यो यच्छृद्धः स एव सः

December 1996

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सम्पूर्ण समय को तीन खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। भूत वर्तमान और भविष्य। तीनों का अपना -अपना महत्व है। दोनों को मिला कर एक समग्र व्यक्तित्व की संरचना होती है।

आमतौर से बचपन अभिभावकों की सहायता से विनिर्मित होता है उन दिनों बालक चेष्टाएं तो स्वयं करता है। पर उनके मार्गदर्शन में योगदान परिजनों का ही प्रमुख रहता है। बालक पूरी तरह आत्मनिर्माण के अनुभव और सामर्थ्य के अभाव में स्वयं उठ नहीं पाता। इसलिए अभिभावकों और अध्यापकों की सहायता आवश्यक होती है। किशोरावस्था के साथ-साथ समझदारी बढ़ने से मनुष्य निजी अनुभव, रुझान और प्रयोग के बलबूते अपने कर्तव्य का परिचय देने लगता है इसी स्थिति में वर्तमान का निर्धारण चल पड़ता है दूसरों को इतना ही दीख पड़ता है। मनुष्य का वर्तमान ही सर्वसाधारण के परिचय में आता है भूत विस्मृत होता रहता है। उसको बहुत कुरेदने पर ही कुछ पता चलता है। भूतकाल की स्मृतियां घटनाओं और अनुभूतियों के आधार पर वर्तमान को विनिर्मित करने में सहायता करती है। इतनी भर ही उसकी उपयोगिता है। स्वभाव-निर्माण में ज्ञान-भण्डार भरने में भी भूतकाल की उपयोगिता रहती है।

वर्तमान अनुभूतियों और क्रियाओं का परिचय देता है। शरीरगत पीड़ा -सुविधा रसास्वादन जैसा कुछ वर्तमान में ही चलता है कौन क्या कर रहा है? इसकी जानकारी में वर्तमान का ही योगदान रहता है। इन सबसे इतना भर ज्ञानार्जन बन पड़ता है कि किसकी योग्यता क्या है और वह क्या कर रहा है।?

,किन्तु इतना सब पर्याप्त नही हैं जीवन की विगत एवं प्रस्तुत जानकारी ही भूत और वर्तमान मिलकर दे पाते हैं। भविष्य में जो बन पड़ता है सम्भव होना है उसका ऊहापोह मस्तिष्क की भावी-कल्पनाओं के साथ ही जुड़ता है। कौन क्या योजना बना रहा हैं उसे क्या रूप जा रहा है। इस आधार पर ही भविष्य का स्वरूप निर्माण होता है। मनः स्थिति ही परिस्थिति की जन्मदाता है मनः’ स्थिति और परिस्थिति का थोड़ा अंश ही भूत के स्मरण और वर्तमान में लगता है शेष अधिकाँश चिन्तन तो भविष्य की कल्पनाओं में ही निरत रहता है। कामनाएं और कुछ नहीं भविष्य की लालसा ही है। उन्हीं के अनुरूप यह निश्चित किया जाता है। कि अगले दिनों के लिए जो निर्धारण किया गया है। उसका नाना-बाना कैसे बुना जाय? सरंजाम कैसे जुटाया जाय? इसलिए तीनों काल खण्डों में भविष्य की अवधारणा ही अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी के आधार पर अगले कार्यक्रमों का निर्धारण किया जाता है। और तद्नुरूप प्रतिफल उभर कर सामने आता है।

मूर्धन्य मनीषी एम॰ बुबर ने अपनी रचना पाथ्स इन यूटोपिया में इस काल खण्ड की वृहद व्याख्या की हैं वे लिखते हैं कि मनुष्य यदि योजनाओं और आकाँक्षाओं का सहारा लेना छोड़ दे, तो उसका भविष्य ही शून्य और समाप्त हो जाएगा। फिर तीन काल खण्डों में से मात्र वह दो को ही जी सकेगा। इसका प्रतिफल यह होगा कि व्यक्ति ने जिस आदिम स्थिति से अपनी जीवन यात्रा शुरू की थी, वर्षों बाद भी वह वही ज्यों-का-त्यों पड़ा रहेगा, उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाएगी। मनुष्य आज अविकसित पाषाण युग से अतिविकसित विज्ञान युग में पदार्पण कर सका है, इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उसने सदा ही अपने वर्तमान को अपूर्ण अल्प और अविकसित माना है जिस दिन उसने यह सोच-ना आरम्भ कर दिया कि वह पूर्ण समग्र और विकसित है समझना चाहिए कि उसी दिन उसका भविष्य बन गया । सच्चाई तो यह है कि यह अवस्था भविष्य के तीसरे काल खण्ड में पैर फिर कभी रख ही नहीं पाती । कारण कि उसमें प्रवेश करते ही वह तो वर्तमान बन गया, भविष्य रहा कहा? भविष्य की जो सम्भावना थी, उसे तो अपनी पूर्णता स्वीकार कर समाप्त कर डाली गई। अब वहां भविष्य नहीं केवल भूत और वर्तमान है। अतः आगामी समय के संदर्भ में कार्यक्रम और योजना रहित लोगों के लिए यह कहना कि उसने भविष्य संजोया है। बेईमानी होगा।

परिप्रेक्ष्य में यदि इस काल खण्ड को परिभाषित करना हो तो ठीक -ठीक इसी प्रगति का सातत्य ही कहना पड़ेगा अर्थात् निरन्तर उन्नति की अभीप्सा और कोशिश बनी रहें यह कभी घटे-मिटे नहीं। यहां है मनुष्य जीवन के लिए ‘भविष्य ‘ का आस्तिक विवेचन ।

‘पेशन्स ऑफ दि व्यूमन स्पेल’ नामक ग्रन्थ में जार्ल्श फोरियर लिखते हैं। कि बहुधा लोग ऐसा कहते पाये जाते हैं परिस्थितियों ने अथवा अमुक लोगों ने उसके भविष्य संवारने में काफी मदद कि। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद वह अपने स्वर्णिम भविष्य से हाथ धो बैठता। वे कहते हैं कि यदि इस अवधारणा के मूल में जाकर इस बात को तलाश की जाय कि क्या वास्तव में किसी व्यक्ति के भविष्य -निर्माण में दूसरों का हाथ होता है। तो यही पायेंगे कि ऐसा प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः ऐसा है नहीं। यदि व्यक्ति का स्वयं का प्रयास और पुरुषार्थ इस दिशा में नियोजित नहीं होता तो भला कोई और इस क्षेत्र में उसी सहायता क्योंकर और कैसे करता । अस्तु यह कहना कि उसके विकास में उसका निजी पुरुषार्थ नहीं वरन् अन्यों का प्रयास कारणभूत है समीचीन ही होगा।

अतएव यह कहना ठीक ही है कि ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। इस उक्ति के पीछे एक ही तथ्य जुड़ा हुआ है कि कौन क्या सोच रहा है। और उस सोच को क्रियान्वित करने के लिए क्या तैयारियां कर रहा है? इसलिए जहां तक चिन्तन का सम्बन्ध है वहां तक यही कहना पड़ेगा कि भावी निर्धारण का स्वरूप ही चिन्तन क्षेत्र की सबसे बहुमूल्य सम्पदा है यों प्रत्यक्षतः उसका कोई पर भी शक्ति उसी में सबसे अधिक होती हैं जो जैसा सोचता है वह वैसा ही बन जाता है इसी को कहते हैं -’भविष्य - निर्धारण ।’

इसकी दो दिशाधाराएं हैं एक यह है कि भविष्य को जैसा विनिर्मित हुआ बनना-देखना चाहते हैं उसके अनुरूप चिन्तन किया जाय योजना बनायी जाय क्रिया पद्धति अपनायी जाए प्रयास और साधन जुटाये जाए एवं इसके लिए जिनके सहयोग अभीष्ट हो उनसे सम्बन्ध जोड़ें जाए।

दूसरी दिशाधारा इससे अधिक सरल और सुनिश्चित है इसमें अपनी विवेक - बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए इस बात का अनुमान लगाना पड़ता है कि भविष्य में क्या कुछ होने की सम्भावना है। इस भवितव्यता के साथ तद्नुरूप प्रयासों को अपने चिन्तन और व्यवहार में सम्मिलित किया जाय। आमतौर पर इसी पद्धति को सर्वसामान्य अपनाते और विश्वासपूर्वक कदम उठाते हैं । इस प्रकार के भविष्य - ज्ञान का मोटा अनुभव दूरदर्शी समझदारी के सहारे प्राप्त किया जा सकता है। यों भविष्य सम्बन्धी शत-प्रतिशत सही जानकारी तो किसी के लिए भी संभव नहीं , फिर भी यदि चिन्तन में दूरदर्शिता सम्मिलित हो जाय तो अनागत का इतना अनुमान तो अर्जित किया ही जा सकता है जिसमें यदि तदनुकूल प्रयास और पुरुषार्थ शामिल हो जाए तो भवितव्यता के समीप पहुंचा जा सके।

इस उदाहरणों द्वारा भी समझा जा सकता है ऋतु परिवर्तन के साथ बदलती परिस्थितियों का अनुमान रहता है इसके आधार पर लोग तद्नुरूप तैयारी करने में जुट जाते हैं । वर्षा ऋतु आने से पूर्व छप्पर को दुरुस्त करने, छाता खरीदने, खेत जोतने , मेंड़ बनाने जैसी तैयारियों में लोग लग जाते हैं। यह भविष्य - ज्ञान के सहारे ही सम्भव होता है।

भवन निर्माता , आर्किटेक्ट, इंजीनियर अपने-अपने विषय के विशालकाय ढाँचे कागजों पर ही अंकित कर लेते हैं। उनकी कल्पना शक्ति इतनी प्रखर और पैना होता है कि जो करना है उस व्यावहारिकता से तालमेल बिठाते हुए प्रायः इस स्तर का बना लेते हैं। जिसमें भूल होने की गुंजाइश कम-से-कम रहे। यह भविष्य - ज्ञान का ही एक प्रकार है।

वैज्ञानिक आविष्कारों की प्रारम्भिक रूपरेखा मस्तिष्क ओर कल्पना-क्षेत्र में ही सम्पन्न हो जाता है प्रयोगशाला में तो सिर्फ इस बात की पड़ताल की जाती है कि जो कुछ सोचा गया था वह व्यवहारिकता के धरातल पर कितना खरा उतरा। साहित्यकार, कवि कलाकार, चित्रकार अपनी संरचनाओं का अधिकांश भाग कल्पना क्षेत्र में ही पूरा कर लेते हैं लेखनी , तुलिका , छेनी हथौड़ों तो इसके उपरान्त चलती है उपकरण तो योजना को मूर्त रूप देने में प्रत्यक्ष भूमिका भर निभाते हैं इन सब बातों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो सिद्ध होता है कि भविष्य का ढाँचा मनःक्षेत्र में खड़ा किया जा सकना सम्भव है।

इसी प्रकार मरणोपरान्त स्वर्ग और मुक्ति लाभ करने की व्यक्ति की आकाँक्षा भविष्य से ही सम्बन्धित हैं। दीर्घ-जीवन कायाकल्प, पुनरुत्थान , भाग्योदय जैसी सुखद सम्भावनाओं की खिचड़ी भविष्य के मभ्ज्ञ में ही पकती है अनिष्टों की आशंका भी भविष्य के साथ जुड़ी होती है। आक्रमण होने, विपत्ति टूटने , घटा पड़ने मृत होने जैसी डरावनी चिंताएं भी अगले दिनों की गड़बड़ी से ही सम्बन्ध रखती है नरक भविष्य की डरावना विभीषिका ही हैं प्रलय, प्रकृति प्रकोप जैसी संभावनाएं भी इसी प्रकार का उपक्रम है मस्तिष्क इसी प्रकार के शुभ-अथवा अशुभ के ताने बनता रहता है इन सबको संयुक्त रूप से एक नाम देना हो तो उसे भविष्य चिन्तन कह सकते हैं

यह सर्वथा निरर्थक भी नहीं। इन्हें चिन्तन के ज्वार - भाटे कहकर भी निश्चित नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इस प्रवाह के साथ असाधारण शक्ति जुड़ी हुई पायी जाती है। मनुष्य का चिन्तन जैसा होता है। वह के अनुरूप ढलने लगता है विज्ञान में मन के गड़बड़ाने के स्वस्थ का लड़खड़ाना और शरीर का बीमार पड़ना प्रसिद्ध है। चिन्तन विकृति के अनुरूप यहां काया की प्रत्यक्ष हो उठती है । भृंग की आकृति और प्रकृति से तन्मय होकर कीट तद्रूप बन जाता है टिड्डे गर्मी के दिनों में सब और छाया देखकर अपना रंग भी पीला बना लेते हैं। वर्षा आने पर हरीतिमा बिखरे देखने पर पुनः अपना रंग बदलने और हर छा जाते हैं भयभीत रहने वाले अपना स्वास्थ्य गवा बैठते हैं। इसके विपरीत जिन्हें अगले दिनों बड़ी सफलता मिलने और सम्पदा प्राप्त करने का विश्वास जमा होता है वे अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ सुन्दर और समर्थ बनते चले जाते हैं यह भाव चिन्तन का भाव परिणति के प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इस आधार पर यह कहना गलत नहीं कि व्यक्तित्व निर्माण में भविष्य सम्बन्धी सकारात्मक चिन्तन की महती भूमिका है यो के क्रिया-कलापों और भूतकाल का अनुभवों का उल्लेखनीय योगदान है पर भावा समय का ताना-बाना यदि सूझ-बूझ और सतर्कतापूर्वक नहीं हुआ तो वर्तमान के प्रयास और विगत का अभ्यास भी एक प्रकार से निरर्थक ही साबित होते हैं।


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