सुपात्र बने तो दैवी अनुकम्पा बरसे

December 1996

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आत्मोन्नति में अहैतुकी कृपा का प्रावधान है अथवा नहीं? इसका उत्तर यदि एक शब्द में देना हो तो यही कहना पड़ेगा कि है। पर इसके लिए आध्यात्म पृष्ठभूमि का होना नितान्त आशा दुराशा साबित होगी। आये दिन मिलने वाली अभौतिक सहायताओं में सर्वप्रथम इसी बात को परखा जाता है कि हम उसके वास्तविक अधिकारी है कि नहीं पात्रता की परख होते ही अजस्र अनुदानों का क्रम आरम्भ हो जाता है। और सतत् चलता रहता है समय-समय पर ऐसे प्रसंग प्रकाश में आते ही रहते हैं। घटना ज्योति नामक महात्मा की है। उन दिनों इनकी उम्र 12-13 साल की रही होगी। तब वे श्रीहट्ट के मौलवों बाजार में अपने माता-पिता के पास रहते थे। वही के प्रवेशिका विद्यालय में इनकी शिक्षा-दीक्षा चल रही थी।

इन्हीं दिनों वहां के काली मन्दिर में एक आकर्षक युवा संन्यासी आकर निवास कर रहे थे प्रतिदिन शाम होते ही वे अपने सुमधुर कंठ से भजन गाना आरम्भ करते इसमें से ऐसे तल्लीन और भगमग्न हो जाते कि दीखने से ऐसा प्रतीत होता मानों गीत उनके अन्तस्तल से निकल रहे हो । भजन को मधुरता और भाव की तन्मयता से आकृष्ट होकर लोग वहां बड़ी संख्या में इकट्ठा हो जाते । बालक ज्योति भी किसी गीत में बैठकर उसका आनन्द लिया करना।

बालक के ये भजन बड़े मर्मस्पर्शी मालूम पड़ते । इसमें वह इस प्रकार बूध आता जैसे किसी ने सम्मोहन का प्रयोग कर दिया हो । कार्यक्रम जब तक चलता, वहां वही पर डटा रहता। यहां तक कि रात घर आती सभी श्ररता चले जाते फिर भी उसे वही से उठने की इच्छा नहीं होती तबकीमक था इस कारण विवन्त्रता वह उसे भलीभांति समझ नहीं पाता कि आखिर ऐसा क्यों है बस का चेहरा निहारता को आये अभी दे चार दिन ही हुए थे। फिर भी बालक को ऐसा लगता जैसे वे कितने अपने हैं उनसे परिचय न होने पर भी उसके अन्तराल के किसी कोने में यह धारणा उत्पन्न ही गयी थी कि उसके कोई अत्यन्त घनिष्ठ है।

प्रथम दिन भजन समाप्ति के उपरान्त आगन्तुक स्त्रोत अपने-अपने घर चले गये और मन्दिर-प्रेगण में मात्र संन्यासी और बालक रह गये बालक को अब भी बैठा देखकर साधुवेश धारी महापुरुष ने पूछा - “बेटा ! तुम कैसे बैठे हो? घर क्यों नहीं गये?

बालक इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दें सका, मात्र यही कहा कि जाता हूँ पर जाने की इच्छा नहीं होती।

इसके उत्तर में महापुरुष बोले-” आत्मविस्मृति सामान्य मनुष्य की साधारण घटना है इस स्थिति में वह कौन है? कहा से और क्यों आया है? यह भूल जाता है। तुम भी अभी इसी अवस्था में हो। मेरा सान्निध्य तुम्हें क्यों सुखकर प्रतीत होगा, इसे सम्प्रति समझ नहीं पा रहे हो पर आने वाले दिनों में समझ सकोगे। हम दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है इसे तुम नहीं जानते किन्तु मैं जानता हूँ । भजन गाना लोगों को आकृष्ट करना और उपदेश देना यह सब बाह्य निमित्त भर है। आज घर जाओ कल पुनः आना।

इतना कह उसे उसे घर भेज दिया। दूसरे दिन होते ही वह पुनः आकर उपस्थित हुआ । संन्यासी का व्यक्तित्व निस्संदेह आकर्षक था और गायन भी इतना सामर्थ्यवान कि श्रोता को मंत्रमुग्ध करदे पर वह इन्हीं कारणों से वहां खिंचा चला आता अथवा कोई और बात थी। इसका ठीक-ठीक निश्चय नहीं कर पाता। अन्य जानों के आकर्षण का कारण तो संन्यासी की मधुर गायकी थी। पर बालक का आकर्षण उस प्रकार का नहीं था। खिंचाव का यथार्थ कारण क्या था उसे वह समझ नहीं पाता था।

संन्यासी के पास आने - जानें का बालक का नियमित क्रम बना रहा। कई दिनों बाद संन्यासी ने बालक से प्रश्न किया-” क्या तुम ईश्वर को मानते हो? ईश्वर के सम्बन्ध में तुम्हारी क्या धारणा है।?”

बालक ने उत्तर दिया-” ईश्वर है इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है । काली, दुर्गा , सरस्वती, शिव, विष्णु, यह सब ईश्वर के ही रूप है। इन सभी को लोग देवता मानकर पूजा करते हैं इससे अधिक ईश्वर के सम्बन्ध में अन्य कोई धारणा नहीं है?”

एक बालक के लिए ईश्वर सम्बन्धी इससे गम्भीर बाते बता पाना संभव नहीं था। हिन्दू धार्मिक परिवार के वातावरण में ईश्वर और देवी-देवता में विश्वास सहज संस्कार रूप में रहता है बालक ज्योति में भी वह संस्कार मौजूद थे। उन्हीं संस्कारों के वशीभूत होने के कारण उन्होंने वैसा जवाब दिया था।

महापुरुष ने कहा-” तुम्हारे इस उत्तर से मैं संतुष्ट नहीं हूं। ईश्वर को प्रत्यक्ष किये बिना उसके सम्बन्ध में ठीक-ठीक धारणा सम्भव नहीं है। उसमें स्थिति तो दूर की बात हैं मैं तुम्हें एक गुप्त रहस्य का अनुभव कराऊंगा।

इतना कहने के उपरान्त वे मौन हो गये एवं एकटक अपलक भाव से उस बालक को देखने लगे। बालक भी निकट ही स्थिर भाव से बैठा रहा। अकस्मात् आसमान में एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई और इसके साथ ही बालक में प्रवेश कर गई । इस घटना के बाद बालक ज्योति में अद्भुत परिवर्तन दिखलाई पड़ने लगा। एक अवर्णनीय आनन्द और उल्लास से उसकी सम्पूर्ण सत्ता ओत-प्रोत हो गई। उसकी अपनी सत्त जिसका आश्रय लेकर वह हमेशा अपने को ‘मैं- का रूप में प्रयोग करता रहा। वह एक प्रकार से विलुप्त हो गया। इस ‘अहमत्व’ के लोप के साथ उसके हृदय में एक अद्भुत अनुभूति का आविर्भाव हुआ, जिसका वर्णन कर सकना। संभव नहीं उस समय उसकी दृष्टि जिधर और जिसमें पड़ती उधर यही आभास होता जैसे स्वयं ही वहां है पशु, पक्षी कीट, पतंग , वृक्ष लता, जिस किसी भी पदार्थ पर उसकी नजर पड़ती उसी को वह अपना स्वरूप समझता। ऐसा लगता जैसे एक ‘मैं’ ही अनन्त ’मैं’ के रूप में पशु, पक्षी, लता, वृक्षादि का आकार लेकर प्रकट हुए हैं।

ठीक इसी समय मन्दिर प्रांगण में एक बिल्ली आयी। वह मन्दिर में भाँग के लिए रखें दूध के लोभ से वहां आयी थी। बिल्ली के ऊपर नजर पड़ते ही ‘ वह बिल्ली’ है इस प्रकार की अनुभूति हुई। इससे एक पल के लिए वह यह सोचने लगा कि सम्भव है यह उसका मस्तिष्कीय विकार हो । उसी विचार आते ही बालक उस बिल्ली की ओर बढ़ा उसका स्पर्श करते ही वह फिर बिल्ली को देख नहीं सका इसके साथ ही उसने देखा कि यह स्वयं बिल्ली है उस समय उसका भावी संस्कार कुछ क्षण के लिए गायब हो गया था मानव देह से संबंधित सभी भाव तब थोड़े समय के लिए विलुप्त हो गये है। इसके साथ ही बिल्ली के संस्कार और प्रकृति , प्रवृत्ति उनके भीतर जाग उठे। केवल कल्पना और भावना से ही नहीं वरन् वास्तव में वह बिल्ली बन गया था।

यह अवस्था बहुत देर तक बनी रही। कुछ समय पश्चात जब इस भाव का उपशमन हुआ तो पूर्व भ्गव पुनः लौट आया। वह एक 12 वर्षीय बालक है और यहां मन्दिर में संन्यासी की मधुर - स्वर लहरियों से आकृष्ट होकर नित्य प्रति आता है यह सब स्मृतियां मन में तैरने लगी। इस अपूर्व दर्शन और उपरोक्त विवेचन से बालक को ईश्वर -दर्शन सम्बन्धी कुछ आभास मिला और विराट चैतन्य की न्यूनाधिक अपुष्ट धारणा हुई । महापुरुष जितने दिन वहां रहे, उतने दिन बालक ज्योति उनके पास जाता रहा। हर रोज उनकी अनुकम्पा से उसे कुछ न कुछ अलौकिक दर्श होते रहे।

एक दिन संध्या समय संगीत की समाप्ति के बाद और सभी आगत होगी के चले जाने के पश्चात् संन्यासी ने बालक के सूक्ष्म शरीर को आकर्षित करते हुए कहा -” चलो मेरे साथ । “ इतना कहना था कि बालक का अनुगमन करता हुआ चल पड़ा। उसका स्थूल शरीर मंदिर-परिसर में पड़ा रह गया। दोनों आकाश-मार्ग से चल पड़े लम्बी दूरी तय करने के उपरान्त दोनों पर्वतों के मध्य एक समण्पाीक स्थान पर पहुंचे। यह स्थान हिमालय को कोई गहन प्रदेश था।

यहां एक मनोहरी आश्रम एवं मन्दिर था। मन्दिर में एक काली को एक प्रतिमा थी। पास ही एक पहाड़ी नदी बह रही थी। आश्रम साधकों का कोई तपोवन मालूम पड़ता था वहां पहुंचकर वे रुक गये।

उस स्थान को देखकर बालक ज्योति की पूर्व स्मृति जाग उठी और अनायास उसके मन में विचार उठे लगे कि पिछले जन्म में वह यही था। वह वहां क्या करता था, कैसे रहता था, संन्यासी कौन है, उनका उससे क्या सम्बन्ध था, इस स्थान से वह क्यों च्युत हुआ? यह सभी बाते उसकी स्मृति-पटल पर शनैः- शनैः उभरने लगी। इसके उपरान्त वह इस बात को समझ सका कि संन्यासी के प्रति किसी अपरा के कारण ही उसे यह अवस्था प्राप्त हुई और भ्रष्ट होकर पुनर्जन्म लेना पड़ा संन्यासी उसके उद्धार के लिए ही साथ-साथ लोकालय में आविर्भूत हुए हैं। वह यह भी समझ सका कि जो संन्यासी उसे हिमालय स्थित इस आश्रम में लाये है और जिनकी कृपा से उनकी जन्मान्तर की स्मृति जगी है, वे ही उसे पूर्व जन्म के योगी गुरु है। वे उसके अत्यन्त अन्तरंग और घनिष्ठ है, संसार में उनके अवतरण का प्रधान उद्देश्य यही है कि मुझे बालक को ज्ञान प्रदान कर ऊँचा उठाया जाय इन सारी बातों को वे स्वतः हो समझ गये। महापुरुष को बताने की आवश्यकता न पड़ी

आश्रम-दर्शन के बाद जब दोनों मन्दिर में लौटे, तब बालक का सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर में प्रवेश कर गया। इसके पश्चात् वह सूक्ष्म शरीर द्वारा देखे गये सभी दृश्यों का स्मरण करते लगा।

उसने देखा संन्यासी मुस्कुरा रहे है। उनके बिना बताये ही एक प्रकार से अपना सम्पूर्ण परिचय दे दिया था । बालक ने कई बार उनके निवास स्थान के बारे में पूछा था, पर इस बारे में उनने कोई उत्तर नहीं दिया सिर्फ इतना ही कहा कि मैं जहां कही भी रहूं तुम्हें यह जानने की आवश्यकता नहीं किन्तु जब भी तुम्हें मेरी आवश्यकता होगी, मेरी सहायता पाओगे। इसके उपरांत बालक लोक-लोकांतरों की यात्रा करने में सफल हो गया। उस अल्पव्यय में ही उसने अनेक प्रकार के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

पात्रता यदि हो तो अनुकम्पा कही से भी प्राप्त हो जाती है क्षेत्र भौतिक हो या आध्यात्मिक, सर्वत्र योग्यता सब कुछ प्राप्त होता है। अयोग्यों और अपात्रों को तो हर रोज उपेक्षा ही होती है। हम पात्रता विकसित करें सहायता स्वयमेव खिंची चली आयेगी।


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