लोकनायक ही नवसृजन कर पायेंगे

December 1996

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हर युग की अपनी माँग होती है। समय अपनी मलिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समाज से गुहार करता है। इसे सुनना, समझना और इन जरूरतों को पूरा करने के लिए उद्यत होना उन्हें बन पड़ता है, जिनके दृष्टिकोण विशाल है। और हृदय भावनाओं से भरे है। शायद है और हृदय भावनाओं से भरे है। शायद इसी का अभाव ही है। कि लोग सार्वजनिक क्षेत्र में प्रवेश तो करना चाहते हैं, लेकिन वे राजनीति को ही सब कुछ समझ लेते हैं। पिछली लोकसभा और अभी हाल में हुए विधानसभा चुनावों में जितने स्थान थे उन पर जितने प्रत्याशी खड़े हुए, उसे देखते हुए उस वर्ग की अभिरुचि का सहज ही पता चल जाता है दूसरे देशों में प्रायः दो तीन से अधिक उम्मीदवार कहीं नहीं होते हैं और वे भी संगठित संस्थाओं के मंच पर ही चुनाव लड़ते हैं। उनके पीछे कुछ आदर्श होता है, कुछ कार्यक्रम, पर अपने देश में सस्ती वाहवाही लूटने, जिस किसी तरह प्रचारित होने और बन सके तो सस्ती वाहवाही लूटने, जिस किसी तरह प्रचारित होने और बन सके तो सत्ता सिंहासन पर जा चिपकने के लिए कोई भी उम्मीदवार खड़ा हो जाता है और मतदाताओं में प्रतिभ्रम पैदा करके उपयुक्त प्रत्याशियों का भी मार्ग अवरुद्ध करता है।

अभी पिछले दिनों हुए चुनावों दृष्टिपात करे और उसका लेखा-जोखा ले तो प्रतीत होगा कि असफल हजारों प्रत्याशी ऐसे थे, जो राजनीति के वर्चस्व के क्षेत्र में प्रवेश करने की लालसा से एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे थे। उनका चोटी का पसीना एक कर रहे थे। उनका करोड़ों रुपया भी इस प्रयास में खर्च हुआ। इतनी लालसा, दौड़-धूप और खर्चीली राह क्यों अपनायी गयी? इस संदर्भ में किसी व्यक्ति विशेष की शान में कुछ कहना उचित न होगा। हो सकता है उनमें के कुछ सचमुच देश-सेवा के लिए राजनेता बनने के लिए उत्सुक हो। लेकिन बहुसंख्यक ऐसे होते थे जो यश, प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए , सस्ते में प्रचारित होने के लिए खड़े हुए थे। ऐसों की संख्या भी कम न थी। जिन्होंने यह सट्टा इसलिए खेला था कि सफल होने पर ऐसे दांव−घात लगाएँगे जिनसे एक के बदले सौ कमाने का अवसर मिल जाय। कुछ के मन में तो बड़ी लालसा रही होगी, पर परिस्थिति वश मन मारकर बैठना पड़ा होगा।

जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि सार्वजनिक क्षेत्र में आने के लिए लोक अथवा सेवा-साधन को कोई भी प्रयोजन अपनाने के लिए, यश-सम्मान पाने अथवा सेवा-साधन को कोई भी प्रयोजन अपनाने के लिए हैं। इन सबका मिला जुला रूप भी ऐसा हो सकता है, जो इस जुला रूप भी ऐसा हो सकता है, जो इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए लालच उत्पन्न करे। यह उभरता हुआ तयि हम उन लोगों के बची भी देख सकते हैं, जो संस्ि ओि के भीतर परदो की प्राप्ति के लिए धक्का-मुक्की करते हुए अवाँछनीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यह संख्या कम नहीं हैं लोकसेवा का आवरण ओढ़े हुए अधिकांश लोग इसी बीमारी से ग्रसित है। अधिकाँश लोग इसी बीमारी से ग्रसित हैं फलतः सार्वजनिक जीवन की पवित्रता आज इस कदर नष्ट हो गयी है कि इस क्षेत्र में काम करने वाला प्रायः हर व्यक्ति सन्देह की नजरों से देखा जाने लगा है और इस क्षेत्र में धक्का-मुक्की करने वाले लोग भी हर दृष्टि से असफल रहे है। न उन्हें यश मिल रहा हैं न श्रेय । लोकसेवा तो उस ओछी मनःस्थिति में बन ही कैसे पड़ेगी?

होना तो यह चाहिए कि जो जनसेवा के लिए इच्छुक और उत्सुक है, वे राजनीति की अपेक्षा सामाजिक क्षेत्र में उतरते और उन कार्यों को हाथ में लेते जा राजनीति की अपेक्षा अधिक ठोस और अधिक स्थायी है। यश और सम्मान की दृष्टि से भी राजनीति का क्षेत्र बड़ा अस्थिर और कुटिल है जब तक एम.एल.ए., एम.पी. या मिनिस्टर है तब तक लोग बन्दगी करते हैं और जैसे ही वह टोपी उतरी कि सड़क चलते मुसाफिरों से कुछ तो इस काजल नहीं रह जाती। यदा-कदा तो इस काजल इज्जत नहीं रह जाती । यदा-कदा तो इस काज की कोठरी से निकलने के बाद चेहरे में लग चुकी काज की कालिख के कारणों जेल की कोठरी तक नौबत आ पहुँचती है और यह नेक काम उन्हीं हाथों से होता है, जो कल तक बन्दगी के लिए जुड़े रहते थे इसी वजह से उस स्वल्प-कालीन सम्मान या पद को प्राप्त करने के लिए आगे बनाए रहने के लिए किन्हीं-किन्हीं को ऐसे प्रपंच भी करने पड़ते हैं, जिनसे उनकी आत्मा दिन पर दिन ऐसी कलुषित होती चली जाय कि ईश्वर के दरबार में वह तथाकथित लोक सेवा लोकद्रोह से भी अधिक बुरी ठहरायी जाय।

राजनीति में वर्चस्व प्राप्त करने के लिए लोगों की भीड़ और धक्का-मुक्की अत्यधिक है। घुसने वालों को भीतर बैठे हुए लोग रोकते हैं। शायद यही कारण है। कि आज इस क्षेत्र में ज्यादातर वही लोग घुस पाते हैं, जो अपने पिछले जीवन में गुण्डा-बदमाश अथवा अपराधी रहे हो। भीड़ वाली और खतरे से भरी इस गाड़ी में पायदान पर लटकते हुए चलने का जोखिम उठाने की अपेक्षा यह अच्छा है कि भीड़ वाला, सुरक्षित वाहन पकड़ा जय। ीरत का सामाजिक क्षेत्र ऐसा है, जिसमें लोकमंगल के लिए बहुत कुछ करने की बहुत गुँजाइश है । उस क्षेत्र में बिना प्रतिस्पर्धा के सच्ची लोकसेवा की जा सकती है और उस मार्ग पर चलते हुए सच्ची और चिरस्थायी यश कामना भी पूर्ण हो सकती है।

सच तो यह है कि अपने देश का पिछड़ापन दूर करने में राजसत्ता उतनी सफल नहीं हो सकती, जितनी कि सामाजिक क्षेत्र में की गयी सेवा-साधना हजार वर्ष की गुलामी से अपना सब कुछ खो बैठने वाले समाज में संव्याप्त नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर किया जाना सबसे बड़ा काम है और उसे राजनीति द्वारा नहीं, सामाजिक सत्प्रवृत्तियों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है जिन गाँधी जी को दुहाई देकर राजनीतिज्ञ लोग अपने क्षूद्र स्वार्थों को पूरा करने में संलिप्त हैं उन्हीं राष्ट्रपिता की भावनाएँ थी कि राष्ट्रीय स्वाधीनता के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता और सर्वाधिक प्राचीन राजनीतिक संस्था समाज सेवा के क्षेत्र में उतरे।

गाँधीजी के समय में लोकसेवा के लिए राजनीतिक गतिविधियां युग की माँग थी। उन दिनों समय की पुकार यही थी कि राष्ट्र को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाया जाय इस अपरिहार्यता के बावजूद उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र को उपेक्षित नहीं छोड़ा । नशा निवारण, छुआ-छूत उन्मूलन, मलिन बस्तियों की सफाई जैसे अनगिनत कार्यक्रमों में काँसे के स्वयं सेवकों को दीक्षित किया। शायद यही कारण था कि समाज क्षेत्र की भट्टी में तपे-निखरे से स्वयं-सेवक सत्ता ओर शासन में पहुँचने के बावजूद अपनी ईमानदारी एवं चरित्रनिष्ठा बरकरार रख सके। उस पीढ़ी के समाप्त होते ही जैसे ईमानदारी एवं चरित्रनिष्ठा बरकरार रख सके। उस पीढ़ी के समाप्त होते ही जैसे ईमानदारी एवं चरित्रनिष्ठा का भी लोप हो गया। क्योंकि ये सभी समाज सेवा की उस भट्टी से अछूते रहे, जहाँ उनके व्यक्तित्व की गलाई-ढलाई होनी थी।

बापू के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में विनोबाजी ने अपने अन्तिम क्षणों तक समाज तथा सेवा को अपनाकर अपने मार्गदर्शक की भावनाओं को जीवित रखा। उन्होंने राजनीति की अपेक्षा समाज सेवा को अधिक श्रेयस्कर माना। राष्ट्रीय स्वाधीनता के दिराँ में सिकी विदेशी विद्वान ने लोकमान्य तिलक से पूछा, भारतवर्ष की स्वाधीनता के पश्चात् आप स्वतन्त्र भारत के ष्ज्ञासन का कौन-सा पद सँभालता चाहेंगे? पर और शासन का नाम सुनकर लिने मुस्कराते हुए कहा स्वतंत्र भारत में मैं राजनीतिज्ञ की अपेक्षा शिक्षक बनना पसन्द करूंगा और अपनी सारी शक्ति को राष्ट्र की निरक्षरता को समाप्त करने लें लगाऊँगा।

स्वतन्त्रता की पचासवीं सालगिरह मना लेने के बावजूद लिक की बातों का औचित्य यथावत् है। देश अभी भी निरक्षरता की कालिमा से संत्रस्त है। सरकारी स्कूलों में नगण्य-सौ बाल संख्या शिक्षण पा ही है। प्रौढ़ और महिलाओं को मरने तक ऐसे ही निरक्षर रहने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को चलाने में ही चरपरा रही है। सभी को शिक्षित करने में सरकारी खर्चीली योजनाएँ इतने टैक्स लगा देंगी कि उसे वहन करने से तो देशवासी निरक्षर रहना ही पसन्द करेंगे। यह कार्य शिक्षितों में सेवा-भावना उत्पन्न करके गली−गली, मुहल्ले-मुहल्ले प्रौढ़ पाठशालाएँ चलाकर ही पूरा किया जा सकता है। काम-धन्धे में लगे हुए लोग अवकाश के समय अपनी शिक्षा वृद्धि कर सकें, इसके लिए रात्रिकालीन तथा भाव कालीन स्कूलों हर जगह भारी आवश्यकता है।

समाज-सेवा के क्षेत्र और भी है। खर्चीली शादियां समाज की आर्थिक तथा नैतिक दुर्दशा का बहुत बड़ा कारण है। औसतन हर शादी में बीस हजार भी खर्च करने पड़े और हर परिवार को एक पीढ़ी में पाँच शादियाँ भी करनी पड़े तो उस मद में एक लाख खर्च होगा। ऐसे परिवारों की संख्या इस देश में लाखों में होगी। इनकी शादियों पर आने वाला खर्चा भी अरबों-खरबों से भी अधिक होगा। यह धन औसत भारतीय को या तो बेईमानी से जुटाना पड़ता है या रोटी, कपड़े, दवा शिक्षा जैसे जरूरी कामों में कमी करे। जी कर्ज लेते हैं। वे और अधिक दुर्दशा ग्रस्त होते हैं। हजारों लड़कियां अविवाहित रह जाती हैं या फिर आत्महत्या कर लेती है। खर्चीली शादियों की कुरीति मिटाने से जो पैसा बचेगा उसे यदि कृषि, उद्योग आदि में लगाया जा सके तो अपने देश की सम्पन्नता अमेरिका से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी हो सकती है।

नशों को ही लीजिए। केवल तंबाकू 10 करोड़ रुपये प्रतिदिन का पिया जाता है शराब, भाँग, अफ़ीम आदि को मिलाकर तो वह 50 करोड़ प्रतिदिन अर्थात् वर्ष के 365 दिनों में तो व्यय भारी अट्ठारह हजार तीन सौ पचास करोड़ पहुंचता है। यदि यह बचाया जा सके तो उतने धन से स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की न जाने कितनी समस्याएँ, हल हो सकती है। और स्वास्थ्य गिरना, पैसे की तंगी रहना, गृहकलह, अपराधी प्रवृत्ति जैसी उसके साथ जुड़ा हुई बुराइयों से बचा जा सकता है।

महिलाओं की स्थिति अशिक्षा एवं सामाजिक कुप्रथाओं के कारण अपंग ओर अपाहिज-सी बनकर रह गयी है। समाज की आधी जनसंख्या को याद इस स्थिति से उबारा जा सके। तो दूनी श्रमशक्ति, बुद्धि शक्ति तथा दूनी प्रतिभा राष्ट्रीय प्रगति में योगदान दे सकती है। उपार्जन बढ़ सकता है और समुन्नत वातावरण बन सकता है।

छुआछूत ने जनसमाज के एक बड़े भाग को मानवी अधिकारों से वंचित करके उन्हें पिछड़ी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश कर रख है। उनका असन्तोष और पिछड़ापन दोनों ही राष्ट्रीय प्रगति में बाधक है। अपने समाज पर लगे हुए इस कलंक को धोया जाना आवश्यक है। जाति-पाँति के नाम पर हजारों टुकड़ों में बँटे-बिखरे अपने जर्जर समाज को फिर एकता और समता के सूत्र में बाँधने की आवश्यकता है। सरकारी कानून तो हर बुरे काम के विरुद्ध बने पड़े हैं पर उनके रहते हुए भी सब कुछ हाता रहता है। कानून और आरक्षण के स्थान पर उन्हें अपनत्व देने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक वातावरण बनाने के लिए बहुत काम करना पड़ेगा।

गृह उद्योगों के अभाव में महिलाएँ। तथा वृद्ध लोग सर्वथा अनुत्पादक बनकर जीते हैं। उन्हें कुछ काम मिले तो आर्थिक स्थिति सुधरे और बच्चों की शिक्षा तथा पौष्टिक आहार के साधन जुटे। इस दिशा में आवश्यक नहीं कि सरकार ही सब कुछ करे, सामाजिक क्षेत्र में भी इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है।

गौरक्षा यदि सचमुच करनी हो तो गौ दुग्ध की वरिष्ठता तथा उपयोगिता सर्वसाधारण को परिचित कराना होगी जो लोग गोरस लेना चाहते हैं, उनके लिए इसे उपलब्ध कराने का एक विशाल तन्त्र खड़ा करना पड़ेगा। उन्हें गोदुग्ध, गोबर, बछड़ा, बैलों की उपयोगिता का व्यावहारिक दिग्दर्शन करा देने पर एक ठोस आर्थिक कारण बना जाएगा। और गौरक्षा सम्भव हो जाएगी।

साहित्य क्षेत्र में आज कूड़ा-करकट ही लिखा, छपा और बेचा जा रहा हैं इसे निरस्त करने के लिए उसके स्थान पर ऐसा साहित्य सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध कराना होगा, जो प्रगतिवादी दृष्टिकोण विकसित कर सके। चित्री, जो प्रगतिवादी दृष्टिकोण विकसित कर सके। चित्रों एवं पुस्तकों में भरी अश्लीलता पर कुठाराघात किया जाना नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक हैं इस दिशा में सृजनात्मक वस्तुएँ उपलब्ध करने की वास्तविक प्रगति को ध्यान में रखने की वास्तविक प्रगति को ध्यान में रखने की अत्यधिक आवश्यकता है॥ बाल साहित्य नारी साहित्य तो अभी लिखा ही नहीं गया है, जो नई पीढ़ी को, महिलाओं की आवश्यक प्रकाश दे वाले प्रभावशाली पत्रों, का भी एक प्रकार से अभाव ही है।

राजनीति का ढोल पीटने वाले अखबारों की भरमार है। जबकि इस देश में सामाजिक आन्दोलनों को प्रोत्साहित करने की राजनीति से भी हजार गुनी अधिक आवश्यकता है समय की पुकार है कि इस आवश्यकता को पूरा किया जाय।

सिनेमा आज की सर्वप्रिय मनोरंजन हैं देश के हजारों सिनेमाघरों में हर रोज लाखों आदमी देखने आते हैं। टी.वी में प्रदर्शित फिल्मों, सीरियलों को देखने वालों की संख्या तो करोड़ोँ में है। इनमें से अधिकांश फिल्में दर्शकों पर अवांछनीय प्रभाव छोड़ती है। इससे नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का बेतरह ह्रास होता है इसे कोसने कसे काम नहीं चलेगा। सुसंगठित रूप से यदि सृजनात्मक फिल्में बनाई जाने लगें तो उस माध्यम से भावनात्मक नवनिर्माण में बहुत सहायता मिल सकती हैं और नैतिक, बौद्धिक एवं सामाजिक क्रान्ति का पथ प्रशस्त हो सकता हैं

व्यायामशालाएँ गाँव-गाँव खोले जाने की आवश्यकता है। अपराधी तत्वों से निपटने के लिए सुरक्षा दल गठित किया जाना चाहिए और नागरिकों को अपनी रक्षा स्वयं करना आना चाहिएं खेलकूद की शिक्षा एवं प्रतियोगिता बालिकाओं को जूड़ो-कराटे का अभ्यास न केवल बल्कि नयी पीढ़ी में नया आत्मबल भी जगाएगी। राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण के लिए व्यायाम आन्दोलन व्यापक बनाए जाने की नितान्त आवश्यकता है।

अन्न की कमी-पौष्टिक आहार की न्यूनता को देखते हुए शाक एवं फलों का उत्पादन आज की एक महती आवश्यकता है। सप्ताह में एक दिन शाकाहार की परम्परा चल पड़े तो उससे स्वास्थ्य लाभ के अतिरिक्त अत्र की बचत हो सकती है। बड़ी दावतें एवं अनापशनाप जूठन छोड़ने के विरुद्ध आन्दोलन करके भी अत्र की बरबादी का एक बड़ा भाग बचाया जा सकता है धर-आँगन में फूल एवं शाक उगाने की प्रथा चल पड़ें तो उसे जहाँ सृजनात्मक प्रवृत्ति बढ़ेगी वहाँ घरों की शोभा तथा शाक खरीदने की भी बचत होगी। गाँव के मल-मूत्र तथा गोबर-कूड़े का सदुपयोग सिखाया जा सके तो स्वच्छता की वृद्धि तथा उपलब्ध खाद से अत्र का उत्पादन बढ़ सकता है।

ऐसे छोटे किन्तु महत्वपूर्ण कार्य राष्ट्रीय प्रगति में भारी सहायक हो सकते हैं।

पुस्तकालय शिक्षित वर्ग की ज्ञान वृद्धि के लिए अति उपयोगी माध्यम है। हर व्यक्ति सभी जीवनोपयोगी पुस्तकें खरीदने की व्यवस्था नहीं जुटा सकता । पुस्तकालयों से इस अभाव की पूर्ति होती हैं विचारोत्तेजक साहित्य वाले पुस्तकालय तथा चलपुस्तकालय लोकचिन्तन में प्रखरता लाने की आवश्यकता पूरी करेंगे।

करोड़ की संख्या से भी अधिक होते जा रहे व्यक्ति चित्र-विचित्र वेष बनाकर अथवा थोड़ी-सी शारीरिक कमी का बहाना बनाकर भिक्षा व्यवसाय से जुड़ गए हैं। उन्हें काम करने के लिए विवश किया जाना चाहिए। लोकसेवी अपराधों में गिना जाना चाहिए। लोकसेवी तथा असमर्थ व्यक्ति दान पर जीवनयापन करे तो बात समझ में आती है, पर समर्थ लोगों का वेष बदलकर अकारण हाथ पसार की भीख माँगते घूमना या फिर प्रपंच करे रोटी कमाना, राष्ट्रीय चरित्र पर भारी आघात और मानवीय स्वाभिमान का पतन हैं अपंग, असमर्थों के निर्वाह की व्यवस्था करना समाज का कर्तव्य है, पर भिक्षा व्यवसाय की छूट नहीं होनी चाहिए।

निरर्थक आभूषणों से विलासिता और फैशन में अपव्यय रोकने और उस बचत को उपयोगी कामों में लगाने के लिए वातावरण तैयार किया जाना बाकी हैं बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, पशुओं के साथ बरती जाने वाली निर्दयता आदि अनेक सामाजिक बुराइयाँ ऐसी है, जिन्हें रोकने के लिए सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है।

ऊपर की पंक्तियों में उन थोड़ी-सी आवश्यकताओं की बात कही गयी है, जिन्हें आज का समय पूरा करने के लिए आह्वान कर रहा हैं ऐसे अनेकों कार्य और भी हैं, जो युग की माँग का बोध कराते हैं। इन्हें हाथ में लेकर व्यक्ति और समाज की सर्वांगीण उन्नति में बहुत बड़ा योगदान दिया जा सकता है ऐसे आन्दोलनों, को रचनात्मक कार्यक्रमों को हाथ में लेने के लिए यदि संगठित को हाथ में लेने के लिए संगठित प्रयास किए जाएँ तो निःसन्देह सच्ची लोकसेवा हो सकती है।

वैसे भी राजनीति पनप चुकी हैं कि राष्ट्र का सामान्य नागरिक राजनेताओं, राजनैतिक पार्टियों पर विश्वास करने से कतरा रहा है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि किसे चुने, किसे कम भ्रष्टाचारी माने। पिछले लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में किसी दल को स्पष्ट बहुमत न देकर जैसे समाज ने राजनेताओं एवं राजनीति को साफ तौर पर नकार दिया है। आवश्यकता शासन और सत्ता के इस वर्ग को भी स्वच्छ करने की है, पर इसे कार्य को वे ही सम्पन्न कर सकते हैं। जिन्होंने अपने को समाज सेवा की भट्टी में पकाया और निखारा हो। भ्रष्ट राजनेताओं से भी उसका वास्तविक समाधान मतदाता के जन समाज के हाथ में ही है सो उसी को जाग्रत किया जाना चाहिए।

जन-जागरण का प्रयोजन वे ही कर सकते हैं। जो अपने उज्ज्वल चरित्र एवं निःस्वार्थ सेवा-साधना से लोकमानस में गहरा सम्मान और स्थान बना लें जो इसके लिए साहस कर सकते हैं, लोक श्रद्धा एवं यशास्विता उन्हीं के गले पड़ती है और वे ही सच्चे लोकनायक कहलाने के अधिकारी बनते हैं।

इन्हीं रचनात्मक कार्यक्रमों को युगऋषि की तपःस्थली में शांतिकुंज के तत्वावधान में युग निर्माण योजना चल रही है। इक्कीसवीं सदी की यह गंगोत्री इस समस्त आयोजन का केन्द्र हैं सच्ची सेवा-साधना के इच्छुक व्यक्ति को उनका विशाल कार्यक्षेत्र यहाँ तैयार कर दिया गया हैं उसका आधार भारतीय धर्म एवं संस्कृति के अनुरूप तथा युग की पुकार से ओत-प्रोत रहने के कारण जनता ने उसे सहारा ही नहीं स्वीकार भी किया है राजनैतिक वर्चस्व प्राप्त करने के लिए लालायित लोग भी यदि लोक-मंगल की सेवासाधना सामाजिक स्तर पर करने लगें तो देश का कितना बड़ा उपकार हो और उन उमंगों का भी सदुपयोग हो जो राजनीति में इधर-उधर धक्के खाती हुई भ्रमित, कलुषित एवं अस्त-व्यस्त होती रहती हैं यदि लोकसेवी रहकर जनता की सच्ची श्रद्धा अर्जित कर ली जाय तो राजनेता बनने में भी कुछ कठिनाई नहीं रहती । यों ही उछल-कूद अथवा आपराधिक प्रवृत्ति के आधार पर यादि और स्थिरता के बदले अपयश ही गले पड़ता है विवेक एवं सद्बुद्धि का तकाजा यह है कि अपने समय की माँग को समझ स्वीकार करे ओर “धियो यो नः प्रचोदयात्”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118