बुद्धिवान बने कि प्राज्ञवान

December 1996

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शास्त्रकारों ने एक बड़े रहस्य का उद्घाटन निम्न शब्दों के माध्यम से किया है।

बुद्धेबुद्धिमताँ लौके नास्त्यगम्य कि किंचन। बुद्ध्या यता हता नन्दाश्चाणक्यनासिपाणया!!

अर्थात् -” बुद्धिमानों की बुद्धि के समक्ष संसार में कुछ भी असाध्य नहीं है। बुद्धि से ही शस्त्रहीन चाणक्य ने सशक्त नन्दवंश का नाश कर डाला।

मनुष्य के हाथ पैरों की अर्थात् मानवीय शरीर की स्थूल शक्ति अन्य पशुओं के मुकाबले में ज्ञी गयी-बीती है। यदि मनुष्य उनसे कुश्ती लड़ने लगे, तो निश्चय ही वह शारीरिक ताकत में हार मानेगा। शारीरिक शक्ति प्रत्यक्ष में एक सीमा तक ही फायदेमन्द सिद्ध हो सकती है लेकिन मानवीय उर्वरा बुद्धि की ताकत अति व्यापक है वह दूर तक भी प्रभाव डाल सकती है। शास्त्रकार कहते हैं “ दीर्घ गुस्तितों बाहू याभ्या दूरहिनस्ति सः। “अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति की भुजा बड़ी लंबी होती है जिनकी ताकत से वह दूर तक वार कर सकता है महर्षि व्यास ने कहा है “ बुद्धि श्रेष्ठानि कर्माणि।” अर्थात् मनुष्य की बुद्धि से विचारपूर्वक किये गये कार्य ही श्रेष्ठ होते हैं।

बुद्धि मनुष्य के लिए दैवी विभूतियों में उच्चकोटि का वरदान है इसके सहारे मनुष्य अपने जीवन को अधिक उन्नत , समृद्ध और प्रभावशाली बना सकता है समाज ओर इस समुन्नत संसार में जो कुछ मनुष्य द्वारा किया हुआ अद्भुत काम मिलता है वह उसकी बुद्धि की ही देन है कहावत है-” बुद्धिमान का एक दिन मूर्ख के जीवनभर के बराबर होता है। “ इसका तात्पर्य यह है कि समझदार आदमी अक्ल के ठीक उपयोग से वह काम कर डाला है। जो साधारण आदमी जिन्दगी भर नहीं कर पाते।

स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि हमें आज से, अभी से जी अपनी बुद्धि का विकास करना शुरू कर देना चाहिए बुद्धि को विकसित , संस्कारी ओर समर्थ बनाने व मनुष्य को अधिकाधिक आगे बढ़ने ओर बड़ी-बड़ी उन्नति करने की इच्छा पैदा होती है। जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती है अच्छाई बुराई , अपने हानि -लाभ और उन्नति अवनति का भेद आता जाता है। बुद्धि को अधिकाधिक प्रौढ़ व्यापक ओर परिपक्व बनाने के लिए ज्ञान की साधना और विचारों के अर्चना साधना के क्षेत्र में हम जितना ही नये विचारों को मन में रखना ओर फिर अपने ढंग से सोचना शुरू करेंगे उतना ही हमारी बुद्धि का विकास होगा।

बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने के लिए सबसे बड़ी जरूरत यह है कि हमारे अपने मन में नये ज्ञान को ग्रहण करने की बात सोचने और अपनी बुद्धि को बढ़ाने की तीव्र और उत्कट लगन होनी चाहिए। सीखने के लिए मानव जाति का संचित अब तक का ज्ञान कुछ कम नहीं है नाना क्षेत्रों में मानवी बुद्धि अर्जित ज्ञान का अथाह भण्डार भरा पड़ा है। एक-एक विषय पर असंख्य पुस्तक मौजूद हैं ढेरों पत्र-पत्रिकाएं प्रतिदिन छप रही है इसके अतिरिक्त संसार की खुली पुस्तक- इस समाज से हर समय कुछ न कुछ सीखने को मिलता ही रहता है दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने की लालसा होनी चाहिए।

दूसरी बात है दूसरों को सिखाने की । स्वयं अर्जित यह स्वाध्याय से एकत्रित ज्ञान को दूसरे को सिखाने से हमारी बुद्धि का विकास होता है वस्तुतः दूसरों के माध्यम से ही जो कुछ सीखा हुआ है वह परिष्कृत होता है ।

ज्ञान कहीं से किसी से किस मूल्य पर मिले लेना ही अच्छा है सीखने के क्षेत्र में दूसरों के विचारों से या दृष्टिकोण से परहेज नहीं करना चाहिए। जिससे हम सीख वही गुरु है ऐसे अनेक गुरु है ऐसे अनेक गुरु हो सकते हैं। अपने उदार रहे है हमारी परंपरा के अनुसार ज्ञान ही प्राप्ति में हमने किसी से परहेज नहीं किया है संसार भर के विचारों का हमने प्रयोग किया और जो उपयुक्त लगा , उसे स्वीकार करने में आनाकानी नहीं की बुद्धि की साधना करने वाले की लिए अपनी ग्रहण शक्ति को एकांगी नहीं बनाना चाहिए। अपने आपको किसी एक ही विचारधारा में कैद नहीं कर लेना चाहिए । जो ऐसी भूल कर बैठते हैं उनकी बुद्धि भी एकाँगी बन जाती है। वह नाना दिशाओं में विकसित नहीं हो पाती इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध विचारक बेकने ने ठीक ही कहा है-” ईश्वर ने बुद्धि की कोई सीमा निश्चित नहीं की है ।

सचमुच बुद्धि के साधक के लिए सद्ज्ञान , विवेक ओर सरस्वती की उपासना करने वाले को किसी भी स्थिति में पहुंचकर यह नहीं मान लेना चाहिए कि अब पढ़ाई -लिखाई समाप्त हो चुकी है और अब सीखने जैसी कोई बात नहीं रही है ज्ञान की सीमा नहीं , वरन् वह समुद्र की भांति अत्यन्त और अगाध है उसकी कोई सीमा नहीं है। ज्ञान नित-नूतन विकासक्रम की गोद में पलता है इसलिए बुद्धि विकास और उन्नति की कोई सीमा नहीं हो सकती प्रत्येक पढ़े -लिखे आदमी के लिए नया सीखने को बहुत कुछ शेष रहता है क्योंकि मानव ज्ञान भी बड़ी तेज रफ्तार में बढ़ता ही जाता है जितना मनुष्य इस दिशा में प्रयास करेगा। प्रज्ञा वाक् बनता चला जाएगा।

ज्ञानवर्द्धक की अनेक शाखाएं प्रशाखाएं हैं नये-नये क्षेत्र है बुद्धि को बढ़ाने के लिए सब प्रणालियों में घुसकर देखे। किसी एक संस्था विचार प्रणाली या सम्प्रदाय विशेष से संकुचित निया या क्षेत्र में बंधकर न देखे, जहां-जहां भी सद्ज्ञान के नये स्त्रोत प्रकाश में आये, वहां-वहां ही अपनी बुद्धि को उसमें प्रवेश करना चाहिए। अध्यात्म, संस्कृति आदि अनेक क्षेत्रों में अपनी गति बढ़ाये तो हमारी योग्यता किसी क्षेत्र में कम नहीं रह सकती । हमारा ज्ञानार्जन का क्षेत्र जितना व्यापक होगा उतनी ही हमारी बुद्धि भी विशाल और व्यापक बनेगी। फिर बुद्धि प्रज्ञा का रूप ले लेगी।


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