अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारती है नादयोग की साधना

December 1995

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अभिप्राय उस अनाहत ध्वनि से है जो प्राकृत और पुरुष के संयोग स्थल से निरन्तर प्रसृत और निनादित होती रहती है। ॐ कार वही स्वयंभू ब्रह्मनाद है। उससे सप्त स्वर प्रस्फुटित हुए। श्रुति शास्त्र में प्रयुक्त होने वाले उदात्त, अनुदात्त, स्वरित उसी के आरोह-अवरोह है। संगीत शास्त्र में आगे चलकर वे ही “सा रे ग म प ध नि” के स्वर सप्तक बन गये। सूर्य रथ के सप्त अश्व उसे प्रभा किरणों में सन्निहित रंग है। उसी प्रकार ब्रह्मनाद का ध्वनि गुँजन सप्तधा स्वर लहरी में निनादित होता है।

यों सुनने में सप्त स्वर और उनके आरोह-अवरोह मात्र शब्द ध्वनि का उतार-चढ़ाव प्रतीत होते हैं और उनका उपयोग वाद्य गायन में प्रयुक्त होना भर लगता है पर वस्तुतः उसकी सीमा इतनी स्वल्प नहीं है मनुष्य कृत स्वर लहरी के अतिरिक्त प्रकृति गत स्वर प्रवाह जीवधारियों द्वारा विविध विधि उच्चारण भी कम महत्व के नहीं है। मेघगर्जन, समुद्र तर्जन, विद्युतकड़क, वायु की सन–सनाहट निर्जन की साँय-साँय अग्नि शिखा की धू-धू निर्झर निनाद, प्रकृतिगत ध्वनियाँ हमें समय-समय पर सुनने को मिलती रहती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न पशु, पक्षी आवश्यकतानुसार अपनी-अपनी बोलियाँ बोलते हैं। रात्रि की नीरवता में झिल्ली की झंकार सुनते ही बनती है। सूर्योदय के समय पक्षियों के कंठ कितने प्रकार की कितनी मधुर स्वर लहरियाँ प्रस्तुत करते हैं उन्हें सुनकर मुग्ध हो जाना पड़ता है। लगता है स्वर ब्रह्म अपने अगणित ध्वनि प्रवाहों में न जाने कितने भाव भरे संकेतों और संदेशों को इस विश्व ब्रह्माण्ड में भरता बहाता रहता है।

यह सब आहत ध्वनियाँ हैं जो कानों में सुनी जा सकती है। विज्ञान को पकड़ में वे ध्वनियाँ भी आ गई हैं जो मनुष्य के कानों से सुनी जा सकने वाली मर्यादा से या तो ऊँची हैं या नीची। हमारे खुले कान उन्हें सुन नहीं सकते फिर भी साधन उपकरणों द्वारा उन्हें उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे खुली आँख से न दीखने वाले लघुकाय जीवाणु माइक्रोस्कोप जैसे सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से भली प्रकार देखे जा सकते है। यह प्रकृतिगत ध्वनियाँ हैं। यह प्रकृतिगत ध्वनियाँ है। कान की पकड़ से बाहर होने के कारण ही इन्हें सूक्ष्म कहा जाता है अन्यथा वस्तुतः यह स्थूल ही हैं क्योंकि यन्त्रों के माध्यम से उन्हें हमारे कान भी सुन समझ सकते है।

इसमें ऊँचे स्तर की ध्वनियाँ वे ही हैं जिन्हें जड़-जगत के अण्ड परमाणुओं द्वारा स्पन्दित नहीं कहा जा सकता। उनका सम्बन्ध चेतन जगत के जीवन प्रवाह से है। उन्हें एक प्रकार से अतीन्द्रिय भी कह सकते हैं। उनका मूल स्रोत चेतना तत्व है। इसलिए उन्हें ब्रह्म-वाणी भी कहते है। इन्हीं ध्वनियों का अलंकारित वर्णन शिव के डमरू घोष, सरस्वती के वीणा वादन एवं कृष्ण के बंशी दुर्गा के निनाद, ताल नृत्य एवं भैरव नाद जैसे सरस उपाख्यानों और घटनाक्रमों के रूप में किया गया है।

यह दिव्य ध्वनियाँ अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिये स्वयमेव विनिर्मित होती रहती हैं। ये चेतन हैं दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतीन्द्रिय हैं। इसलिए उन्हें देववाणी भी कहते है। उन्हें ध्यान योग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से है, अस्तु सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द संस्थान के इसी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है। प्रत्येक इन्द्रिय की तन्मात्राएँ स्थूल से सूक्ष्म का सम्बन्ध बनती है। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श शरीर को पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से पाँच तत्व के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाली अनुभूतियों से ही हमें अवगत कराती हैं। यह स्थूल का सूक्ष्म की ओर गति का एक चरण हुआ। उसके अगले चरण विशुद्ध चेतन एवं अभौतिक हो जाते है। जिन दिव्य ध्वनि प्रवाहों की चर्चा इन पंक्तियों में हो रही है वह उसी चेतन जगत के उच्चस्तर से सम्बन्धित हैं। ब्रह्मवाणी-देवध्वनि के इसी रूप में समझा जाय।

नादयोग का केन्द्र बिन्दु उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर सरलता पूर्वक जाना जा सकता है। योगशास्त्र के साधना विधानों में एक महत्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उँगलियों से, शीशी वाले कार्क से, कपड़े की गोली से इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु का स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि आधार से विलग किया जाता है और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अन्तःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेन्द्रिय का-उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता है पर वह श्रवण है, वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिए, कर्णेन्द्रिय और अन्तःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते है।

कृष्ण द्वारा रात्रि की नीरवता में बंशी बजाये जाने और गोपियों के घरबार छोड़कर उस रास आहान के लिए निकल पड़ने का सविस्तार वर्णन भगवत् आदि पुराणों में वर्णित है। यह व्यवहारिक, सामाजिक भौतिक व्यवस्था के सर्वथा प्रतिकूल होते हुए भी अध्यात्म परम्परा के पूर्णतया अनुकूल भी है वस्तुतः कथा गाथाओं में रहस्यमय पहेली की तरह गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यों का ही उद्घाटन किया गया है। रास लीला के पीछे नाट्योग की व्याख्या विवेचना ही सन्निहित है। भगवान बंशी बजाते हैं-मधुर रस चखाने का आह्वान करते हैं। गोपियाँ समस्त साँसारिक बंधनों को तोड़कर उस ओर दौड़ पड़ती है। संकेत आहान के स्वागत करती हैं, और उसी के लिए आकुल-व्याकुल होकर अपना समर्पण कर देती है। अपना आपा खोकर दिव्य ध्वनि के साथ थिरक कर, नाचना आरम्भ कर देती है। यही तो रासलीला है। कृष्ण अर्थात् परमात्मा-बंशी ध्वनि अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए चल पड़ने का संकेत-गोपियाँ अर्थात् आत्मा की भौतिक एवं आत्मिक सम्पदायें रास नृत्य अर्थात् दिव्य संकेतों के अनुरूप कठपुतली जैसे भाव-विभोर आचरण हैं।

रासलीला में सम्मिलित गोपियों के आनन्द मुग्ध होने का तथ्य सर्वविदित है। उसी का स्थूल रूप देखने-दिखाने के लिए जहाँ-तहाँ रासलीला के अभिनय किये जाते हैं। यों एक पुरुष के साथ इतनी नारियों का कामुक नृत्य न तो अभिनन्दनीय ही हो सकता है और न अभिनीय। फिर भी आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान का जो भाव भरा अलंकारिक चित्रण रासलीला में किया गया है वह पहले जैसा लगते हुए भी अर्थपूर्ण और तथ्यपूर्ण ही कहा जाएगा। रास की प्रधानता नायिका राधा है और अन्य सभी सखियाँ सहेलियाँ उनके साथ पूर्ण स्नेह सहयोग के साथ सहनृत्य में तल्लीन होती है।

राधा अर्थात् आत्मा-उनकी सहयोगिनी सखियाँ-अन्तरंग की सत्प्रवृत्तियाँ बौद्धिक विभूतियाँ और साँसारिक सम्पदाएँ-क्षमताएँ प्रतिभाएँ-यह सभी आत्मा की आकांक्षा में स्नेहित सहयोग देती है। कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती अर्थात् आत्मा के परमात्मा से मिलने के सदुद्देश्य सत्प्रयत्नों को सफल बनाने के लिए अपना पूर्ण समर्पण-समग्र नियोजन प्रस्तुत कर देती है। आत्मा की दिव्य आकांक्षा की पूर्ति के लिए उनका पूरा-पूरा समर्थन मिलता है। यह स्थिति प्राप्त हो सके तो हर आत्मा को-हर राधा को-रासलीला का दिव्य आनन्द मिल सकता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन का ब्रह्मानन्द उपलब्ध हो सकता है।

नादयोग में कान को सूक्ष्म चेतना की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। कई बार ये अति मन्द होती हैं। कई बार कुछ प्रखर। इनमें प्रायः कृष्ण की बंशी जैसी-सर्प पकड़ने में काम आने वाले बीन जैसी ध्वनियाँ रहती हैं। रास में प्रयुक्त वेणुनाद की चर्चा ऊपर हो चुकी है। कुमार्गगामी-भौतिक तृष्णा और वासना का विष पिण्ड मन-एक प्रकार से विषधर सर्प है। उसे भी आनन्द उल्लास की-दिव्य प्रेरणाओं के अनुगमन के रूप में लहराने का अवसर इस बीन की ध्वनि सुनने से मिल सकता है। सपेरा विषधर सर्पों को पकड़ने के लिए बीन बजाता है। जब वह लहराने लगता है तो उसे चुपके से पकड़कर पिटारे में बन्द कर लेता है। मन के निग्रह में-प्राणों के निरोध में-नादयोग का ध्वनि प्रवाह बहुत सफल रहता है। दिव्य ध्वनि श्रवण के साथ-साथ उपरोक्त दो विचार धाराओं का अदल-बदल कर समन्वय करना चाहिए। भगवान के वेणुनाद पर राधा और उसकी सखियों का रासनृत्य करना और मन सर्प का इस दिव्य नाद में तन्मय होकर अपना आत्म-समर्पण कर बैठना, यही है नादयोग की विधि साधना के साथ जुड़ा हुआ अत्यन्त महत्वपूर्ण तत्व दर्शन।

बंशी और बीन के अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती है। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है-भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही हैं और अपनी अन्तःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं भगवान शंकर का डमरू बज रहा है। उससे प्रलय के-मरण के संकेत आ रहे हैं और सुझाया जा रहा है कि इस नश्वर काया का अंत करने वाला ताण्डव किसी भी क्षण सम्मुख आ सकता है इसलिए प्रमाद से न उलझा जाय, लक्ष्य की प्राप्ति में आलस्य एवं उपेक्षा भाव न बरता जाय। माया-मोह छोड़कर यथार्थता को समझा जाय। शंखनाद की ध्वनि को महाभारत के पाञ्चजन्य का महाकाल के भैरव-नाद का-उद्घोष माना जाय और अनुभव किया जाय कि अब महाप्रयाण का ऐसा समय आ पहुँचा जिसमें आनाकानी या सोच-विचार करने की गुँजाइश नहीं है। युग की कर्तव्य की पुकार गूँज रही है और उभार रही है कि अविलम्ब जीवनोद्देश्य की दिशा में कदम बढ़ाया जाय। बिजली की कड़क, दावानल की धू-धू बादलों की गर्जन, समुद्र का तर्जन इस संकेत को लेकर आते हैं कि अपनी गतिविधियों का कायाकल्प होना ही चाहिए। पशु स्तर को निरस्त करके दिव्य स्तर अपनाया ही जाना चाहिए और उस उलट-पुलट में जो उफान-तूफान प्रस्तुत होते हैं उनका सामना किया ही जाना चाहिये। कभी झिल्ली की झंकार कभी चिड़ियों की चहचहाट के शब्द सुनाई पड़ते हैं इन्हें छोटे जीवों द्वारा मानवी प्रमाद को हिला देने वाला उद्बोधन समझा जाय। जब इतने छोटे जीव अपने नियत-नियमित आनन्द बिखेरने वाले क्रिया-कलाप में निरत रहते हैं तो मनुष्य के लिए यह कैसे शोभनीय होगा कि वह जीवनोद्देश्य के साथ जुड़े हुए अपने महान कर्तव्य का परित्याग करके मात्र पेट और प्रजनन के लिए जीवन सम्पदा को कौड़ी मोल गँवा देने की मूर्खता अपनाये?

नादयोग में कितने प्रकार ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं इनकी सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियाँ साधक उनके पीछे उच्च संकेतों को विवेक बुद्धि के द्वारा सहज संगति बिठा सकते है। कोयल की कूक, मुर्गे की बाँग, मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ शब्द सुनाई पड़ें, तो उनमें इन प्राणियों को उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का तालमेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रन्दन, हर्षोल्लास, अट्टहास, उच्छ्वास जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं उसे अपनी अन्तरात्मा का सन्तोष-असन्तोष समझा जा सकता है। कुमार्गगामी गतिविधियों से असन्तोष और सत्प्रवृत्तियों का सन्तोष स्पष्ट है। आत्म निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली-बुरी गति विधियों पर संतोष-असन्तोष प्रकट करने के अवसर आते हैं इन्हीं की प्रतिध्वनि, हर्ष क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है उसे नादयोगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। उसकी विस्तृत चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं। तथ्य इतना भर है कि इन दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की उच्च प्रेरणाएँ होती हैं और इन सब का प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आत्मा की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए-साहस पूर्ण कदम बढ़ाना चाहिए।

कानों के छिद्र बन्द करके अन्तर्जगत् को दिव्य ध्वनियाँ सुनने की साधना जब परिपक्व होने लगती है तो भावोत्कर्ष क्षेत्र से आगे बढ़ कर सुविस्तृत अन्तरिक्ष में संव्याप्त हलचलों को समझने का अवसर मिलता है। इस संसार को प्रभावित करने वाली अगणित ब्रह्म प्रेरणाओं के प्रवाह बहते रहते हैं। उनके स्पन्दन हमारी कर्णेन्द्रिय से शब्दरूप में टकराते हैं। उन्हें पहचानने और पकड़ने की सफलता, साधना में परिपक्वता आने के साथ-साथ सहज ही बढ़ने लगती है और यह प्रतीत होने लगता है कि सूक्ष्म जगत में क्या हो रहा है। और क्या होने जा रहा है। किसी व्यक्ति विशेष क्षेत्र, देश अथवा लोक के सम्बन्ध में इस प्रकार की सही स्थिति का पूर्वाभास होने लगता है। अविज्ञात को ज्ञात स्तर पर उतारने में नादयोग की साधना बहुत ही उपयोगी एवं प्रभावशाली होती है। यों शब्द, रूप, रस, गन्ध स्पर्श, की किसी भी प्रक्रिया के आधार पर बनी हुई साधना पद्धति से भी वही प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। पर नादयोग का इसी प्रयोजन के लिए अपना अत्यधिक महत्व है।

बाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्रोतों के पास हमारे आदान-प्रदान सम्भव हो सकते है, टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं। इतना नहीं यह ध्वनि प्रवाह सड़कों का भार वाहनों का भी काम करते हैं। व्यक्ति की व्यथाएँ लाद कर परमात्मा तक पहुँचाना और परमात्मा के अनुदान वरदान लाद कर व्यक्ति तक पहुँचाना भी इन ध्वनियों के माध्यम से सम्भव हो सकता है। सिद्ध पुरुष प्रायः ऐसे ही साधना माध्यमों के आधार पर अपने को परमेश्वर के साथ जोड़ कर अभीष्ट आदान-प्रदान का लाभ प्राप्त करते हैं।

भावनाशील मनः स्थिति के लोग नादयोग जैसी सुकोमल ध्वनियाँ भाव संवेदनाओं के आधार पर सुन लेते हैं पर यह हर किसी के लिए आवश्यक अनिवार्य नहीं कि वह उस प्रकार का दिव्य श्रवण कर ही सके। किन्हीं-किन्हीं को बहुत करने पर भी ऐसी कुछ अनुभूतियाँ नहीं होती। उन्हें निराश होने की तनिक भी आवश्यकता है नहीं, वे अपनी अन्तः चेतना को प्रत्यक्ष ध्वनियों के सहारे नादयोग जैसी स्थिति में उद्वेलित कर उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रगति का लाभ सहज ही ले सकते हैं।


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