सिन्धुराज के राज्य में बकमुआर नामक एक भयंकर दस्यु हुआ। उसने युवावस्था के 20 वर्षों में हजारों का कत्ल किया और प्रचुर सम्पदा लूटी। पकड़े जाने पर उसे मृत्यु दण्ड मिला।
उस समय उसके सम्बन्धी मिलने आये, तो उसने अपनी माता से मिलने से इनकार कर दिया। कारण पूछने पर कहा-बचपन में मैं स्वर्ण मुद्रा चुराकर लाया और वह माता को दी, तो उसने मेरी चतुरता को सराहा ही नहीं, प्यार भरा पुरस्कार भी दिया। उस दिन के बाद से बदला जीवन आज इस परिणति के रूप में है उसी माँ के प्रोत्साहन का प्रतिफल है कि मैं इतना नीच बना और मृत्युदण्ड का भागी हुआ।
एक बार एक वृद्ध ने, कोठी से निकलते हुये किसी भद्रपुरुष से पूछा-क्या आप मुझे इस कोठी के स्वामी से मिला देंगे।”
“क्या काम है उनसे, मुझसे कहिये?” भद्र पुरुष ने कहा।
“मेरी बेटी का विवाह है। तीन सौ रुपये चाहिये, हुजूर! यदि रुपये मिल गये, तो मैं अपनी बेटी का विवाह कर सकूँगा” वृद्ध ने कहा।
“आओ मेरे साथ” और भद्र पुरुष वृद्ध को कार में अपने साथ बैठाकर ले गया। थोड़ी दूर जाकर कार रुकी। भद्र पुरुष उतरे और सामने खड़ी बिल्डिंग में प्रवेश कर गये। जाते-जाते वह वृद्ध को भी पास के एक बरामदे में बैठने को कह गये।
थोड़ी देर बाद एक चपरासी बरामदे में आया और वृद्ध को पाँच सौ रुपये सँभालवाते हुए बोला-भाई यह पाँच सौ रुपये है। तीन सौ में अपनी बेटी का विवाह करना और बाकी दो सौ से विवाह के बाद कोई धन्धा कर लेना जिससे आगे की आजीविका चलती रहे।
वृद्ध ने रुपये तो ले लिये, किन्तु बोला - “भाई! मुझे उस कोठी के स्वामी तो मिले नहीं।”
अभी-अभी जिनके साथ बैठकर आप इस दफ्तर में आये हैं, वे ही हैं उस कोठी के स्वामी "बाबू चितरंजन दास" चपरासी ने कहा।
सारा समाज जिनके लिए एक परिवार है, उन्हें दूसरों की पीड़ा भी लगती हैं। वे दुःखी पीड़ितों को न केवल साधन देकर अभाव की पूर्ति करते हैं, अपितु ऐसी प्रेरणा भी देते हैं कि वे स्वावलम्बन भरा जीवन जी सकें यही सरलता व्यवहार की सदाशयता का उन्हें महामानव पद से विभूषित करती है।