“अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” तात्! जिसकी ब्रह्म-दर्शन की जिज्ञासा जितनी प्रबल होती है, वह उतनी ही शीघ्रता से नारायण के दर्शन करता है। ब्रह्म ही क्यों वत्स! जिज्ञासा तो मनुष्य को किसी भी कला, किसी भी विद्या का पारंगत बना देती है। हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं तुम आश्रम में रहो, तप करो एक दिन तुम्हें निश्चित ही भगवान का साक्षात्कार होगा।” इतना कहकर महर्षि ऐलूष ने राजकुमार नीरव्रत की पीठ पर हाथ फेरा उन्हें सामान्य शिक्षार्थियों की तरह छात्रावास के एक सामान्य कक्ष में रहने का प्रबन्ध कर दिया।
नीरव्रत ने पहली बार अपना सामान अपने हाथों से उठाया। वे प्रथम बार एक ऐसे निवास में ठहरे, जिस तरह के निवास में उनके दास-दासियाँ भी नहीं ठहरते थे। नीरव्रत ने उस दिन ही उतना सादा भोजन ग्रहण किया था। आश्रम व्यवस्था के अपमान की बात न रही होती, तो वह उस थाल को, जो उनके लिए परोसा गया था, दूर फेंक देते। सायंकाल में विलम्ब होगा, पर जीवन की इन विपरीत दिशाओं ने अविलम्ब ही मस्तिष्क में क्रान्ति विचार मंथन प्रारम्भ कर दिया। इतना शुष्क जीवन नीरव्रत ने पहले कभी नहीं देखा था। इसलिए उससे अरुचि होना स्वाभाविक थी।
शयन में जाने से पूर्व, उन्होंने एक अन्य स्नातक को बुलाकर पूछा “तात आप कहाँ से आए हैं? आपके पिता क्या करते हैं आश्रम में निवास करते आपको कितने वर्ष हो गए? क्या आपने सिद्धि प्राप्त कर ली? क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार कर लिया?”
प्रश्न करने की शैली पर स्नातक को हँसी आ गयी। उससे कहा-मित्र! शेष प्रश्नों का उत्तर बाद में मिलेगा। अभी आप इतना ही समझ लें कि मैं उपकौशल का राजकुमार हूँ और यह मेरा समापन वर्ष है, जब आप यहाँ पर प्रवेश ले रहे हैं इतना कहते हुए तरुण स्नातक ने अपने तेजस्वी ललाट को वक्ष स्थल उन्नत कर, ऊपर उठाया और ऋषि ऐलूष जहाँ रहते थे, उस ओर चला गया।
नीरव्रत किंकर्तव्यविमूढ़। यह ठीक है कि इनकी मुखाकृति किन्हीं राजकुमारों से कम नहीं, पर ये सभी स्नातक इतनी सरल वेशभूषा में, इतने मौन-व्रत धारी, और इतने अनुशासन बद्ध, क्या इनकी अपनी इच्छाएँ कुछ है ही नहीं? क्या इनकी सुखाकाँक्षाएँ नष्ट हो गयी हैं? सच पूछा जाय तो नीरव्रत का माथा फट गया होता, किन्तु अच्छा हुआ उन्हें निद्रा देवी ने विश्राम दिया।
प्रातः काल सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व ही जब भगवती ऊषा के आगमन की तैयारी हो रही थी, सब स्नातक जाग पड़े, उसी हलचल में उसकी भी निद्रा टूट गयी। उसने शैया परित्याग किया। शरीर हलका था। शौच स्नान से निवृत्त होकर वह गायत्री वंदन के लिए आसन पर बैठे। आज आश्रम जीवन का प्रथम दिन था। ध्यान तो नहीं जमा, पर चिन्तन में एकल बात सामने आयी-जब देह नष्ट हो जाती है, तब भी क्या राजा एक स्त्री-पुरुष बाल-वृद्ध का भेद रह जाता है, नहीं! फिर मेरे राजकुमारत्व को क्या अमर रहना है? नहीं-नहीं। मन ने कहा-नहीं जीवन के दृश्य भाग नश्वर हैं, क्षणिक हैं, असन्तोष प्रद हैं। जब तक मनुष्य पूर्णता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे ऐसी कोई मान्यता नहीं बना लेनी चाहिए, राजकुमार नीरव्रत ने मान लिया कि वह भी शरीर में अभिव्यक्त अव्यक्त आत्मा है, और उसे पाने के लिए अहंभाव छोड़ना पड़ता है।
किन्तु यह अहंभाव भी कितना है मनुष्य को बार-बार अपने शिकंजे में कसता रहता है। उससे यदि कोई बचाव कर पाता है, तो वह है निरन्तर विचार भावनाओं के प्रवाह और प्रबल निष्ठाएँ। नीरव्रत ने विचार करने की कला सीखी, भावनाओं को उभार देना सीखा तो भी अहंभाव का अवरोध अभी पीछा नहीं छोड़ रहा था। वह कभी-कभी सह स्नातकों से ही झगड़ बैठते, कभी-कभी शिक्षकों से भी दुराग्रह कर बैठते। उस समय उन्हें लगता कि उनके पक्ष में न्याय है, पर जब कभी विचार की तुला उठाते और विराट् जीवन की तुलना में अपनी छोटी-सी ईकाई को तौलते तो अहंकार तिरोहित हो जाता।
मान-मर्यादा मोह-दम्भ दुराग्रह सब कुछ तिरोहित हो जाता। नीरव्रत अपने को शुद्ध चेतन, अद्वैत आत्मा अनुभव करते। शिक्षण का यह क्रम ही उनके अंतर को परिवर्तित, परिष्कृत और विकसित करता हुआ चला जा रहा था। मान्यताओं के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तन के साथ-साथ इनका व्यक्तित्व भी विकसित होता जाता। तो भी अभी वे अविराम स्थिति में ही थे। अपरिपक्व अवस्था में ही थे।
आश्रम का नियम था कि सभी स्नातक भिक्षाटन के लिए जाया करते थे। तब भिक्षा केवल सत्कार्य के लिए संन्यासियों को भोजन के रूप में, और आश्रमवासियों ब्रह्मचारियों को धान्य के रूप में दी जाती थी। इसके अतिरिक्त और कोई व्यक्ति भिक्षा नहीं माँग सकता था। आश्रम राजाओं के दान से चलते थे तो भी यह परम्परा थी कि स्नातक अपने आपको समाज का एक बालक ही समझे, वे कभी अहंकार न करें, इसलिए भिक्षावृत्ति प्रत्येक स्नातक के लिए आवश्यक थी।
नीरव्रत को इस तरह का आदेश प्रथम बार मिला था। एक बार फिर उनका वर्षों का प्रसुप्त अहंभाव पुनः जाग पड़ा था। एक राजकुमार कभी भिक्षा नहीं माँग सकता। इस तरह का प्रतिवाद उनके अन्तःकरण ने किया था, किन्तु पुनश्च वही-अथातो ब्रह्म जिज्ञासा.............नीरव्रत को अपने आप को दबाना ही पड़ा।
भिखारी नीरव्रत। भिक्षापात्र लिए एक ग्राम में प्रविष्ट हुए। किसी के दरवाजे जाते उन्हें लज्जा अनुभव हो रही थी। ग्राम प्रमुख की कन्या विद्या ने उस संकोच को पहचाना। उसने एक मुट्ठी धान्य लिया और नीरव्रत के समीप भिक्षापात्र में डालने की अपेक्षा भूमि पर गिरा दिया स्नातक ने पूछा-भद्रे! यदि जान-बूझकर अन्न को फेंकना ही था तो आप उसे लेकर यहाँ तक आई ही क्यों?
विद्या ने हँसकर उत्तर दिया-तात मैं अकेली ही क्यों, संसार भर ऐसा करता है। हमने जीवन किसके लिए ग्रहण किया और उसका उपयोग कहाँ से करते हैं? हम किस उद्देश्य से आते हैं और वह उद्देश्य हमें पूरा करते कितना संकोच कितना भारीपन लगता है। धान्य बाहर गिराने की तरह ही अपराध नहीं हुआ।
नीरव्रत की आँखें खुल गई। किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दृढ़ता अपेक्षित है ऐसा निश्चय कर लिया, तब लज्जा और अहंभाव धुल गया। और वे प्रसन्नतापूर्वक साग्रह भिक्षाटन के लिए आगे बढ़ गए।
भिक्षापात्र को आश्रम के कोष में पहुँचा आए नीरव्रत अब उस बोझ से हलके हो चुके थे, जिसने अब तक के जीवन को जटिल, भ्रमपूर्ण और असन्तोष में रखा था। नीरव्रत जब एक सायं कालीन सन्ध्या करने के लिए बैठे तो शून्य की शान्ति में इस तरह खो गए, जैसे उनका वाह्य जीवन से सम्बन्ध ही न रहा हो। उनकी इन्द्रियाँ उनका मन, उनकी सम्पूर्ण-चेतना देह के अहंभाव से उठकर अनन्त अन्तरिक्ष में फैली गईं थी। वे अब संकीर्ण परिधि से निकलकर अनन्ताकाश की अनुभूति कर रहे थे। आपने आपको निर्मल, स्वच्छ, धुला हुआ, शान्त, सन्तुष्ट और बहुत हलका, फलका अनुभव कर रहे थे।