उद्धव स्वार्थपरता की पराकाष्ठा है यह

December 1996

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बढ़ती स्वार्थपरता हमें कहा ले जाएगी एवं किस हद तक संवेदना-शून्य बनाएगी यह एक ज्वलंत प्रश्न है इस बारे में आज ही विचार करना चाहिए और निर्णय लेना चाहिए कि हम क्या करें सम्पूर्ण समाज को पतन के गहरे गर्त में धकेल दे या उत्थान के शिखर पर प्रतिष्ठित कर उसका गौरव बढ़ायें।

हमारी एक मौलिकता है हम अपनी आध्यात्मिकता के कारण सम्पूर्ण विश्व में पृथक पहचाने जाते हैं। आस्तिकता और आदर्शवादिता हमारी नस -नस में धुली हुई है। कर्तव्यों के प्रति हम पूर्ण निष्ठावान है ईमानदारी हमें विरासत में मिली है। धार्मिकता में हम गहरी आस्था रखते हैं सेवा हमारी आत्मा है और साधना उसकी अनिवार्यता, स्वयं गिरकर भी दूसरों को सहारा देना इस भूमि की विशिष्टता रही है। हम भले ही हानि सह ले पर दूसरों को लाभान्वित करना हमारा स्वभाव है। सामाजिकता के प्रति हम सजग है और उच्च नैतिक मूल्यों की स्थापना हम सबका लक्ष्य है?

इन सब विशिष्टताओं के रहते समाज की अवनति ओर अनैतिकता में वृद्धि एकदम अकल्पनीय है पर यदि ऐसा होने लगे, तो यही कहना पड़ेगा कि हम एवरेस्ट की ऊंचाइयों से उपत्यिका की खाई में आ गिरे और वह गौरव गवा बैठे तो उत्तराधिकार में मिला था। यदि ऐसा नहीं , तो फिर हमारी अन्तरात्मा इस कदर मूर्च्छित क्यों पड़ी है? क्यों हम नीति-अनीति का भेद नहीं कर पा रहे है अपने तुच्छ स्वार्थ और थोड़े से लाभ के लिए किस कारण ईमान बिकते देखे जाते हैं हमारी समझदारी कहा खो गई है पराक्रम कैसे सो गया है? परोपकारी की भावना को किस रत्नाकर ने लूटा है? अकर्मण्यता का धुन कैसे लग गया। करुणा क्यों नहीं चीत्कार कर पा रही है। ? उपासना निष्फल क्यों होने लगी? पत्थर को प्राणवान बनाने वाली श्रद्धा कहा गुम हो गई ? भागीरथी और शुनःशपुओं की यह धरती क्या अब बांझ हो जाएगी? कर्तवरुो की बलि चढ़ाकर अधिकार की मांग को उचित कैसे ठहराया जाय? व्यक्तिगत स्वार्थ को लेकर सम्पूर्ण राष्ट्र के स्वास्थ्य के साथ समझौता कर पाना किस प्रकार सम्भव हो?

इन्हीं विसंगतियों के बीच जन्म लेती हैं अवांछनीयताएं एवं तरह-तरह की सामाजिक समस्याएं इन्हीं में से एक जो इन दिनों अत्यधिक चर्चा का विषय बनी हुई है। वह है।’-सिंथेटिक दूध-। आखिर यह है क्या? संक्षेप में हम तो इसे धनलोलुप लोगों के वैभव कमाने की उद्दाम लिप्सा का एक कुत्सित तरीका कह सकते हैं यह वास्तव में यूरिया खाद, खाद्य, तेल और डिटरजेंट पाउडर (वाशिंग पाउडर) का एक सम्मिश्रण है। विशेषज्ञों के अनुसार यों तो इन तीनों को एक विशेष अनुपात में मिलाकर दूध जैसे श्वेत रंग का मिश्रण प्राप्त करना तकनीकी रूप से सम्भव है पर उसमें आछित स्वाद का अभाव होता है। कदाचित् इसी कारण से इन धन्धे में लिप्त लोग एकदम कृत्रिम दुग्ध तैयार करने की बजाय ऐसे मिश्रण में थोड़ी मात्रा प्राकृतिक दूध की मिलाना ज्यादा पसंद करते हैं इसमें एक बड़ फायदा यह होता है कि उससे दूध की मात्रा बढ़ जाती है और साधारण तरीके से इस खतरनाक मिलावट का पता भी नहीं लग पाता ? यहां एक प्रश्न यह उठ सकता है कि यदि दूध का परिमाण ही बढ़ाया था तो इतने घातक रसायनों का उपयोग क्यों? वह तो परम्परागत तरीके से पानी मिलाकर भी बढ़ाया जा सकता है फिर जन स्वास्थ्य से यह खिलवाड़ किस कारण? उत्तर दूध के भाव ओर गुणवत्ता निर्धारण के वर्तमान मानदण्ड में निहित है।

सर्वविदित है कि बढ़िया दूध की पहचान का एक आसान और सर्वसामान्य उपाय यह माना जाता है कि उसमें मलाई अथवा क्रीम किस परिमाण में उपलब्ध है? उबालने के बाद यदि मोटी मलाई पड़े तो उसे अच्छा मान लिया जाता है यह सर्वसाधारण में प्रचलित गुणवत्ता जांच की विधि हुई डेयरी फार्मों में यह निर्धारण क्रीम की मात्रा पर आधारित होता है जिससे जितना अधिक मक्खन निकलें उसे उतना अच्छा स्वीकार लिया जाता है वर्तमान संकट का मूल कारण यहीं निहित है दूध उत्पादकों को जब यह महसूस हुआ कि पतली मलाई अथवा कम मक्खन के कारण उनका दूध अपेक्षाकृत सस्ते भाव में बिका है तो इसके समाधान के लिए उनने दिमाग मस्तिष्कों ने इसके कामचलाऊ उपाय ढूँढ़ निकालें कइयों ने उसमें ब्लाटिंग पेपर मिलाना आरम्भ किया जबकि अनेक ऐसे थे जिनने कुछ परिष्कृत तरीका अपनाते हुए अरारोट , सिंघाड़े का आटा जैसी वस्तुओं का सहारा लिया। कुछ ने इससे भी आगे बढ़कर सुअर की चर्बी मिलाना शुरू किया और उससे मिठाइयां बनने लगीं। किन्तु उन सब धन्धेबाजों ने यह अनुभव किया कि समस्या का यह कोई वास्तविक हल नहीं है उसी शृंखला में कुछ विकसित बुद्धि वालों ने यह ‘सिंथेटिक दूध’ बना डाला। इससे एक साथ उनकी दोनों कठिनाइयां सुलझ गई। दूध की मात्रा बढ़ गई और वसा एवं ठोस गैर वसा दोनों तत्वों की भी साथ−साथ बढ़ोत्तरी हो गई। बस , यही उत्पादन चल पड़ा सो चल पड़ा अब क्योंकर रुके। यों लोगों की बढ़ती जागरुकता के कारण सम्भव है इस निर्माण की कुछ कमी आये, पर फिर भी इसे पूरी तरह समाप्त कर पाना शायद सरकार और कानून के लिए भी शक्य नहीं होगा कारण कि इसका उत्पादन जिस विकेन्द्रित ढंग से हो रहा है। उस स्थिति में सरकार के लिए उस पर पूर्ण रूप से रोक लगा पाना अथवा नियंत्रित करना अत्यंत मुश्किल होगा। इस प्रज्ञापराध के कारण देश को काफी घाटा उठाना पड़ सकता है। और मिल्क पाउडर का निर्यात लगभग ठप्प हो गया है अनेक देशों ने इसके आयात पर पाबन्दी लगा दी है कारण स्पष्ट है।

इस प्रकार के अनैतिक धंधे में अक्सर बड़े उत्पादन की मुनाफा कमाने के लिए संलिप्त होते हैं उनका दूध प्रायः डेयरियों में जाता है जहां उनसे कई प्रकार के उत्पाद तैयार किया जाते हैं इनमें एक मिल्क पाउडर भी है जब सिंथेटिक दूध का यह प्रकरण प्रकाश में आया तो आयातक चौकन्ने हो गये। उनने उसकी शुद्धता ओर प्रामाणिकता को परखने के लिए उसका रासायनिक विश्लेषण किया तो उसमें यूरिया तथा डिटरजेंट दोनों ही रसायनों की उपस्थिति पायी गई । इसके बाद से भारत से उसके आयात पर रोक लगा दी गई है तब से लेकर अब तक देश के प्रमुख गोदामों में इसका विशाल अम्बार लग गया है जनसामान्य अब इस डिब्बे बन्द दूध को खरीदने ओर उपयोग करने से हिचकते हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसके प्रयोग के प्रति सावधान किया है आरे कहा है कि इस नकली दूध के सेवन के कई तरह की शारीरिक जटिलताएं एवं व्याधियां पैदा हो सकती है शिशुओं, गर्भवती महिलाओं, वृद्धों, रोगग्रस्तों को इससे विशेष रूप से सतर्क रहने की सलाह दी गई है सामान्य स्वास्थ वाले भी इसके कुछ दिन के सेवन से गम्भीर रूप से बीमार हो सकते हैं ऐसा उनका मत है।

इस कृत्रिम दुग्ध प्रकरण से विदेशी दूध उत्पादकों को काफी लाभ पहुंचा है। अब वे खुलकर उन देशों को अपना उत्पाद निर्यात करने लगें है जहां पहले भारतीय माल की खपत होती थी। पश्चिमी देशों के यह उत्पाद पूर्णतः निरापद हैं ऐसा कहना उचित नहीं होगा पाश्चात्य राष्ट्र ज्यादा-से-ज्यादा उत्पादन लेने ओर अधिक - से अधिक धन कमाने के लिए नये-नये तरीकों का इस्तेमाल करते हैं अभी पिछले ही दिनों इंग्लैण्ड में ‘मैड काउ डिजिज’ का मामला प्रकाश में आया है वहां गायों के शरीर का मास बढ़ाने के लिए चारे के साथ उन्हें भेड़ों की आंतें खिलायी जाने लगी। इससे कम चारे में ही उनका शरीर मांसल तो बनने लगा पर वे एक घातक मस्तिष्कीय रोग का शिकार होने लगी। मवेशियों में पागलपन की यह घटना जब बड़ी संख्या में सामने आयी तो दूसरे यूरोपीय देशों ने वहां के गो-मास के आयात पर यह कहकर निषेध लगा दिया कि इससे उपभोक्ताओं को भी उक्त व्याधि हो सकती हैं अन्ततः इस रोग से ग्रस्त समस्त गायों को मारने को फैसला यहां की सरकार को लेना पड़ा यह कितना न्यायसंगत है यह विवाद का प्रसंग हो सकता है किन्तु मनुष्य की अपनी करनी ने उसके किस सीमा तक कसाई बन दिया यह स्पष्ट ही दीख पड़ता है।

दूध उत्पादन की संदर्भ में भी उनने ऐसी ही नवीन तकनीक का सहारा लिया। खुराक बढ़ाये बिना दूध की मात्रा को संवर्धित करने के लिए वहां हारमोनों का प्रयोग किया जाने लगा। इनका इंजेक्शन से उत्पादन 10-25 प्रतिशत तक बढ़ तो गया, पर इसे सर्वथा हानि रहित कहना ठीक नहीं होगा।

ऑक्सीटोसीन एवं सोमेटोट्रोफिन (बी0 एस॰ टी0 ) नामक जो दो सर्वाधिक चर्चित हारमोन इसके लिए प्रयुक्त होते हैं उनकी भी कुछ मात्रा इस प्रकार के दूध में वर्तमान होती है शरीरशास्त्रियों का विचार है कि इस हारमोन युक्त दूध के सेवन से तरह-तरह की अनियमितताएं आरम्भ हो सकती है। और व्यक्ति बीमार पड़ सकता है ऐसी दशा में सामान्य लोगों के लिए अब एक सरल विकल्प यही शेष रह जाता है कि सोयाबीन अथवा मूंगफली से दूध बनाकर इस स्थिति का सामना किया जाय। पौष्टिकता की दृष्टि से यह प्राकृतिक दूध से किसी भी प्रकार कम नहीं ऐसा आहारशास्त्रियों का मत है सवाल यहां विकल्पों की खोज का नहीं प्रश्न यह उठता है कि अच्छे बीज और अच्छी जमीन के बावजूद फसल उत्तम क्यों नहीं हो पाती । हमें उत्तराधिकार में सशक्त आध्यात्मिक पृष्ठभूमि मिली है। हमको उस संस्कृति के अनुगमन का सौभाग्य प्राप्त है जिसकी देव संस्कृति कहते हैं फिर क्या कारण है कि उदात्त तत्व हमारे अन्दर से पनप नहीं पाते? गम्भीर विचार मंथन से इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि आवश्यक निराई-गुड़ाई और साफ - सफाई की सामयिक आवश्यकता की पूर्ति न न होने से ही भूमि झाड़ -झंखाड़ों से भर गई है और फसल आशा के अनुरूप न हो सकी। यह चिन्ता की विषय है जिस समय सर्वोपरि उत्कृष्टता की संसार की कहती आवश्यकता थी और जब सम्पूर्ण विश्व आस्था संकट के इस भयानक दलदल से उबरने के लिए दृष्टि हमारी ओर लगाये बैठा हो ऐसे वक्त मही उस भंवर में फंसकर अस्तित्व गवाने जैसी स्थित में आ जाए तो इसे दुर्भाग्य ही तो कहेंगे। इस सौभाग्य-सुख में बदलने ही पड़ेगा ओर ऐसा कुछ कायाकल्प अपने अन्दर घटित करना पड़ेगा , जिसमें देखने वालों को आकृति में भले ही कोई अन्तर न दीखें पर प्रकृति ऐसी प्रतीत हो जिसे दिव्य स्तर के अनुदान-वरदान की फल श्रुति कही जा सके।

हम इक्कीसवीं सदी के द्वार पर खड़े है उज्ज्वल भविष्य दस्तक दे रहा हैं निर्णय हमें करना है कि घोर पतन की इस महत्व मूर्च्छा में पड़े-पड़े अपने आपे को गवा दे या इससे उबर कर कुछ ऐसा उपक्रम करें, जो सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र के लिए गर्व और गौरव का विषय बनें।


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