मुझे कोई बताइए। कोई भी अनुष्ठान बता दीजिए। मैं कठिन से कठिन तप कर लूंगा। विनायक राय आज साँई बाबा के पाँव पकड़कर बैठ गया था। अकेले शिरडी गाँव में ही नहीं आस-पास के पूरे क्षेत्र में विख्यात था कि साँई बाबा सिद्ध सन्त हैं उनमें चमत्कारी शक्ति हैं वे जिसे जो बात कह देते हैं, वही हो जाती है किसी को वे सीधे आशीर्वाद देने की बजाय प्रायः कोई जड़ी-बूटी , धनी की विभूति अथवा कोई छोटा-मोटा व्रत आदि बता देते हैं लेकिन जिसे वे जो कुछ बता देते हैं वह ठीक-ठीक उनकी आज्ञा का पालन करें तो उसका काम हो जाता है।
संसार तो है ही दुःखी और अभाव का घर, किसी को कोई असाध्य रोग हैं, किसी को मुकदमा जीतना है, किसी के सन्तान या घर के लोग अच्छा व्यवहार नहीं करते एक न एक दुःख सबको लगा हैं सांई बाबा के पास भीड़ लगी रहते हैं। उनके पास हिन्दू आते हैं। और मुसलमान भी । अब दुःख पीड़ा को हिन्दू -मुसलमान का फर्क तो मालूम नहीं वह तो बिना जाति-पंथ और क्षेत्र का भेद किए कर्मों के अनुसार हरेक के पास पहुँच जाता है। और पीड़ित को अपने ममत्व का मरहम लगाना बाबा अपना प्रथम कर्तव्य समझते हैं। वैसे तो सभी उनके अपने है। लेकिन परेशान , दुःखी, पीड़ित को उनसे कुछ ज्यादा ही अपनत्व मिलता है। वैसे तो वे प्रायः कह देते हैं। भैया भगवान भला करेगा। अल्लाह भला करेगा। मंगलमय प्रभु जो करते हैं। जीव का उसी में मंगल हैं लेकिन कभी-कभी किसी को बहुत आर्त देखकर कोई व्रत -उपवास, पूजा -पाठ बता भी देते हैं।
विनायक राय बहुत बार आया है। उसके आने का एक ही उद्देश्य है किन्तु अपनी बात वह सबके सामने कहना नहीं चाहता । उसे एकान्त चाहिए और एकान्त उसे मिलता नहीं था। आज सौभाग्य से कोई दर्शनार्थी नहीं था। दो ढाई घण्टे की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उसे एकान्त मिला है। वह बाबा के पाँव पकड़ कर बैठ गया। अब तो वह अपनी बात पूरी होने पर ही उठेगा।
विनायक अभी युवक है पूना के किसी बड़े कालेज में पढ़ता है कुछ कविता कर लेता है उसके कालेज में कई युवक अच्छी कविता लिखते हैं उसके एक सहपाठी की कविता कई पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती है। अच्छे मोटे रंगीन विशेषाँकों में अपने सहपाठी की कविता देखकर उसके मन में क्या-क्या आता है, आप शायद ही समझ सकें।
कई महीने हो गए, पर विनायक को तो कल जैसी बात लगती है।, कालेज में कवि सम्मेलन हुआ था । अनेक विद्यार्थिओं ने अपनी-अपनी कविताएँ पढ़ी। कई के कविता पाठ पर लोगों ने तालियां भी बजाई । उसके सहपाठी की कविता लोगों ने आग्रह करके तीन बार सुनी। उसने भी कविता पढ़ने वालों में अपना नाम दे दिया था। उसका भी नाम पुकारा गया। उसमें भी अपनी कविता सुनाई। लोगों में इतनी समझ तो नहीं। वे सब तो केवल सुरीले स्वर पर रीझते हैं। उसका स्वर इतना अधिक सुरीला नहीं तो वह क्या करें, उसकी कविता का हम स्वर उसके सहपाठी समझते ही नहीं। मूर्ख है वे सब । उस दिन जो उसका उपहास हुआ, उसमें उसने अपने मन को इसी तरह सन्तोष दे लिया।
लेकिन वह कब तक अपने को धोखे में रख सकता है। उसके साथी अब तक अपने की धोखे में रख सकता है उसके साथी अब तक उसे ‘कविजी’ कहकर चिढ़ाते हैं। उसने सोचा था कि कविता किसी पत्र में छप जाय तो साथियों का चिढ़ाना बन्द हो जाय। इसलिए चुपचाप कई पत्रों के लिए उसने रचनाएं भेजी पत्रों के सम्पादक उसे मिल जाते तो वह उन्हें ने जाने कितनी खरी -खोटी सुना देता।उन पत्रों में जा रचनाएं निकलती है। व क्या सबकी सब उसकी रचना से श्रेष्ठ है। उसकी रचना यदि सुधर कर कोई छाप देता तो क्या बिगड़ जाता। उनका पक्षपात -उसे लगता है कि सब पक्षपात -उसे लगता है कि सब पक्षपात करते हैं सब पत्र -सम्पादक उसके खिलाफ कोई साँठ-गाँठ किए बैठे हैं उसी की रचनाएं क्यों सब कही से लौट आती हैं
ये रंगीन आवरण पृष्ठ के मोटे बड़े सुन्दर विशेषाँक। ये सजे सजाए मासिक और साप्ताहिक पत्र , इनमें उसकी दो पंक्ति कही छान नहीं सकती? हाँ इस बात के लिए उसकी कोई प्रशंसा भी कर सकता है। कि उसने कभी यह विचार नहीं किया कि दूसरे की रचना कुछ उलट-पलट कर या वैसे ही अपने नाम से दे दे।
कवि सम्मेलनों में तो वह अब जाता ही नहीं। उसे कवि सम्मेलनों के नाम से चिढ़ हो गयी हैं वहां कितने कविता समझने वाले आते है?
मैं दिखा दूंगा। ये पत्र मुझसे अनुनय−विनय करके कविता माँगने और उसे अपने मुखपृष्ठ पर छापेंगे। आप इस महत्वाकांक्षा का उपहास नहीं कर सकते। अन्ततः जिसकी रचनाएं मुखपृष्ठ पर छपती है। वे भी तो मनुष्य ही है। जो काम एक मनुष्य कर सकता है वही दूसरा क्यों नहीं कर सकेगा?
ये कवि सम्मेलनों के आयोजन मेरे पीछे जोड़ते घूमेंगे कि मैं उनके सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार करके उन्हें गौरवान्वित करूं। विनायक राय अपनी धुन का पक्का है और धुन ही है। जिसने उसके हृदय में एक दिन के तनिक से उपहास को इतना भारी रूप दे रखा है।
महाकवि कालिदास मूर्ख थे। वज्रमूर्ख थे। विनायक को एक आश्वासन मिल गया है। वह भी उपासना करेगा। वह भी दैवी शक्ति प्राप्त करेगा।
बाबा! मैं यश चाहता हूं । मैं कविता करने की ऐसी शक्ति चाहता हूं कि सारा संसार मेरी रचनाओं की प्रशंसा करें । मेरी रचनाएँ पूरे विश्व में आदर पाएँ। भाव के आवेग में युवक विनायक शिरडी के इस फकीर के चरण पकड़े बोलता जा रहा था।
सांई बाबा सुन रहे थे। सुनते-सुनते यकायक वह एक ओर इशारा करके बोले-वहाँ एक कुंआ है। । देखा है तुमने उसे? बोलते-बोलते विनायक यह अटपटा सवाल सुनकर अचकचा-सा गया। उसे इस सवाल का अपनी बात-चीत से कोई तालमेल समझ में नहीं आया । लेकिन तनिक यह पुस्तक उठा लाओ । कुल तीन-चार ही पुस्तकें तो थी। द्वारिका माई मस्जिद में। बाबा स्वाध्यायी होते हुए भी संग्राही नहीं है। ये पुस्तकें भी किसी दर्शनार्थी की ही हैं। वह सबेरे इन्हें यहां लेकर आया था। पुस्तकें यही छोड़कर दोपहरी में पास के गांव में चला गया है। भोजन की कोई व्यवस्था यहाँ से ही आ जाता है। यदा-कदा वे स्वयं भी भिक्षा मांग लाते हैं। दर्शन करने जो लोग आते हैं वे गांव में जो एक हलवाई की दुकान है वही कुछ बनवाकर खा लेते हैं।
मर गया बेचारा । विनायक ने पुस्तक दी। बाबा ने उसे खोला और एक पन्ने पर दृष्टि गढ़ाकर इस प्रकार झुक गए, जैसे कोई बहुत बड़ी दुर्घटना देख रहे हों।
यह तो पुस्तकों को नष्ट करने वाले कोड़ा है। विनायक उत्सुकतावश समीप आ गया था। उसने झुककर पुस्तक का वह पृष्ठ देखा। वहाँ एक किताबी कीड़ा मरा चिपका था। ये वैसे तो ग्रन्थों को काट-काट कर नष्ट करते ही हैं मर कर भी ग्रन्थ को गन्दा करते हैं। विनायक को इन कीड़ों से बहुत चिढ़ है। इन्होंने उसकी कई उत्तम पुस्तकों के पन्ने जहाँ-जहाँ से खा लिए । उसका बस चले तो कवि बनने का यत्न पीछे करें, पहले इन कीड़ों के वंश को नष्ट कर डाले।
तुम उसे नहीं पहचानते। पहचान भी नहीं सकते। बाबा ने उसी खेद की मुद्रा से कहा-यह तो इस महाग्रन्थ का रचयिता है
इस ग्रन्थ का इस प्रख्यात महाकाव्य का रचयिता -महाकवि .................. । विनायक की आंखें फैल गयी।
बड़ा प्रतिभाशाली था। बड़ा विख्यात कवि था। उसकी कविताओं का कई भाषा में अनुवाद भी हुआ था। बड़ा सम्मान पाया इसने । इसका यह सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ बड़ी ममता थी इसकी इस ग्रन्थ से । बाबा ऐसे स्वर में कह रहे थे। जैसे मृत कीड़े के प्रति आन्तरिक सम्वेदना प्रकट कर रहे हों- बेचारा अपने ग्रन्थ में भी नहीं रह सका। यह तो कर्म का फल है। कर्म समाप्त हुए और शरीर समाप्त हुआ। कोई कब तक किससे ममता किए रहेगा।
महाकवि ....... और यह कीड़ा । में गूँज रहा है विनायक का मन अभी तक स्वस्थ नहीं हो सका था।
इसमें आश्चर्य की क्या बात है। अपने कर्म के अनुसार, अपनी आसक्ति के अनुसार हो तो प्राणी की पुनर्जन्म होता है। वैसे तो ज्ञान, नित्य और अनन्त हैं अभी जो बालक आया था, आसी पोथी के समान ही कुछ रेखाएं कुछ शब्द कुछ अक्षर जोड़-बटोर कर यह महाकवि हो गया। लोगों ने कहा इसने मान लिया कि मैं महाकवि हूं । अपने ग्रंथ से इसकी मोह हो गया। सन्त सम्वेदना के स्वर में ही कह रहे थे। अब तुम कहते ही कि यह ग्रन्थ कीट ग्रन्थ को नष्ट कर रहा था। कोई इस ग्रन्थ को इस ग्रन्थ के रचयिता को क्या कहता है कितनी प्रशंसा करता है। उनकी इस बात से इसको क्या लाभ? इसका पेट तो ग्रन्थ के थोड़े से बहुत थोड़े कागज से भर जाता था किसी ग्रन्थ के कागज से भी जाता लेकिन मर गया बेचारा । उसके अपने ग्रन्थ ने ही दबाकर मार दिया इसे।
यह कीड़ा था विश्वविख्यात महाकवि ...........। विनायक को कैसे झटपट सन्तोष हो जाय।
तुम पुनर्जन्म मानते हो फिर चौंकते क्यों हो? बाबा ने अब बड़ी स्थिति गम्भीर दृष्टि से विनायक को देख। तुम पिछले जन्मों में कालिदास, भवभूति गजाली अथवा 3मों या कोई दूसरे महान कवि, महान शूरवीर, चक्रवर्ता सम्राट नहीं रहे हो, यह कैसे जानते हो? उस समय के तुम्हारे कर्म विश्व में अब भी प्रख्यात हो तो तुम्हें उनसे क्या लाभ अगले जन्म में तुम क्या बनोगे, यह तो तुम्हारे इस जन्म के कर्मों पर निर्भर है । यह तुम्हें स्वयं निर्णय करना है ।
विनायक ने बाबा के चरणों में सिर रख दिया। उसे अब कोई अनुष्ठान नहीं चाहिए था।
शिरडी से अब वह अपने कालेज पहुंचा। कालेज में प्रवेश करते ही मित्रों ने उसे घेर लिया। आओ, मुंह मीठा करें। मित्रों का यह आग्रह उसे समझ में नहीं आ रहा था। अभी तो परीक्षाएं भी नहीं हुई थी फिर किस बात की मिठाई । तुम बहुत चालाक हो गए हो। हम लोगों से भी तुमने नहीं बताया कि तुम सचमुच अच्छे कवि हो गए हो। मित्रों के स्वर में उलाहना था। में और कवि? उसे कुछ समझ में नहीं आया। वह सोचने लगा कि आज पता नहीं ये सब उसे चिढ़ाने की कौन सी भूमिका बना रहे है।
बना मत। ये क्या है? एक सुविख्यात पत्रिका का विशेषांक खोलकर एक मित्र ने उसके आगे कर दिया। विनायक ने एक कविता काफी पहले इस पत्रिका को भेजी थी। कविता लेकर नहीं आयी थी। परन्तु सभी पत्रिकाएं अस्वीकृत रचनाएं लौआ हो तो नहीं देते। उसने सोचा था कि यह भी किसी अस्वीकृति के ढेर में पड़ी होगी। लेकिन वह तो छप गयी- इतनी विख्यात पत्रिका के विशेषाँक में और वह भी प्रथम पृष्ठ पर ।
इसे देखकर वह एक पल को मुस्कराया। उसकी इस मुस्कान के पीछे स्पन्दित हो रहा था उस बालक को टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों में और इन लकीरों में चाहे जितना अन्तर हों किन्तु अपनी लकीरों की प्रशंसा सुनकर फूल जाने में कौन सी विचारशीलता है। क्या हानि लाभ हैं इसमें किसी का कि कोई उसकी प्रशंसा करे या न करके उसके विचारों में स्पन्दित हो रहा था- संसार तो उस कुंए और तालाब बनाने वाली उदार स्त्रियों का नाम तक नहीं जानता। कोई नाम का पत्थर पढ़कर रट भी ले तो इससे उस बुढ़िया को क्या लाभ? कितना झूठा है नाम-यज्ञ का मोह। कितनी मूर्खता है इसमें और इसी मूर्खता के चक्कर में बेचारा महाकवि ग्रन्थ का कीड़ा बनकर उस में पिस गया।
मित्रों की समझ में विनायक की यह मुस्कान भरी चुप्पी समझ में नहीं आ रही थी। सबने मिलकर उसे कुरेदा तो वह खुलकर हंस पड़ा वह हंसते-हंसते कह रहा था कितना पागलपन हैं कितनी मूर्खता है इस नाम यश के मोह में। जिससे कोई लाभ नहीं उस नाम के मोह के पीछे लगभग सारा संसार पागल हो रहा हैं हंसते-हंसते वह एक बार फिर गंभीर हो गया- नहीं, में अपने को पागल नहीं होने दे सकता।
मित्र -परिचित समझने लगे है कि विना राव सनक गया है लेकिन सांई बाबा ने तो सारी बात सुनकर कहा- अब वह समझदार हो गया है। उसे जीवन के वास्तविक सत्य का बोध हो गया है। विनायक राव की संपत्ति ओर विचार का तो कोई महत्व हैं नहीं। लेकिन आप क्या समझते हैं?