो।
विट्ठल पंडित ने यही किया। जाति वालों ने पण्डितजी को जाति बहिष्कृत कर दिया और उनके बच्चों को भी किसी काम में शामिल न होने देते। होना यह चाहिए था कि रास्ता भूला व्यक्ति यदि फिर रास्ते पर आ जाय, तो उसका स्वागत किया जाय, पर प्रतिगामियों को विवेक बुद्धि से क्या सम्बन्ध।
परन्तु विट्ठल पण्डित गुरु द्वारा बतलाए गये गृहस्थाश्रम के आदेशों के अनुरूप चलते रहे और बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार देते रहे।
सन्त ज्ञानेश्वर सहित उनके तीनों बेटी मुक्ताबाई चारों प्रचारक की तरह प्रतिभ्रमण करने लगे। एक बार काशी गए, तो पण्डितों से शास्त्रों ठन गया। समतावादी ज्ञानेश्वर जी ने श्रेष्ठ कार्यों में सबका अधिकारी साबित करने के लिए भैंसों के मुख से वेद मंत्र का उच्चारण कराया । प्रतिगामी पण्डितों का सिर नीचा हो गया। सन्त ज्ञानेश्वर के चमत्कारी रूढ़ि विरोधी प्रयासों से देव संस्कृति के विस्तार, धर्मधारणा के प्रयासों में सहायता मिली।