एक प्रतिभावान अभीष्ट है या कई अनगढ़

December 1996

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परिवार के आकार के संदर्भ में क्या नीति अपनायी जाय? कई-कई संतानें उत्पन्न कर सबको सुयोग्य बनाया जाय अथवा एक पर संतोष किया जाय? इस दृष्टि से यह अध्ययन आवश्यक हो गया था कि इकलौती संतान मूर्ख होती है। अथवा मेधावी क्योंकि कुछ वैज्ञानिकों ने प्रथम संतान की प्रतिभा पर प्रश्न -चिन्ह लगा दिया था किन्तु बाद के शोध निष्कर्षों से जो परिणाम सामने आया , वह इसके सर्वथा विपरीत था।

इस संदर्भ में आस्ट्रिया के जीव- विज्ञानी फ्रेंकसलोवे ने विज्ञान-जगत में तब तहलका मचा दिया जब उन्होंने अपनी एक अध्ययन-रिपोर्ट अमेरिकन एसोसिएशन फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ साईंस’ नामक प्रसिद्ध अमरीकी संस्थान के समक्ष प्रकाशनार्थ भेजी। अपने अध्ययन में उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि प्रथम संतान प्रतिभा की दृष्टि से गई गुजरी होती हे जबकि बाद की प्रतिभाशाली ।उल्लेखनीय है कि सलोवे के उपरान्त इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण अध्ययन पिछले अनेक वर्षों में विश्व के कई वैज्ञानिक संस्थानों ने किया किन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर परिणाम सलोवे के विपरीत हो गया। अब से लगभग दस वर्ष पूर्व स्वीडन के दो मनोवैज्ञानिक सीसाइल आर्नेस्ट तथा जुलियस संगस्ट नेकई वर्षों के अध्ययन के उपरान्त एक पुस्तक लिखी- ‘बर्थ ऑर्डर’ अर्थात् जन्मक्रम ।इसमें उन्होंने इस बात का स्पष्ट खण्डन किया कि जन्म क्रम का प्रतिभा से कोई सम्बन्ध है परन्तु अपने अनुसंधान में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात अवश्य देखी कि यदि संतान इकलौती हो तो उसकी बुद्धि और प्रतिभा सामान्य से कुछ जरूर ऊपर होती है। लगभग ऐसा ही निष्कर्ष कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की मूर्धन्य समाजविज्ञानी ज्यूडिथ ब्लेक निकाला है ब्लेका सलोवे के -जन्म-क्रम’ सिद्धान्त का प्रबल विरोधी माना जाता है। पर ऐसी बात नहीं है कि वे इसके एकमात्र प्रतिपक्षी है वैज्ञानिकों एक बड़ा समुदाय भी उनके साथ है। ब्लेक अपने शोध-निष्कर्ष में लिखती है “जन्मक्रम सिद्धान्त बाह्य दृष्टि से भले ही लुभावना लगता है पर तथ्य की दृष्टि से यह सारहीन है इसमें उस सच्चाई का सर्वथा अभाव विस्तृत अध्ययन में प्रस्तुत किया है उनकी यह टिप्पणी गहन पर्यवेक्षण पर आधारित है। उन्होंने इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों की एक लाख से ऊपर प्रतिभाओं से संपर्क साधा। साक्षात्कार से जो तथ्य सामने सामने आया, वह साक्षात्कार से जो तथ्य सामने आया, वह चौंकाने वाला था सर्वेक्षण पर आधारित हैं उन्होंने इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों की एक लाख से ऊपर प्रतिभाओं से संपर्क साधा साक्षात्कार से जो तथ्य सामने आया, सर्वेक्षण के दौरान 70 प्रतिशत लोग ऐसे पाये गये, जो अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे जबकि 30 प्रतिशत लोग ऐसे थे, भाई-बीन नहीं थे। इस अध्ययन से एक और महत्वपूर्ण बात सामने आयी, वह यह कि 70 प्रतिशत प्रतिभा संपन्नों में नारों का अनुपात पुरुषों से अधिक था। इस प्रकार ब्लेक के सर्वेक्षण से दो बाते उभरकर सामने आय- प्रथम यह कि लड़कियां लड़कों से प्रतिभा में किसी भी प्रकार कम नहीं होती और दूसरी इकलौती संतान चाहे लड़का हो या लड़की उसकी बुद्धिलब्धि (आई0 क्यू0) औसत दर्जे से अधिक होती है उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि व्यक्तित्व-विकास में परिवार के आर्थिक स्तर का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है वे कहती है कि यदि परिवार निर्धन और बड़ा हुआ तो इससे सदस्यों की प्रतिभाएं प्रभावित हो सकती है। ओर स्वतंत्र विकास के स्थान पर वह कुण्ठित बनी रहती है। उनका कहना है कि सम्भवतः यही कारण रहा हो कि अध्ययन किये गये प्रतिभासम्पन्नों में आधे से अधिक इकलौती संतानें थी, कारण कि इस स्थिति में उनकी शिक्षा-दीक्षा ओर व्यक्तित्व विकास परिवार छोटा होने के कारण बिना किसी दबाव के स्वतंत्रतापूर्वक सम्पन्न हो सका। और वे विकास ही ऊंचाइयों को छू सकी।

इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए अब्राहम मैस्लो कहते हैं कि परिवार में अधिक संतान होने से उनके सर्वांगीण विकास में अड़चने आने लगती है। इसके साथ ही उनकी क्षमताओं के विकास में भी बाधा उत्पन्न होती है। ऐसे परिवार में प्रतिभाओं के उन्नयन को सम्भावना न्यून बनी रहती है। और व्यक्ति अपनी प्रतिभा को परिष्कृत कर वह स्थिति प्राप्त नहीं कर पाता जिसे उन्होंने ‘सेल्फ एक्चुअलाइजेशन’ कहा। प्रकारांतर से उनका ‘सेल्फ एक्चुअलाइजेशन ‘ प्रतिभा ‘ परिष्कार का ही दूसरा नाम है। लिवरपुल यूनिवर्सिटी के समाज वानी के फार्स्टर का कहना है कि छोटे परिवार में प्रतिभाओं के विकास की जितनी सम्भावना होती है बड़े परिवार के साथ वह उतनी ही न्यून बनती जाती है इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि वृहद परिवारों में माता-पिता के बाद चूंकि बड़ा सदस्य परिवार की सबसे बड़ी संतान होता है अतः माता-पिता के साथ अपने छोटे भाई-बहिनों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उसके कंधों पर भी आ पड़ती है। और दुर्भाग्यवश यदि बचपन में ही माना पिता काल-कवलित हो गये, तो फिर मुश्किलों का अन्त नहीं। ऐसी स्थिति में वे अपनी क्षमताओं का विकास तो क्या, बड़ी मुश्किल से जीवन की गाड़ी घसीट पाते हैं और ज्यों-त्यों करके जिन्दगी गुजारते हैं एकमात्र संतान होने के कारण अपनी क्षमताओं का उन्नयन - विकास बड़े परिवारों की तुलना में कही अच्छी प्रकार कर लेती है पर दूसरी ओर से यह भी कहते हैं। कि सभी इकलौती संतानें प्रतिभासम्पन्न होती है ऐसी भी बात नहीं है उनके सर्वेक्षण के 70 प्रतिशत मामलों में वे असाधारण पायी गयी, शेष 20 प्रतिशत सामान्य बुद्धि वाले बच्चों के सम्बन्ध में उनका विचार है कि माता-पिता के अतिशय लाड़-प्यार ने ही उन्हें बिगाड़ दिया अन्यथा वे भी किसी - न - किसी क्षेत्र में असाधारण बन सकते थे।

कोलोरेडो युनिवर्सिटी के शोध-कर्मियों ने जन्म-क्रम सिद्धांत को पूरी तरह अमान्य करते हुए अपने अध्ययन में कहा है कि इकलौती संतान सदा ओसत से ऊँचे दर्जे की होती है यदि उक्त प्रतिभा का सदुपयोग किया जा सके, तो वे अपने जीवन में असाधारण प्रगति कर सकते हैं पर वे कहते हैं कि कई बार इसका दुरुपयोग किया जा सके तो वे अपने जीवन में असाधारण प्रगति कर सकते हैं। पर वे कहते हैं कि कई बार इसका दुरुपयोग होने लगता है जिसके कारण उत्थान के स्थान पर वे पतन के गर्त में समा जाते हैं एकाकी संतान प्रतिभावान क्यों होती है इस सम्बन्ध में वे एक सर्वथा नवीन तर्क प्रस्तुत करते हैं उनका कहना है कि खेल में जब प्रथम बार कोई फसल उगाई जाती है। तो उपज बहुत अच्छी होती है और ददाने भी पुष्ट होते हैं किन्तु बाद की फसलों की उपज ओर गुणवत्ता क्रमशः घटती जाती है। ओर इसी के साथ जमीन की उर्वरता भी। वे कहते हैं। कि कुछ ऐसी ही सम्भावना प्रथम व एक संतति के संस्कार ओर क्षमताओं के सम्बन्ध में कही जा सकती है।

यहां यह प्रतिपादन अभ्यास विज्ञान से काफी कुछ मेल खाता है अध्यात्म भी इस बात को स्वीकारता है। कि प्राण -शक्ति के क्षरण के साथ-साथ शारीरिक-मानसिक क्षमताओं का ह्रास होता जाता है ओर यह सर्वविदित तथ्य है कि जननेन्द्रियों से प्राण-शक्ति का जितना अधिक अपव्यय होता है , उतना शायद ही और किसी मार्ग से । अस्तु प्रथम संतान की उत्पत्ति के साथ माता-पिता में जो शारीरिक-मानसिक क्षमता विद्यमान थी, उसे सिद्धांत सन्ति में जाना चाहिए और यदि यह सही है तो शोधकर्ताओं की इस बात में भी उतनी ही सच्चाई होनी चाहिए कि प्रथम संतान अधिक क्षमतावान होती है।

इतिहास के पृष्ठो को पलटने पर इस बात के अनेकानेक प्रमाण भी मिलते हैं जो हमें यह विश्वास करने पर विवश करते हैं कि इकलौती संतान असाधारण प्रतिभायुक्त होती है अष्टावक्र कहोड़ मुनि और सुजाता की एकमेव संतान थे, वे कितने मेधावी थे। इसका अनुमान उनके इस वाक्य से लगाया जा सकता है। जिसे वे गर्भ में रहकर ही पिता को इंगित हुए उस समय बोला करते थे, जब उनके पिता अधपान कार्य कर रहे होते -” सर्वो रात्रिमध्ययनम् करोषि?? नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते अति पिताजी! आप फिर भी उच्चारण सम्बन्धी यह त्रुटि क्यों? ऐसी घपलेबाजी न करें अर्जुन पुत्र अभिमन्यु उनके इकलौते पुत्र थे, इस कारण गर्भस्थ स्थिति में भी वे चक्रव्यूह भेदन की कला सीख सके। चाणक्य अपने माता-पिता के एकल पुत्र थे। किसी साधारण व्यक्ति को राजसिंहासन पर बैठा देना और किसी राजा का देखते -देखते पदच्युत कर देना उनके बांये हाथ का खेल था। आद्यशंकराचार्य अपने माँ-बाप के अकेले पुत्र थे।अध्यात्म की जिन ऊंचाइयों को वे छू सके यह किसी से छुपा नहीं है राजनीति के क्षेत्र में जवाहरलाल नेहरू इन्दिरा गाँधी रुजवेल्ट आदि भी अपने जन्मदाता की एकाकी संतति थे। साहित्यिक क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और इंग्लैंड के रस्किम प्रथम संतान थे एक को खड़ी बोली का जतन तो दूसरे का 19 वीं शताब्दी का महान साहित्यकार माना जाता है। विज्ञान के विकास के आइन्स्टाइन का सापेक्षवाद , न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और पुनर्निर्माण काल में पारासेल्सस का कितना बड़ा योगदान रहा है यह सर्वविदित है सजे की बात यह कि यह सभी अपने जनक-जननी के अकेली संतान थे।

इस प्रकार के कितने ही उदाहरणों से विश्व-इतिहास भरा पड़ा है जो यह सिद्ध करता है कि चौथी संतान की क्षमता सामान्य स्तर से प्रायः ऊँची होती है इसे माता पिता की प्रतिभा का हस्तान्तरण कहे अथवा निजी क्षमताओं के अत्यधिक विकास की सुविधाजनक स्थिति कुछ भी कह लक पर अब यह लगभग निर्विवाद है हक इकलौती संतान प्रतिभा के क्षेत्र में औसत से ऊँचे स्तर की होती है।


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