आइए! इक्कीसवीं सदी का स्वागत हरीतिमा से करे।

December 1996

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व्न - सम्पदा की विविधता एवं प्रचुरता ही पर्यावरण सन्तुलन का आधार है वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से इसका डगमगाना स्वाभाविक है इसी के परिणाम बढ़ते तापमान , अतिवृष्टि , अनावृष्टि , भूक्षरण, वायुमण्डलीय गैसीय चक्र में असन्तुलन के रूप में चारों ओर नजर आ रहे हैं प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोत्तरी भी दिन दूनी -रात चौगुनी देखने को मिल ही है प्रकृति का ताण्डव इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि परिस्थिति पर यदि समय रहते निमंत्रण न किया गया तो इंसान का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।

पर्यावरण सन्तुलन की दृष्टि से धरती का 33 प्रतिशत भाग वनों से ढका होना चाहिए । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में वनाच्छदित भूभाग सिर्फ 14 प्रतिशत रह गया हैं सेटेलाइट द्वारा किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्ष इसे और कम करके बताते हैं। उनके अनुसार यह 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार , वनों की अंधाधुंध कटाई से अब तक विश्व का 25 प्रतिशत से भी अधिक इलाका रेगिस्तान की चपेट में कुल 8,6000,000 मील से भी ज्यादा इलाका सिमट चुका है। अकेले भारत में तकरीबन 3 लाख वर्ग किलोमीटर रेगिस्तानी इलाका है इसमें 65 प्रतिशत राजस्थान में , 22 प्रतिशत गुजरात में दृ 9 प्रतिशत पंजाब हरियाणा तथा शेष महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में है संसार प्रतिमिनट 30 हेक्टेयर वन समाप्त हो रहे है यदि वनों के कटने की गति यही रही तो अगले 50 सालों में इस धरती की अगम्य क्षेत्रों के अलावा वन सम्पत्ति दिखाई देना दुर्लभ हों जाएगी।

वनों के इस तरह घटते जाने का सबसे घातक असर हमारे जीवन पर पड़ेगा, जिसकी सांसें इन्हीं का अनुदान हैं वृक्ष-वनस्पतियां वायुमण्डल से हर पल जहरीली कार्बन-डाई -आक्साइड का अवशोषण कर आक्सीजन के रूप में सतत् प्राण वायु द्वारा प्रतिवर्ष 76.3 अरब टन कार्बन -डाई-आक्साइड सोखी जाती है। और 55.5 अरब टन आक्सीजन वायुमण्डल में छोड़ी जाती है। पेड़ अपनी वृद्धि में एक किलों लकड़ी का उत्पादन करते समय लगभग 1.65 से 1.85 किलों कार्बन -डाई-आक्साइड सोखकर हमें 1.32 से 1.42 किलो प्राण वायु दे डालते हैं।

वनों की घटती दर के अनुक्रम में कार्बन-डाई-आक्साइड का अनुपात भी बढ़ता जा रहा है। सामान्य क्रम में वातावरण में कार्बन-डाई-ऑक्साइड का अनुपात भी बढ़ता जा रहा है सामान्य क्रम में वातावरण में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा सिर्फ 0.003 प्रतिशत होती हैं लेकिन यह वायुमण्डल के ताप सन्तुलन को प्रभावित भी बढ़ती है। पिछले 100 सालों में इसकी मात्रा में 25 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है व तापमान भी 0.5 डिग्री सेण्टीग्रेड बढ़ा है सन् 2000 तक यदि क्रम यही बना रहा तो कार्बन-डाई - आक्साइड में 10 प्रतिशत व तापमान में 1 डिग्री सेंटीग्रेड के बढ़ने की सम्भावना है। ओर यदि वनों के कटने व घटने का सिलसिला यही यही रहा तो 21 वीं सदी के मध्य तक तापमान की वृद्धि 5 डिग्री सेल्सियस जा पहुंचेगी। इससे हिम-खंडों के पिघलने से समूची धरती एक बार फिर से जल में निमग्न हो सकती है।

जंगलों और पेड़ों की बढ़ती संख्या ही हमें इस विनाशक स्थिति से उबार सकती है वृक्ष अपनी वाष्पोतसर्जन प्रक्रिया के कारण गर्मी को ठण्डक में बदलने में समर्थ है। देखा गया है कि 50 से 100 मीटर चौड़ी वृक्ष पट्टी द्वारा तापमान को 3.5 डिग्री सेण्टीग्रेड तक एयर कण्डीशनरों का काम करता है। जो 10 से 15 प्रतिशत बिजली का खर्चा बचाने के साथ ही हमें प्रदूषण मुक्त वातावरण दे सकता है।

आन्ध्र प्रदेश के रामागुण्डम स्थित नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन के पावर स्टेशन में वृक्षारोपण सम्बन्धी हुआ प्रयोग इस संदर्भ में बहुत ही उत्साहवर्द्धक रहा हैं प्रदूषण व अत्याधिक ईंधन जलने के कारण यहां का तापमान 47 डिग्री सेण्टीग्रेड तक बढ़ जाता था। गर्मी की इस बढ़ोत्तरी के कारण रामागुण्डम को अग्निकुण्डम तक कहा जाने लगा। इस समाधान के लिए वृक्षारोपण की एक योजना बनी, जिसके अंतर्गत एक दशक में छह लाख वृक्ष आरोपित किए गए। धीरे-धीरे वाष्पोत्सर्जन द्वारा पैदा होने वाली ठण्डक का चमत्कारी प्रभाव सामने आने लगा। एक सर्वेक्षण के अनुसार यही के तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की गिरावट पायी गयी है। वर्षा में 18 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई व भूमि का जल -स्तर भी बढ़ा हुआ पायी गया। प्राकृतिक सौंदर्य की छटा तो स्वयं में अनुपम भी है।

वृक्षों का समुदाय जहां तपती गर्मी में ठण्डक देता है ही कड़ाके की सर्दी में तापमान को ऊँचा रखने में सहायक है। ठंडे क्षेत्रों में इस पर प्रयोग किए गए हैं। इस क्रम में एक वृक्ष को 10 से 15 एयर कण्डीशनरों के बराबर सक्रिय पाया गया व विद्युत खर्च में 4 से 22 प्रतिशत की बचत देखी गई । साथ ही तमिलनाडु के नीलगिरी आदि क्षेत्रों में खुले मैदानों तक देखा गया जबकि वृक्षाच्छादित क्षेत्र का तापमान ॰ डिग्री से ऊपर पाया गया।

वनों के कटने का महत्वपूर्ण प्रभाव वर्षा पर भी पड़ा है वर्षा के होने न होने में वनों का महत्वपूर्ण योगदान है । सागरों के तल से उठने वाले वाष्पीकृत बादल जब पर्वत शृंखलाओं से टकराते हैं तो लौटकर मानसून के रूप में वनों के आकर्षण और शीलता के कारण बरस पड़ते है॥ यही कारण है कि समुद्री तटवर्तीय इलाकों में जहां वृक्षों -वनों का बाहुल्य है वहां वर्षा अधिक होती हैं सहारा, पेरु , थार, इजिप्ट, आदि के मरुस्थलों में जहां मीलों दूर-दूर तक वृक्ष नहीं पाए जाते वहां वर्षा नाम मात्र को भी नहीं होती है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार पिछले 25 वर्षों में वर्षा के दिनों में 30 प्रतिशत की कमी आयी है यह वनों के घटने के कारण हुआ है। हरे-भरे क्षेत्रों में हरियाली रहित क्षेत्रों की तुलना में अधिक बरसात होती है । ट्रेमिकल (वर्षा वन) क्षेत्रों में आधी बरसात वनों के धरातलीय वाष्पीकरण द्वारा होती है। कटाई कारण वनों का इलाका सिमटता जा रहा है। और सूखे की संभावनाएं बढ़ चली है।

वर्षा थोड़ी-बहुत हो भी जाय, तो भी बरसात के पानी को वही जमीन आने में ग्रहण कर पानी को वही जमीन अपने में ग्रहण कर पाती है। बरसात होने के पहले एक घण्टे में जल अवशोषण की क्षमता कृषि भूमि में 1 से0मी0 घासीय भूमि में 2 से0मी0 सालवन में 16.84 से0मी0 है। तथा मिश्रित वन में 16 से0मी0 पायी गयी है। अर्थात् वनभूमि जल का अधिकतम अवशोषण करती है एक अध्ययन के अनुसार वृक्षों से ढकी भूमि खुली भूमि की तुलना में हर साल 2.5 इंच अधिक जल ग्रहण करती है।

जंगलों के कटने से भू-जल स्तर भी गिरा है । पश्चिम एवं मध्य उत्तरप्रदेश में पिछले 10 वर्षों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि जहां जंगल घने हैं वहां का भू जल स्तर मात्र 50 से0मी0 या कम गिरा है जहां वन नहीं है वहां यह गिरावट 8 इलाके में तो इसी कारण कुएँ सूखते चले जा रहे है।

वनों की कटाई के कारण हिमालय क्षेत्र में बरसात का 80 से 85 प्रतिशत पानी नदियों में बह जाता है। जो मैदानी इलाकों में बाढ़ का कारण बनता है वहां बरसात का सिर्फ 15 प्रतिशत पानी ही टिक पाता है इसी कारण एक सर्वेक्षण के अनुसार इन वर्षों में हरिद्वार में वर्षा एवं गर्मी के गंगा जल प्रवाह का अनुपात 80 और 1 का हो गया है। जबकि भूटान में जहां जंगल सुरक्षित है वहां की मक्खी नदी में वर्षों व गर्मी के जल प्रवाह का अनुपात 7 व 1 का है। हिमालय की वनस्पति आवरण के कमी के कारण जल स्रोतों में पिछले 5 सालों में 25 प्रतिशत की कमी आयी है।

कटते जंगलों की वजह से नंगी धरती भूक्षरण एवं भूस्खलन द्वारा असुरक्षित होती जा रही है। वर्षों के पानी के साथ खेतों की उपजाऊ मिट्ठी कट कट कर बह जाती है इस समय भारत के 43 प्रतिशत भूभाग भूक्षरण से प्रभावित है तथा 25 लाख हेक्टेयर भूक्षेत्र प्रतिवर्ष बाढ़ ग्रस्त हो जाता है। अनुमान है कि उर्वर भूमि से 700 करोड़ मूल्य के मृदा के खनिज तत्व प्रतिवर्ष बह जाते हैं जो रासायनिक उर्वरक की वार्षिक खपत से दोगुना है । 60 करोड़ टन से अधिक मिट्ठी प्रतिवर्ष बह जाती है जिसका अधिकाँश भाग समुद्र में पहुंच जाता है।

बाढ़-भूस्खलन मूलतः वन कटाव के कारण ही होते हैं। 1972 में अलकनंदा 1978 में उत्तरकाशी में आयी बाढ़ तथा 1979 में कोयना (चमोली) में हुए भूस्खलन एवं बाढ़ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। 1977.86.89 90 में गढ़वाल के कई क्षेत्रों में भयंकर भूस्खलन वन विनाश प्रतिक्रिया के ही परिणाम है वर्ष 1994 में हिमाचल प्राप्त में भूस्खलन एवं बाढ़ द्वारा भयंकर तबाही वन कटाव का ही प्रतिक्रिया है भूक्षरण एवं बाढ़ द्वारा नष्ट होने की सम्भावना है जिससे कई अन्न उपजाऊ क्षेत्र बंजर भूमि में बदल जाएंगे।

पेड़ों की हरियाली की कमी के कारण धूल की समस्या बढ़ती जा रही है। बड़े-बड़े शहरों में मृत्यु का प्रमुख कारण धूल से होने वाले टी0बी0 व साँस के अन्य रोग है एक आकलन के अनुसार वायु प्रदूषण की समस्या का 40 प्रतिशत धूल के कारण है उसके समाधान 30 मीटर चौड़ी धनी पट्टी लगभग पूर्णतया धूल मुक्त करे में सक्षम पायी गयी है रूस में प्रयोग द्वारा पाया गया है। कि लिलक, मेपल, लिन्डेन व पापलर सर्वोत्तम धूल फिल्टर का काम करते हैं पापलर की एक पत्ती अपने जीवनकाल में 1 किलों धूल छान लेती है पीपल, पाकड़, साल, , अर्जुन , आम बरगद, जरूरत आदि पेड़ भी प्रभावशाली फिल्टर का काम करते हैं।

पर्यावरण विशेषज्ञों का मत है कि वों की कटाई से वायुमण्डलीय गैसीय चक्र का भी सन्तुलन गड़बड़ाया है। भारतीय मौसम विज्ञान की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार कटते जंगलों के कारण आज तक वायुमण्डल में प्राणवायु आक्सीजन के स्तर में लगभग 0.005 प्रतिशत कार्बन-डाई- आक्साइड की मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई वायुमण्डल में ऑक्सीजन के स्तर में कमी और जहरीली कार्बन-डाई-आक्साइड की मात्रा पर नियन्त्रण स्थापित नहीं किया गया, तो सन् 2000 तक इसकी मात्रा 5200 करोड़ टन से भी अधिक हो सकती है इस बढ़ी हुई मात्रा के कारण विश्व के तापक्रम में काफी वृद्धि होगी, सुगमता से पृथ्वी पर नहीं आएगा, ताप वृद्धि के कारण ध्रुवीय प्रदेशों की बर्फ पिघलेगी ।

इस प्रकृति असंतुलन से कही भीषण सूखा आकाल पड़े तो कही वायुमण्डल में संव्याप्त कार्बन-डाई-आक्साइड व सल्फर के कारण तेजाबी वर्षा का सामना करना पड़ेगा ‘वर्ल्ड वाच इन्स्टीट्यूट‘ की एक रिर्पोट के अनुसार, पश्चिमी जर्मनी में जेजाबी वर्या के कारण वर्ष में एक अरब डालर की वन सम्पदा का नुकसान हुआ। प्रकृति के शृंगार वनों को यदि इस प्रकार उससे छीना जाता रहा तो अगले दिनों कुपित प्रकृति की विनाशलीलाएं ही दिखाई देती रहेगी।

वन सिर्फ प्रकृति का शृंगार ही नहीं, इनमें जनसामान्य को ईंधन एवं पशुओं को चारा भी सहज मिलता है। स्थानीय लोगों के उपयोग की सामग्री व आजीविका बहुत कुछ इन्हीं पर चलती है। पशु -पक्षियों के एकमात्र शरण स्थल वन है असाध्य रोगों के उपचारार्थ दुर्लभ जड़ी-बूटियां भी वनों से ही उपलब्ध होती है प्रा0 टी0 एम0 दास के अनुसार एक वृक्ष अपने पचास वर्ष के जीवन में हमें 15.70 लाख रुपये की बहुमूल्य सेवाएं प्रदान करता है जबकि इसमें छाया, हरियाली फल और फूल का मूल्य शामिल नहीं है प्राकृतिक सौंदर्य में निरन्तर अभिवृद्धि करने वाले पेड़ ये मनुष्यों को सतत् अनगिनत लाभ देते हैं।

इनकी कटाई से उत्पन्न वर्तमान समस्या को देखते हुए यू0 उन0 ओ0 ने चेतावनी दी है कि यदि समय रहते इस समस्या का निराकरण नहीं किया गा तो मानव विकास ओर जीवन के भविष्य पर प्रश्न - चिन्ह लग जाएगा । बाढ़, सूखा प्रकृति के प्रकोप से बचाव के साथ हमें योजनाबद्ध रूप से महत्व देना होगा। इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य में बदल डालने के लिए प्राण-पण से मुड़े शान्तिकुँज ने वृक्षारोपण को एक जन अभियान का रूप दिया है।

इस क्रम में न केवल विचार क्रान्ति अभियान के सदस्यों द्वारा भारी संख्या में वृक्षारोपण किया जा रहा है बल्कि बच्चों, नवयुवकों, वृद्धों को इसकी उपयोगिता-महत्ता से अवगत कराने का भी सिलसिला जारी है इस सम्बन्ध में हमारे देश का जनमानस इजराइल जैसे रेगिस्तानी देश से सबक सीख सकता है जहां की जनता वृक्ष-पेड़ लगाकर विशाल क्षेत्र को हरा-भरा कर लिया और तपते रेगिस्तान पर हरियाली की शीतल चादर ओढ़ा दी? वहां आम रिवाज है कि लोग अपने खेतों, सड़कों, मैदानों में अपने बच्चों के जन्म पर और मरने वालों की यादगार में पेड़ लगाते हैं। ख्रन में भी अपने इस प्रयत्न से हरीतिमा की दीवार खड़ी की है। जो उसकी ऐतिहासिक चीन की दीवार से भी कही अधिक सजग प्रहरी की भांति पर्यावरण असन्तुलन से मोर्चा ले रही हैं

ऐसे में हम क्यों पीछे रहे? अपने देश की संस्कृति सभ्यता का तो जन्म ही वनों में हुआ है। प्राचीनकाल के गुरुकुल आरण्यक वनों की गोद में बसे होते थे। ऋषि -मुनि लोग इन्हीं ही छाया में तप-साधना में संलग्न रहते थे व जनमानस को दिशा देने वाले महत्वपूर्ण सूत्रों की खोज यही करते थे आज भी अपनी साँस्कृतिक धरोहर के रूप में भार के 70 प्रतिशत गाँवों में वृक्षों की पूजा होती है। इनमें पीपल,बरगद , तुलसी, विल्व, आँवला आम आदि प्रमुख है।

युग सन्धि के वर्तमान पल इन देव प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा के पल हैं वृक्षारोपण देव मन्दिर के निर्माण ही ही तरह बल्कि उससे कही ज्यादा पुण्यप्रद है। हमारे देश में 80,000 कि0 मी0 रेल पथ, 1,20,00,000 कि0 मी0 लम्बी सड़कों के साथ-साथ नदी , नहरों मरुभूमि में अरबों-खरबों के संख्या में वृक्षारोपण का पुण्य कार्य किया जा सकता है इस कार्य को इक्कीसवीं सदी के स्वागत महोत्सव के रूप में किया जाना चाहिए तभी हमारा हर कदम उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ेगा।


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