उद्धरेदात्मनात्मानम् (Kahani)

December 1995

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दैत्य हिरण्यकश्यप जन्मा तो भगवान ने नृसिंह अवतार लिया और उसका विनाश कर वापस चले गये। अहंकारी बलि का दर्प चूर करने वामन रूप में अवतरित होना पड़ा। रावण के अत्याचारों से दुखी ऋषि-मुनियों के उद्धार के लिए राम रूप में आकर रावण से संग्राम करना पड़ा और आतातायी कंस, चाणूर और कौरव-पाण्डवों से जूझने और उन्हें परास्त करने में श्रीकृष्ण भगवान का जीवन बीत गया।

कहते हैं कि इस सब मारा-मारी से दुखी होकर भगवान पीपल के वृक्ष के नीचे लेटे-लेटे चिन्तन कर रहे थे कि किसी व्याध ने तीर का वार कर दिया। जिससे उन्हें प्राण छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

उस समय उनके पास उनका सारथी खड़ा था। भगवान का अन्तिम समय देखकर सारथी ने पूछा “प्रभो कोई अन्तिम संदेश या उपदेश हो तो कहते जाइए”। अब आप अगली बार किसी रूप से प्रकट होंगे। भगवान बोले। मैं बार-बार पृथ्वी पर आकर मनुष्य की सहायता करते-करते थक गया हूँ। इस प्रकार की प्रत्यक्ष सहायता से मनुष्य में परावलम्बन ही बढ़ा है। आगे मेरा अवतार लेने का मन नहीं है। सारथी बोला किन्तु देव! हम मनुष्यों का उद्धार कैसे होगा कौन करेगा? भगवान बोले-मैंने गीता में उपाय बता दिया है। “उद्धरेदात्मनात्मानम्” मनुष्य अपना उद्धार करने में स्वयं समर्थ है। वह पुरुष है। पुरुषार्थ की सामर्थ्य उसे परमपिता परमात्मा से विरासत में मिली है। देवी-देवताओं के सामने गिड़गिड़ाते उसे शोभा नहीं देता। सारथी बोला-फिर भी प्रभो आपकी सहायता आवश्यक है। भगवान बोले-ठीक है अब आगे से पुरुषार्थ तो पुरुषार्थी पुरुष को ही करना पड़ेगा। मैं मार्ग दर्शन करने और संघबद्ध करने किसी न किसी रूप में आता रहूँगा। तब से बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, समर्थ, रामकृष्ण, ईसा, मूसा के रूप में अनेक बार भगवान आते रहे हैं और अपना काम करके चले जाते हैं।


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