मगध-सम्राट अजातशत्रु (Kahani)

December 1996

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मगध-सम्राट अजातशत्रु की गिद्ध-दृष्टि लिच्छवि-गणतन्त्र पर केन्द्रित थी। वज्जियों की वैशाली अजातशत्रु के विजय -रथ के लिए दुर्धर्ष शिला- खण्ड बनी गौरव से मस्तक ऊंचे किए हुए थी। भगवान बुद्ध अन्तिम बार राजगृह के बहिर्वती दुध्रकूट में पधारे तो अजात शत्रु ने मगध-महामात्मा वमस्कार को उनकी सेवा में भेजकर निवेदन किया, भगवन् हम वैशाली को पराभूत करना कहते हैं। कोई उपाय बताये।” भगवान् ने यह सुना तो निकट बैठे आनन्द से पूछा’-- भन्ते क्या वज्जियों के सन्निपात (संसद- अधिवेशन ) बार-बार होते हैं। हे भगवन्! क्यों आनन्द क्या वज्जि संघबद्ध हो उद्यम करते हैं। , स्वीकृत विधि संहिता का उल्लंघन तो नहीं करते , वज्जीधम्प (राष्ट्रीय विधान एवं संस्थाओं ) के अनुसार समवेत होकर चलते हैं । वज्जियों में वृद्धजनों का आदर करते हैं उनके मान्य वचनों को मानते हैं अपनी कुल वधुओं एवं कुमारियों का आदर करते हैं चैत्यों का सम्मान करते हैं। अर्हतों की सेवा ओर रक्षा कते हैं।?”

“ हाँ भगवन् , लिच्छवि इन सभी धर्मों कातरता से पालन करते हैं। “आनन्द ने उत्तर दिया। भगवान् की मुख -मुद्रा गम्भीर हो गयी। उन्हें समात्य वसस्काी की आरे देखते हुए शिष्य से कहा “तो आनंद ये धर्म गणतंत्र के प्राण-तत्व है जब तक लिच्छवि इनका पालन करते हैं वे अविजेय है यही स्वरूप एक आदर्श संस्था, समाज एवं संस्कृति का होना चाहिए। तुम तो भी उस आदर्श संस्कृति का अंग बनकर रहो, परस्त करते की न सोचो।”


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