अतीत की वापसी

December 1996

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भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता का जिन्होंने अध्ययन, अनुभव एवं अवगाहन किया है। इसके मूल तक पहुंचे हैं उन्होंने इसकी सार्वभौमिकता, विशालता तथा पवित्रता से इनकार नहीं किया। भारतीय दर्शन सम्पूर्ण विश्व लिए प्रकाश है । उस प्रकाश का लाभ सभी जातियों ने पाया है। यहां के ऋषि मनीषियों ने अपने ज्ञान अपनी साधना और तपश्चर्या के लाभों को सारे संसार को बांटा है। उस अनुदान का लाभ समूचा विश्व उठा भी रहा है। किन्तु हम स्वयं उस प्राचीन गौरव को भुला बैठे। उच्च आदर्शों से च्युत होकर अपनी सारी भौतिक संपदाएं एवं आध्यात्मिक विभूतियां खोकर रख दी। युग संधि की संक्रमण वेला में आज समय उन्हें फिर से जाग्रत करने का संदेश दे रहा है।

महापरिवर्तन का वह युग आ गया है जय इस आवाहन को अनसुनी कर टाल नहीं सकते।

हीरे की परख जौहरी को होती है। हम जिस अतीत को आज भूल बैठे है। उसके महत्व को पाश्चात्य मनीषियों ने कला-पारखियों ने समझा और उसकी प्रशंसा की है। इतिहास में अनेकों वर्णन विश्लेषण एवं विज्ञप्तियां भरी पड़ी है। उनका अध्ययन करने से आंखें खुल जाती है। और अपने सही रूप का पता चल जाता है। प्रख्यात जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर ने लिखा हैं-”यदि कोई मुझसे पूछे कि कौन -सा देश है जिसे प्रकृति ने सर्वसंपन्न , शक्तिशाली एवं सुन्दर बनाया है तो मेरा संकेत भारतवर्ष की ओर होगा। जिन्होंने प्लेटो और काण्ट के दर्शन का अध्ययन किया है उन्हें भी अपने मुख्तम गुणों का विकास करने वाली जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं पर गहराई से सोच-विचार करने वाली भारतीय संस्कृति के अध्ययन की जरूरत है अपने जीवन को अधिक पूर्ण अधिक विस्तृत और अधिक व्यापक बनाने के लिए भारतीय विचार पर्याप्त हैं न केवल इस जीवन के वरन् मनुष्य के अनन्त जीवन के पूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण की क्षमता केवल भारतीय संस्कृति में है। मैक्समूलर ने इन पंक्तियों में भारतीय आध्यात्मिक शोधों की ओर संकेत किया है। इन तथ्यों का विस्तृत विश्लेषण । जिसकी अभी तक कोई थाह नहीं पा सके। वह सब वेदों में सम्पादित है। वेद के पल आधार है इसमें मनुष्य का आध्यात्मिक तथा भौतिक आवश्यकताओं के सभी विषयों का समावेश है। यह ज्ञान अन्त में अनेकों धाराओं में प्रभावित होकर बहा जिससे न केवल यहां के आध्यात्मिक जीवन समृद्ध बना वरन् भौतिक सम्पन्नता भी अपने ही अनेक विश्लेषण लेकर प्रस्तुत हुई। ‘इंडिया रिव्यू’ में सुप्रसिद्ध अमेरिका विद्वान डेलभार ने लिखा है।

“पश्चिमी लोगों को जिन बातों पर अभिमान है। वे सब भारतवर्ष से आयी है। फल-फूल , पेड़ -पौधे तक जो इस समय यूरोप में पैदा होते हैं। वे भारतवर्ष से ही लाकर यहां लगाये गये हैं। घोड़े, मलमल, रेशम, टीन, लोहा तथा सीसे का प्रचार भी यूरोप में भारतवर्ष से ही हुआ हैं इतना ही नहीं ज्योतिष , वैद्यक, अंकगणित, चित्रकारी तथा कानून भी भारतवासियों ने ही यूरोपियनों का सिखलाया है।

भारतवर्ष केवल हिन्दू धर्म का ही घर नहीं है। उसमें संसार की सभ्यता का आदि भण्डार है यहां की जीवन सरल महत्वपूर्ण तथा अति प्राचीन है श्रद्धा और भक्ति, विश्वास और निश्चय से भरा हुआ यह अपना देश किसी समय ज्ञान-विज्ञान का सम्राट बना हुआ था। यहां मनुष्य को शाश्वत आशाएं और सांत्वनाएं घनीभूत थी। ऋषिओं की गम्भीरता को हृदयंगम कर पाना भी कठिन है, जिन्होंने सर्वप्रथम इस संसार में विचार और विवेक को जन्म दिया था। वास्तविक जीवन के सिद्धान्तों का अनुसंधान इसी पवित्र भूमि में हुआ हैं इसलिए सम्पूर्ण विश्व ने इसे शीश नवाया, इसकी अभ्यर्थना की है। पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषी एम लुई जेकोलियट ने लिखा हैं -

“ऐ प्राचीन भारत वसुंधरा। मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। शताब्दियों से चलने वाले आघात भी तेरी पवित्रता को नष्ट नहीं कर पाये। श्रद्धा प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारतभूमि को मेरा कोटिशः नमस्कार है।

भारतवर्ष का सम्मान और इसकी प्रतिष्ठा का मूल कारण यहां का धर्म है। इसे औरों ने सम्प्रदाय रहे रूप में भले ही देखा ही किन्तु वस्तुतः हिन्दू धर्म का मूल सिद्धान्त है मानवीय आत्मा के गौरव मूल सिद्धान्त है मानवीय आत्मा के गौरव को प्राप्त करना और फिर उसी के अनुसार आचरण करना । शास्त्रकार ने लिखा है।

श्रृयना धर्म सर्वस्त्र आत्मन पिक्तानी अर्थात् यह है कि दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जैसा तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे प्रति किया जाय। इसको सुनी ही नहीं आचरण भी करो।

धर्म का यही सुखद और सर्वहित में है। इसमें प्रविमान के जीवन रक्षा और सुखोपभोग की व्यावहारिक कल्पना है। अपने इसी म्प में हमारा अतीत उज्ज्वल सुखी और शांतिमय रहा है आज भी सारे विश्व को इसकी आवश्यकता है।

धर्म के जिस रूप की यहां व्याख्या की गयी है। वह आदर्श है किन्तु वह बिना किसी महान शक्ति के आश्रय में रहे हुए स्थिर नहीं रह सकता । मानवीय हितों की सुरक्षा की आज भी सारे संसार में व्यवस्था है किन्तु उसका परिपालन पूर्णतया कही भी नहीं है। इसी से सर्वत्र अस्त-व्यस्तता है। जो पंक्तियां इन कार्यों के लिए नियुक्त भी है। वे भी पूर्णतया विध्वंसक हैं भारतीय धर्म की पूर्ण शक्ति ही है। शक्ति का विकास पूरक गुण भी है। और उसका एक नितान्त वैज्ञानिक अंग भी है। ऐसी विशेषता केवल भारत में हो है।


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