‘विश्ववारा’ भारतीय संस्कृति

December 1996

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संस्कृति का अर्थ है वह कृति-कार्य पद्धति जो संस्कार सम्पन्न हो। ऊबड़-खाबड़ पेड़-पौधों को जिस प्रकार काट छांट के उन्हें सुरम्य और सुशोभित बनाया जाता है, वही काम व्यक्ति की उच्छृंखल मनोवृत्तियों पर नियंत्रण स्थापित करके संस्कृति द्वारा सम्पन्न किया जाता है किसान जिस भूमि को खाद-पानी, जुताई -निराई आदि से उर्वर बनाता है और बीज बोने से लेकर फसल तैयार होने तक उन पौधों को सींचने, सँभालने, रखाने आदि की अनेक प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है वही कार्य संस्कृति द्वारा मानवीय मनोभूमि को उर्वर एवं फलित बनाने के लिए किया जाता है अंग्रेजी में संस्कृति के लिए ‘कल्चर ‘ शब्द आता है उसका शब्दार्थ भी उसी छवि को प्रकट करता है। अस्तव्यस्तता के निराकरण और व्यवस्था के निर्माण के लिए जो प्रयत्न किए जाए, उन्हें ‘कल्चर’ कहा जा सकता है संस्कृति का भी यही प्रयोजन हैं ।’संस्कृति ‘ के साथ ‘भारतीय ‘ शब्द जोड़कर उसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है इसका अर्थ यह नहीं कि वह मात्र भारतीयों के लिए ही उपयोगी है अन्वेषण का श्रेय देने के लिए कई वार नामकरण उनके कर्ताओं को दे दिया जाता है कई ग्रह-नक्षत्रों की अभी नई शोध हुई है उनके नाम उनके शोधकर्ताओं के नाम पर रख दिये गए हैं पहाड़ों की जिन ऊंची चोटियों पा जो यात्री पहले पहुँचे इनके नाम भी उस साहसियों के नाम पर रख दिए गए। धर्म -सम्प्रदायों के सम्बन्ध में भी ऐसा ही होता रहा है उनके आचार्यों संस्थापकों का नाम स्मरण बना रहे, इसलिए उनके नाम से वे सम्प्रदाय पुकारे जाते हैं इसका अर्थ उन पदार्थों या लेना नहीं है। जिनका कि नाम जोड़ दिया गया है। हिंदुस्तान में वर्जीनिया तम्बाकू पैदा होती हैं जिसका प्रारम्भिक उत्पादन वर्जीनिया में हुआ था, इसलिए नामकरण उसी आधार पर हो गया। यह प्रतिबन्ध लगाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता कि उस तम्बाकू का उपयोग या उत्पादन मात्र भारतीय संस्कृति का प्रयोग पोषण एवं विस्तार भारत से हुआ, इसलिए उसे उस नाम से पुकारा जाता है, तो यह उचित हो हैं पर इसका अर्थ यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसका प्रयोग इसी देश के निवासियों तक सीमित था अथवा रहना चाहिए।

‘सा प्रथमा विश्ववारा’ कहकर यजुर्वेद ने इसके भारत वर्ष में प्रथम आविष्कृत होने, तत्पश्चात् विश्वव्यापी बनने की बात स्वीकारी है। सृष्टि के आरम्भ से सम्भव है ऐसी छूट-छूट संस्कृतियों का भी उदय हुआ हो जो वर्ग विशेष काल विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के लिए उपयोगी रही हों उन सबको पीछे छोड़कर यह भारतीय संस्कृति ही प्रथम बार इस रूप में प्रस्तुत हुई हक उसे विश्व संस्कृति कहा जा सके। हुआ भी यही जब उसका स्वरूप सर्वसाधारण को विदित हुआ जो उसकी सर्वश्रेष्ठता को सर्वत्र स्वीकार ही किया जाता रहा। फलस्वरूप वह विश्वव्यापी होती चली गयी। इतिहास भी इसे एक सर्वसामान्य तथ्य के रूप में स्वीकार करता है कि जा भी इसके संपर्क में आया, इसी का हो गया।

सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी एवं भारतीय विद्याओं के ज्ञाता सर विलियम जोन्स ने भारत के साँस्कृतिक ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात् कहा-” आने आपको ऐसे उदात्त वातावरण में पाकर मुझे अनिवर्चनीय आनन्द की अनुभूति हुई हैं यह महान देश जो दूर-दूर तक एशियाई देशों से घिरा है जिसको विज्ञान की धरती होने का सम्मान प्राप्त है जिसने गौरवपूर्ण कार्यों के दृश्य उपस्थित किए हैं। जो मानवीय प्रतिभा का उर्वर उत्पत्ति स्थान है । जो आश्चर्यजनक प्राकृतिक विचित्रताओं से भरा पड़ा है और जो धर्म-प्रशासन शास्त्रीय नियमों , शिष्टाचार , रीति- रिवाजों, विविध भाषाओं तथा मनुष्यों के विविध वर्गों का अटूट भण्डार है इसी देश की संस्कृति ने मनुष्य को उसके मनुष्यत्व की गरिमा की सीख दी हैं

विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति के विस्तार का कारण थी- यहां के ऋषियों की ‘वसुौव कुटुम्बकम्’ की भावना । वे सदैव किसी सीमित क्षेत्र के हित साधन के विषय में न सोचकर समस्त विश्व की एकता, प्रगति एवं समृद्धि का चिन्तन करते थे। तभी तो भारतीय मनीषी डाफ॰ राधाकृष्णन ने अपनी एक वक्तृता में कहा था -” भारतीय संस्कृति का अर्थ है मेल, सारी जातियों का मेल। इस प्रकार के महामेल को पैदा करने की इच्छा रखने वाली, सारी मानव जाति की उसके मंगल -कल्याण की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाली यह ऋषि प्रणीत संस्कृति है। इसी विशाल दृष्टिकोण के कारण भारतवासी अपनी आध्यात्मिक एवं भौतिक सम्पदा को विश्व के कोने-कोने में बाँटने हेतु पहुँचे ।

प्राचीन भारत में न केवल ऋषि वरन् सामान्य स्तर के लोगे में भी त्याग और आदर्शों के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा रहती थी। देश का प्रत्येक नागरिक आदर्शवादिता की प्रतिमूर्ति था। संकीर्ण स्वार्थपरता से भरा जीवन भर्त्सनीय एवं घृणास्पद माना जाता था। सन् 1994 में रूस में भारतीय विद्या के संस्थापक इवान मिनायेव ने कहा था-” भारत के सुदूर अतीत का जितना अधिक पूर्ण और चहुंमुखी अध्ययन हो रहा है, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होता जा रहा है कि प्राचीन विश्व के भाग्य निर्माण में इस दूरवर्ती पूर्वी देश ने कितनी बड़ी भूमिका अदा की । पुरातन मानव के लिए यह एक समृद्ध देश मात्र नहीं था जहां से वह सोना, हाथी दाँत दौर रत्न ले जाता था बल्कि विवेक का देश भी था। विवेक की उपासना की जाती थी। जेरार्ड येकार्टोर ने अपने ग्रन्थ ‘काँस्मोग्राफी” में उन्होंने भारत को ‘सौर नगर’ कहा है जहां के लोग नित्य-प्रति गायत्री महामंत्र की उपासना सूर्य उपासना के रूप में किया करते हैं। उनके अनुसार यह इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि भारत ने मात्र अपनी सम्पन्नता के कारण ही नहीं अपनी आध्यात्मिक चेतना के कारण विरुव को प्रभावित किया है। भारतीय दर्शन , वेद-पुराण, उपनिषद् , सबका लक्ष्य एक है, ‘श्रेष्ठतम की प्राप्ति । यह मात्र बुद्धिवाद के आधार पर नहीं लिखे गए। इनमें प्रतिपादित प्रत्येक तथ्य प्राचीन ऋषिगणों की तम -साधना का निष्कर्ष है चूंकि यह सृष्टि असीम है विचार असीम है अतः किसी भी एक विचार को पूर्ण नहीं माना जा सकता । इसी मूल तत्व को ध्यान में रखकर भारतीय संस्कृति दृष्टिकोण को संकुचित न कर विभिन्न विचारों को प्रकट करने वाली हैं जो भी श्रेष्ठ है उसे आत्मसात् करने वाली है इसी कारणवश यहां की साँस्कृतिक सम्पदा ने प्रत्येक विचारशील को आकर्षित एवं प्रभावित किया है फिर चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। फ्रेंच मनीषी एन्ववेति दू यू पेरो द्वारा अनुवादित उपनिषदों ने जर्मन दार्शनिक शेंलिग और शोपेनहाँवर का भी ध्यान आकृष्ट किया । जिसने इसकी प्रशंसा में कहा-”यह मानव की उच्चतम बुद्धि का प्राकट्य है और उसने इस औषनिषदिक वाक्य को ग्रहण किया-’ब्रह्मविद् बह्मोव भवति’- अर्थात् ब्रह्म को जान लेने वाला ब्रह्म की हो जाता है वर्ष 1789 में सर विलियम जोम्स ने कालिदास की अमरकृति , अभिज्ञान शाकुन्तलम् का अंग्रेजी अनुवाद किया जिसको इतनी लोकप्रियता मिला कि बीस वर्षों से कम अवधि में इसके पाँच अँग्रेजी संस्करण निकल गए। 1891 में विरुवयात्री एवं क्रान्तिकारी विचारक जार्ज फाँर्स्टर द्वारा इसका जर्मन रूपांतरण हुआ। जिससे हर्डर एवं गेटे जैसे व्यक्ति भी प्रभावित हुए । श्लेगल ने स्पष्ट घोषणा ही कर दी कि विश्व साहित्य का सही इतिहास भारतीय साहित्य के बिना नहीं लिखा जा सकता।

यूरोपीय विद्वान मैक्समूलर की भारत भक्ति तो प्रसिद्ध ही हैं उन्होंने अपने जीवन का अधिकाँश भाग भारतीय विद्याओं को पढ़ने ओर उसे प्रकाशित करने में लगाया उनके द्वारा संपादित ‘सैक्रेड बुक ऑफ द ईस्ट’ ग्रन्थ माला वेदों का भाष्य एवं इण्डिया व्हाट इट कैन दीच अस‘ जैसी पुस्तकें इसका प्रमाण है भारतीय संस्कृति के महान उद्गाता स्वामी विवेकानन्द जब उनसे इंग्लैण्ड में मिले तो उन्होंने स्वामीजी से कहा-भारत मेरे स्वप्नों का देश है। यहां के साँस्कृतिक अन्वेषण की राह दिखाई हैं

जर्मन विद्वान जोहान हर्डर ने अपनी कृति ‘आइडियाज आफन ए फिलॉसफी आफ द हिस्ट्री ऑफ मैनकाइण्ड’ में लिखा है कि मनुष्य जाति के उद्गम की खोज भारत में करनी चाहिए जहां सरलता शक्ति और विनय जैसे सद्गुणों के साथ बुद्धि ने सर्वप्रथम स्वरूप ग्रहण किया। यदि स्पष्ट कहा जाय तो उसकी समता करने को यूरोपीय जगत की जड़ तो उसकी समता करने को यूरोपीय जगत की जड़ दार्शनिकता में कोई भी वस्तु नहीं है।

रामायण में वर्णित पारिवारिक आदर्श एवं जीवन मूल्य भारतीय जनमानस के लिए सदा से अनुकरणीय रहे है पारिवारिक विघटन की आग में जल रहा पश्चिम अशान्ति एवं तनाव से संत्रस्त है। वे भारतीय साँस्कृतिक विरासत को गहराई से समझने के लिए प्यासे हैं मानवीय मन के आध्येता कार्ल गुस्ताव जुँग ने कहा है “इनको अभी तक यह ज्ञान नहीं है कि जहां हम अपनी तकनीकी क्षमता के सामने पूर्वी देशों के देय समझते हैं वही प्राच्य जगत अपनी मनोवैज्ञानिक उपलब्धियों में हमारी पहुँच से बहुत आगे हैं भौतिक दृष्टि से जहाँ हम प्राच्य जगत से बहुत आगे हैं वहां हमारे आत्मिक उत्थान का मार्ग भारत देश ही प्रशस्त करेगा।

श्लेगल का मत है -” यदि कोई सर्वमान्य भारतीय संस्कृति के मूल में निहित उत्कृष्ट दैवी भावना को समझ लेता है, तो जिसे हम यूरोप में धर्म की संज्ञा देते हैं वह इस नाम के उपयुक्त नहीं। जिस प्रकार कला का अध्ययन करने के लिए इटली जाना आवश्यक है, उसी प्रकार प्रत्येक धर्मान्वेषी को भारत जाना चाहिए। वहां कुछ ऐसे धर्म के अंश अवश्य मिलेंगे, जिनके लिए यूरोप में भटकना व्यर्थ है। “ भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि शास्त्र के रूप में गीता के बारे में उसे कहा’- “एक गम्भीरतम एवं उत्कृष्टतम वस्तु जिस पर संसार गर्व कर सकता है।”

भारत की सांस्कृतिक विरासत से अनुदान पाने वाले वालों में अरब पीछे नहीं रहा। यहाँ के निवासियों ने भारत से वेदान्त , ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायन और प्रशासन का ज्ञान प्राप्त किया। टाइरस ने अपने ग्रन्थोँ में उल्लेख किया है - सूफी मत के विचारों और पवित्र रीतियों के धार्मिक स्वरूप में बौद्ध एवं वेदान्त दर्शन का पर्याप्त योगदान रहा। चौथे खलीफा का मत था-” भारत में ही सबसे पहले किताबें लिखी गयी। और बुद्धि एवं ज्ञान का प्रसार भी यहां से हुआ। अरब विजितों की संस्कृति अपने में मिलाने के अभ्यासी थे उनके भारत के प्रति सम्मानजनक उद्गारों को असाधारण ही कहा जाएगा। खलीफा उमर को बताया गया था कि भारत की नदिया मोती है उसके पहाड़ लाल और पेड़ सुगन्धित है। फिर भी उसने भारत पर आक्रमण करने से इन्कार कर दिया। क्योंकि वह भारत को ऐसा देश समझता था, जहां विचारों एवं धर्म की पूर्ण स्वतन्त्रता है । जहाँ हिन्दू एवं मुसलमान अपने -अपने धर्म का आजादी से पालन कर सकते हैं। तभी तो अब्दुल फजल ने आइना ए अकबरी में लिखा है- “भारत के मुसलमानों को अपने को भारतीय महसूस करने में फर्क होता है

संस्कृति ज्ञान का यूरोप में प्रचार करने वाले मनीषी सर विलियम जोन्स ने लिखा है -” मैं हिन्दू नहीं हूं पर हिन्दुओं के सिद्धान्तों की मोहकता ने मुझे उन्हें अपनाने के लिए विवश किया है उनके इस कथन को मैं पूर्णतया स्वीकार करता हूं। भविष्य में सबसे अच्छे एक अतुलनीय, विवेकपूर्ण पवित्र और मनुष्यों को पापमुक्त करने वाले युग का समारम्भ होगा, जो अवश्य अंतहीन दण्ड व्यवस्था की भयावह आशंकाओं से श्रेष्ठ है।

अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति को विश्ववारा कहा गया हैं ‘विश्ववारा ‘ शब्द का अर्थ होता है- विश्वकृणोतीति- विश्ववारा अर्थात् जो समस्त संसार द्वारा वरण की जा सके- स्वीकार की जा सके वह विश्ववारा । दूसरे शब्दों में इसे सार्वभौम भी कह सकते हैं। संस्कृति के लिए दूसरा शब्द ब्राह्मण ग्रंथों में ‘सोम’ आना है योग क्या हैं ? अमुतम् वै सोमः (शतपथ ) अमृत ही सोम है अमृत क्या है? ज्ञान और तप से उत्पन्न हुआ आनन्द इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तात्पर्य उस श्रद्धा से है जो ज्ञान और तप की विवेक युक्त सत्प्रयत्नों की ओर हमारी भावनाशीलता को अग्रसर करती है इस संस्कृति के जब जहां जितनी मात्रा में अपनाया है। यहां उतनी ही भौतिक समृद्धि और आत्मिक विभूति का अनुभव उम्वदन किया गया है।

ऐसा नहीं है कि भारतीयों के नैतिक आदर्श अन्य लोगों से बहुत भिन्न है। परंतु भारतीय संस्कृति की एक महान विशेषता रही है कि उसने मानवीय व्यवहार के भूतपूर्ण बनाए रखने के लिए जंग दिये भले ही इसके लिए कुछ भी क्यों न बलिदान करना पड़े इसी भाव से अनुप्रेरित महात्मा गांधी की दृष्टि से स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण अहिंसा थी वे कहते थे मनुष्य समाज और राष्ट्र की एक इकाई है आज मानवीय व्यक्तित्व खंडित हो रहा है राजनैतिक प्रयत्नों से एकता स्थापित होना सन्देहास्पद है जब तक स्वयं का सुधार कर व्यक्तित्व में समग्रता नहीं लायी जाएगी तब राष्ट्र के सुधार और प्रगति का स्वप्न साकार नहीं होगा । नेक बने बिना राष्ट्र एक कैसे बनेगा। अपना सुधार कर लेने पर राष्ट्र अपने आप सुधर जाएगा।

,भारत में राष्ट्रीयता राज्य में नहीं संस्कृति में है। इसीलिए अनेक जनपदी, राज्यों भाषाओं और जातियों के होते हुए भी भारत एक राष्ट्र है पश्चिम में राष्ट्र एवं राज्य का एक ही अर्थ है अतः यहां नेशनल स्टेट ( राष्ट्र राज्य ) कहा जाता है। भारत में राष्ट्रीयता संस्कृति पर आधारित होने के कारण राष्ट्र को राज्य से उच्च स्थान दिया गया हैं वही आधार भविष्य में समस्त विश्व को एक सूत्र में पिरो दे तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए । यथार्थ में संस्कृति पर आधारित राष्ट्रीयता ही देश को बलवान बनाती हैं इस समय यूरोप भाषा पर आधारित छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटा हुआ हैं यूरोप के देश भी समान संस्कृति पर आधारित राजनैतिक इकाई का सपना सँजो रहे हैं अब अधिकाँश यूरोपियनों की इच्छा है, भारतीय संस्कृति के राष्ट्रवाद के आदर्शों पर आधारित राजनैतिक इकाई बने। यूरोपीय समुदाय की स्थापना इस दिशा में एक शुरुआत है

भारतीय संस्कृति की अपनी अनेकों अनोखी विशेषताएं है सच तो यह है कि ‘संस्कृति‘ शब्द के साथ जुड़ी हुई विशेषताओं को प9रा करने में समस्त कसौटियों पर कसे जाने पर खरी सिद्ध होने में एक भारतीय संस्कृति ही समर्थ है। अन्रु संस्कृतियों तो मात्र ‘सभ्यता’ है। सभ्यता किसी देश काल एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विनिर्मित की जाती और उसी सीमा उतने ही दायरे में सीमित रहती हैं हर परिस्थिति एवं देश -काल के लिए समान रूप से उसका उपयोग नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें सैद्धान्तिक क्रम व्यवहारिक तथ्य अधिक होते हैं व्यवहार तो ऋतुओं के परिवर्तन के साथ ही बदल जाता है आयु का हेर-फेर भी व्यवहार बदलने को विवश कर देता है ऐसी दशा में व्यवहार व्यवस्थाओं की सधमता के आधार पर बनी हुई सभ्यता सार्वदेशिक अथवा सर्वकालीन हो ही कैसे सकती है। अंग्रेजी अथवा अरब की सभ्यता भारत के उपयुक्त बैठ सकती हैं इसमें सन्देह है।

भारत की साँस्कृतिक सम्पदा महान ही नहीं बेजोड़ भी हैं उसके आचरण , व्यवहारों के विशुद्ध रूप को देखें-मध्यकालीन विकृतियों को घुसपैठ को उसमें से हटा दे तो निःसन्देह वह व्यवहार व्यवस्था भी उतनी उच्च कोटि की सिद्ध होगी कि वैयक्तिक व्यवहार और सामाजिक संगठन की परिष्कृतिक शैली सामने आ जाय और हम उन जंजालों से बच जाए जो व्यष्टि और समष्टि को उद्विग्न, उन्मत्त बनाकर विनाश की आरे धकेलती चली जा रही हैं साँस्कृतिक उत्कृष्टता का तो कहना ही क्या उसे मानवीय ही नहीं दैवी संस्कृति भी कह सकते हैं मानव को ईश्वरत्व की दिव्यता प्रदान कर सकने की सारी संभावना उस दार्शनिक ढाँचे में विद्यमान है जिन्हें किसी समय भारतीय संस्कृति के मान से पुकारा जाता था और अब यदि वह शब्द किसी को अरुचिकर लगे, तो उसका नाम, विश्व संस्कृति भी दिया जा सकता हैं

धर्म, अध्याय, ईश्वर, जीव, प्रकृति, परलोक, पुनर्जन्म, स्वर्ग , नरक कर्म-अकर्म, प्रारब्ध, पुरुषार्थ, नीति, सदाचरण प्रथा-परम्परा , शस्त्र , दर्शन आदि मान्यताओं के माध्यम से इस संस्कृति की मान्यताएँ मनुष्य को चरित्रवान , संयमी, कर्तव्यपरायण , सज्जन, विवेकवान, उदार, और न्यायशील बनने की प्रेरणा देती है। सबमें अपनी आत्मा समाया देखकर सब के साथ अपनी पसन्दगी जैसे सौम्य सज्जनता भरा व्यवहार करना सिखाती है। और बताती है कि भौतिक सफलताएँ तथा उपलब्धियाँ न मिलने पर भी विचार एवं कर्म की उत्कृष्टता के साथ जुड़ी हुई दिव्य अनुभूति मात्र का अवलम्बन करके अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में भी आनन्दित रहा जा सकता है। अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की प्राथमिकता, आलस्य एवं अवसाद का अन्त और प्रचण्ड पुरुषार्थ में निष्ठा अपने लिए कम दूसरों के लिए ज्यादा, यही तो भारतीय संस्कृति के मूल आधार है , जिन्हें शस्त्र और पुराणों के विभिन्न कथोपकथनों द्वारा अनेक पृष्ठभूमियों में प्रतिपादित किया गया है। यह मनुष्य को पूर्ण बनाने का एक नृतत्वविज्ञान, मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र और समाजविज्ञान की एक परिष्कृत एवं समन्वित चिन्तन प्रक्रिया है, जिसे इसके अन्वेषकों के नाम से भारतीय संस्कृति कहा गया है। इसकी इसी उत्कृष्टता एवं विशेषता को स्वीकार करते हुए भारत में पोलैंड के राजदूत मार्या वुस्को ने कहा था-” भारत और भारतीय संस्कृति ने मेरे लिए दर्पण का काम किया है जिस तरह दर्पण के सामने खड़े होकर आदमी अपने को देखता पहचानता और अपना मूल्यांकन करता है उसी तरह भारत आकर मैंने स्वयं को समझा और पहचाना है और स्वयं को समझा और पहचाना है। स्वयं सुधारने -संवारने को कोशिश की है। इसके इसी निर्दोष स्वरूप स्वीकारने , अपनाने का आह्वान करते हुए साने गुरुजी के शब्द है-” मैं उत्कृष्टतापूर्वक संस्कृति का पालन प्रकाश मिले। इसे धारण कर सभी तेजस्वी हो। यह संस्कृति ज्ञानमय है, संग्राहक है, कर्ममय है । यह संस्कृति सभी को अपने निकट लेगी नए नए प्रयोग करेगी, अविरत उद्योग करते रहेगी। भारतीय संस्कृति का अर्थ है। सर्वांगीण विकास, सबका विकास। भारतीय संस्कृति की आत्मा छुआछूत को मानती नहीं, हिन्दू मुसलमान को जानती नहीं। यह प्रेमपूर्वक और विश्वासपूर्वक सबका आलिंगन करके ज्ञानमय और भक्ति कर्म का अखण्ड आधार लेकर माँगल्य सागर की ओर सच्चे मोक्ष सिन्धु की ओर ले जाने वाली संस्कृति है॥”

भगवान की इच्छा एवं समय का आह्वान है कि हम सब उसकी इस सृष्टि को इस महान संस्कृति के सिद्धान्तों के अनुसार अधिक सुन्दर, अधिक सूखी, अधिक समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उस परम प्रभु का हाथ बटाए। अपनी बुद्धि क्षमता और विशेषता से अन्य पिछड़े हुए जीवों की सुविधा का सृजन करें और परस्पर इस तरह का सद्व्यवहार बरते जिससे इस संसार में स्वर्गीय वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे।

भारतीय संस्कृति के उपासकों को महान यात्रा अनादि काल से आरम्भ हुई हैं व्यास-वाल्मीकि, बुद्ध , महावीर शंकराचार्य, रामानुज, तुकाराम , नानक, कबीर एवं महात्मा गांधी, महर्षि अरविन्द जैसी महान विभूतियों ने इस यात्रा को आगे बढ़ाया है। आइए हम छोटे-बड़े सब इस पावन यात्रा में सम्मिलित हो। आइए सब कोई आइए। आज भारतीय संस्कृति के ये सारे सत्पुत्र आप सबको, समूची विश्व मानवता को पुकार रहे है। यह पुकार जिसके हृदय तक पहुँचेगी वह धन्य होगा।


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