कर्म का कौशल ही योग

December 1995

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जीवन की सफलता की बात यदि गम्भीरता से सोची गई हो, सच्चे मन से उसके लिए प्रयास करने का उत्साह उठा हो तो उसके लिए एक उपाय है कि दैनिक कार्यों का स्वरूप और स्तर ऊँचा उठा दिया जाय।

परिस्थितिवश कार्य का स्वरूप कुछ भी हो सकता है। जो भी काम करने पड़ें उन्हें सामान्य-असामान्य का भेद किए बिना उत्साहपूर्वक करना चाहिए। अमुक काम समाज में सम्मानित समझा जाता है अमुक छोटे लोगों का मान जाता है इस झंझट में पड़ने की आवश्यकता नहीं है। काम न कोई छोटा है, न बड़ा अपने-अपने स्थान पर सभी की उपयोगिता है। जो व्यक्ति अपने हाथ से काम नहीं करता और आराम तलबी में पड़ा रहता है। वहाँ बड़ा आदमी है ऐसे उल्टे विचारों को जितना जल्दी हो, समाप्त किया जाना चाहिए। खेलों और कारखानों में होने वाले उत्पादन के अभाव में सर्वत्र भुखमरी फैल जायेगी। परिस्थिति और आवश्यकता के अनुरूप जहाँ जो कार्य मिले, उन्हें ही अपनाया जा सकता है। तथाकथित सम्मानित काम ढूँढ़ने के लिए बेकार बैठना सर्वथा अनुपयुक्त है।

आजीविका के लिए किया जाने वाला कार्य हो या निजी कहलाने या नित्यकर्म समझे जाने वाले क्रिया−कलाप, इन्हें करने की प्रक्रिया और दृष्टि समुन्नत होनी चाहिए। यह समावेश हो जाने से छोटे काम भी बड़े व्यक्तित्व बनाने की श्रेणी में गिने जाने योग्य हो जाते हैं। काम छोटे-बड़े का महत्व नहीं, वरन् कार्य करने की पद्धतियाँ कर्म में पूर्ण सफलता दिलवाती हैं। विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार एच. जी. वेल्स के जीवन में कार्य को सही गति से सम्पन्न करने की विधा ही कारण सफलताएँ मिलती चली है। गरीबी के कारण छोटी उम्र में ही एक कपड़े की दुकान पर सेल्स मैन की नौकरी करनी पड़ी, परन्तु उस किशोर से भाग्य के सहारे जीवन नैया को नहीं छोड़ा, वरन् कर्मनिष्ठा की पतवार लेकर उसे मनचाही दिशा में खेने लगा। इसी बीच समाज को अपनी लेखनी से दिशा देने का संकल्प उसके मन में उभरा, बस उसने इसी दिशा में अपने सारे प्रयत्न अपनी समस्त गतिविधियाँ मोड़ दीं। सुबह से शाम तक दुकान में काम करते। रात को छुट्टी पाते तो घर आकर पढ़ने लगते। देर रात तक अध्ययन चलता। कुछ दिनों पश्चात् दुकान में भी पुस्तकें साथ लाने लगे और जितने समय कोई ग्राहक न आता, वे पढ़ाई में लगे रहते। वर्षों इस प्रकार अध्ययन के लिए समय निकालते रहे। फिर उन्होंने लेखन प्रारम्भ किया और व्यक्ति व समाज को दिशा देने वाले लख कहानियों की धूम मच गई। साधारण स्थिति में रहकर भी असाधारण कार्य तभी सम्भव बन पड़ते हैं, जब अपने अन्दर कार्य के प्रति लगन उत्साह और निष्ठा हो। हिन्दी साहित्य की महान विभूतियाँ मुंशी प्रेमचन्द्र, जयशंकर प्रसाद, महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला आदि के जीवन में भी यही कर्मनिष्ठ दिखाई देती है। इसी कारण जीवन के आरम्भिक दिनों में वे छोटे कार्य करके भी साहित्य क्षेत्र में दे दी नक्षत्र की भाँति उभरे और दूसरों को प्रकाश प्रेरणा देते रहें।

धर्म निष्ठा होने का गौरव प्राप्त करना अन्य सभी सफलताओं से बढ़कर है। यदि काम ईमानदारी और दिलचस्पी के साथ किया जाय तो उसका परिणाम ऐसा सुन्दर एवं सुखद होता है, जिस पर सहज गर्व किया जा सके। बेगार भुगतने की तरह हाथ के कार्य को किसी तरह निपटाने वह निश्चित रूप से आधा-अधूरा काना-कुबड़ा ही बन सकेगा, किन्तु उसे प्रतिभा का प्रश्न बनाकर और सारी कुशलता को दाव लगा दिया जाय, तो जो उपलब्धि होगी, उसे निःसन्देह उत्कृष्ट कहा जायेगा। भारत के लब्ध प्रतिष्ठित अभियन्ता एवं समाजसेवी श्री विश्वेश्वरैया ने अपनी पुस्तक “मेरे कामकाजी जीवन के संस्मरण” में एक घटना का उल्लंघन किया है उन दिनों वे मैसूर राज्य के दीवान थे। एक दिन सरकारी काम से कहीं दौरे पर जा रहे थे। मार्ग के एक स्कूल में एक सूचना किसी प्रकार पहुँच गई। स्कूल के अध्यापकों ने श्री विश्वेश्वरैया से बच्चों के लिए कुछ कहने का अनुरोध किया। विश्वेश्वरैया बिना पहले से सोचे समझे और तैयारी किए किसी सार्वजनिक संस्था में नहीं बोलते थे। पर बच्चों के प्रेमवश उन्होंने यों ही दो-चार बातें कह दीं बच्चे और अध्यापक सभी खुश हो गये, पर विश्वेश्वरैया को संतुष्टि नहीं मिली उन्होंने बाद में सूचना देकर फिर से अपना कार्यक्रम निर्धारित कराया। फिर उन्होंने एक सारगर्भित और शिक्षाप्रद भाषण दिया, जिससे छात्रवृन्द ही नहीं, समस्त ग्रामवासियों को बहुत प्रेरणा मिली। अगर वे यह सोचकर रह जाते कि छोटे लड़के अच्छे और साधारण भाषण के अन्तर को नहीं समझ सकते तो उनसे कोई कुछ कहने वाला नहीं था, पर उनका आरम्भ से ही सिद्धान्त था कि कोई भी काम कभी घटिया ढंग से नहीं करना चाहिए। उथले स्तर द्वारा कार्य की खानापूर्ति भले ही कर दी जाय, पर उसमें स्थायित्व नहीं आ सकता। इसलिए कैसा भी अवसर क्यों, न हो, मनुष्य को अपना स्तर नहीं घटाना चाहिए। ऊँचा स्तर रखने से उसका प्रभाव अच्छा ही पड़ता है।

काम साधारणतया थकान उत्पन्न करता है। उसमें शक्ति व्यय होती है अस्तु हर कोई श्रम से बचना और आराम से समय काटना चाहता है। वास्तविकता में इसे प्रारम्भिक अवस्था कहा जा सकता है। यदि किसी भी प्रकार कार्य में रुचि जाग जाय, निष्ठा उत्पन्न हो जाय, तो फिर थकान की शिकायत समाप्त हो जाती है। फिर वह खेल का रूप ले लेता है। उसे जितना भी किया जाय, प्रसन्नता मिलती जायेगी और उत्साह बढ़ता जायेगा। बच्चे उठने से लेकर सोने तक खेलते रहते हैं। इसमें उन्हें कितनी उछल-कूद करनी पड़ती है। इसका लेखा-जोखा लिया जाय तो शरीर के अनुपात को देखते हुए वह लगभग उतना ही हो जाता है जितना कि किसी श्रमिक को आठ घंटे की मजूरी में करना होता है। इतने पर भी बच्चों में थकान और उदासी के चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते। काम को भार या पराया समझकर उदास मन से किया जाता है तो ही वह भारी पड़ता है। विनोद की तरह किये गये कामों में जितनी शक्ति खपती है, उतना ही विनोद के मनःस्थिति में कारण दूसरी ओर से मिलती जाती है। इस प्रकार पूरी निष्ठा व लगन के साथ किये गये काम से मनुष्य की सुषुप्त शक्तियों का जागरण होता है। कार्य करने की क्षमता और शक्ति का विकास होता है।

कार्य की सफलता के साथ व्यवस्था, सफाई, स्वच्छता का होना भी आवश्यक है। इससे सौंदर्य आकर्षण तथा उत्कृष्टता कर्म में उत्पन्न होती है। गन्दगी वातावरण को अशुद्ध बनाकर घृणा को जन्म देती है।

छोटे-मोटे रूप धारण करके कर्म सफलता के द्वार को खटखटाना है। किन्तु छोटा काम समझकर उसके प्रति उपेक्षा रखना, सफलता के सोपान से गिरने के समान है। प्रत्येक महान व्यक्ति अपने नन्हें-नन्हें कामों के पुञ्ज से ही महान बनते हैं। यदि मनुष्य इच्छानुसार कार्य की प्रतीक्षा करता रहे, तो अपना सम्पूर्ण जीवन यों ही खो बैठेगा। अरुचिकर कामों की सूची बनाना इस बात प्रतीक है कि वह व्यक्ति आलसी प्रमादी है। ऐसे लोग काम टालने और काम से जी चुराने की वृत्तियों के कारण सदैव हीन अवस्था में पड़े रहते हैं।

कर्म में धैर्य और निष्ठा का होना सफलता के लिए आवश्यक है। जिस भाँति कलाकार अपनी कला को तल्लीनतापूर्वक निखारता है कर्मठ व्यक्ति को अपने कर्म में उसी प्रकार की तल्लीनता और आनन्द प्रदर्शित करना चाहिए। कर्म को व्यापार मानकर करने से आनन्द का अतीव बना रहता है।

“योगः कर्मसु कौशलम्” गीता का यह वाक्य कार्य पद्धति की कुशलता पर जोर देता है। कुशलता पूर्वक किये गये काम में कभी भी असफलता नहीं मिलेगी। छोटे से छोटा कार्य भी यदि कुशलता पूर्वक निर्वाह किया गया तो उस कार्य की सफलता किसी महान कार्य की श्रृंखला भी कड़ी बनकर जीवन के महत् मार्ग को खोल देने में समर्थ होती है।

समाज के विकास के साथ ही व्यक्ति के विकास की सम्भावना जुड़ी है। समाज में पृथक् रह कर अथवा उसके हित की ओर से विमुख होकर कोई व्यक्ति उन्नति नहीं कर सकता। जब-जब मनुष्यों के बीच सामाजिक भावना का ह्रास हो जाता है तब-तब समाज में कलह और संघर्ष की परिस्थितियाँ बढ़ने लगती हैं। चारों ओर अशान्ति और असुरक्षा का वातावरण व्याप्त रहने लगता है। समाज की प्रगति रुक जाती है। और उसी के साथ व्यक्ति की प्रगति भी। इसी हानि को बचाने के लिए हमारे समाज के निर्माता ऋषियों ने वेदों में स्थान-स्थान पर पारस्परिक सहयोग और सद्भावना का उपदेश दिया है- बताया गया है-

“अज्येष्ठा सो कनिष्ठासः सं भ्रातरो वावध सौभागाय”

इस वेद वाक्य का आशय यही है कि हम सब प्रभु की संतान एक दूसरे के भाई है। हममें न कोई छोटा है और न बड़ा। यह एक उत्कृष्ट सामाजिक भावना है। इसी भावना के बल पर ही तो भारतीय समाज संसार में सबसे पहले विकसित और समुन्नत हुआ। इसी भावना के प्रसाद से उसके व्यक्तियों ने संसार में सभ्यता का प्रकाश फैलाने का श्रेय पाया है और इसी बंधुत्व की भावना के आधार पर वह जगद्गुरु की पदवी पर पहुँचा है।

इसके विपरीत जब से भारतीय समाज की यह वैदिक भावना क्षीण हो गई वह पतन की ओर फिसलने लगा और यहाँ तक फिसलता गया कि आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक गुलामी तक भोगनी पड़ी है। किन्तु अब वह समय फिर आ गया है कि भारतीय समाज अपनी प्राचीन बंधु भावना को समझे, उसे पुनः अपनाये और आज के अशान्त संसार में अपने वैदिक आदर्श की प्रतिष्ठा द्वारा शान्ति की स्थापना का पावन प्रयत्न करे।

शाश्वत सिद्धान्त है कि दूसरों को उपदेश देने और मार्ग दिखलाने का वही सच्चा अधिकारी होता है इसका आचरण स्वयं उसके आदर्श के अनुरूप हो। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पहले हम अपनी भावनाओं और व्यवहार में सुधार करें उसमें पारस्परिक भाई-चारे का समावेश करें और तब संसार के सामने वसुधैव-कुटुम्बकम् का आदर्श उपस्थित करें। इस सुधार को सरल बनाने के लिए सबसे पहले व्यक्ति और समाज और सम्बन्ध समझ लेना होगा। एक के विचारों और कार्यों का दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है यह जान लेना होगा।

जीवन में निवास करने के लिए कुछ साधन परिस्थितियाँ और कुछ सहयोग अपेक्षित होता है। यह सब सुविधाएँ समाज में समाज द्वारा ही प्राप्त होती है। एक अकेला व्यक्ति न तो इन्हें उत्पन्न कर सकता है और न इनका उपयोग। इनके लिये ऐसे समाज पर ही निर्भर होना होगा। विभिन्न शिक्षण संस्थाएँ, उनमें कार्य करने वाले व्यक्ति जीवन निर्वाह के साधन, ज्ञान-विज्ञान की सुविधाएँ अन्वेषण आविष्कार, व्यापार, व्यवसाय अनुभव और अनुभूतियाँ आदि मानव विकास के जो भी साधन माने गये है उनकी उत्पत्ति समाज के सामूहिक प्रयत्नों द्वारा ही होती है। किसी का मस्तिष्क काम करता है तो किसी के हाथ पाँव, किसी का धन सहयोग करता है तो किसी का साहस इस प्रकार जब पूरा समाज एक गति ओर एक मति होकर अभियान करता है तभी व्यक्ति समूह दोनों के लिए कल्याण के द्वार खुलते चले जाते है और एक अकेला व्यक्ति संसार में कभी कुछ नहीं कर सकता।

समाज में पृथक् रहकर अथवा समाज के सहयोग के बिना व्यक्ति एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। कोई विशेष प्रगति कर सकना तो दूर इस पारस्परिकता के अभाव में जीवन ही संदिग्ध हो जाय। जीवन की सुरक्षा और उसका अस्तित्व समाज के साथ ही सम्भव है। समाज की शक्ति का सहारा पाकर ही हमारी व्यक्तिगत क्षमताएँ एवं योग्यताएँ प्रस्फुटित होकर उपयोगी बन पाती है। यदि हमारे गुणों और शक्तियों को समाज का सहारा न मिले तो वे निष्क्रिय रहकर बेकार चली जाएँ। उनका लाभ न तो स्वयं हमको ही होगा और न समाज को। सच्ची बात तो यह है कि व्यक्तिगत जीवन नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं है। हम तब व्यक्ति रूप में दीखते हुए भी समष्टि रूप में जीते हैं। व्यक्तिवाद को त्याग कर समष्टिगत जीवन को महत्व देना ही हम सबके लिये हितकर तथा कल्याणकारी है। समष्टिगत जीवन और समूहगत उन्नति ही हमारा ध्येय होना चाहिए। वह कितना विकसित और शक्तिशाली बनता जायेगा उसी अनुपात से हमारा व्यक्तिगत जीवन भी बढ़ता जाएगा।

समाज जब समग्र रूप से निर्बल हो जाता है तो उस पर सामूहिक संकटों का सूत्रपात होने लगता है। उस सामूहिक संकट से व्यक्तिगत रक्षा कर सकना सम्भव नहीं होता। निर्बल समाज पर जब बाहरी आक्रमण होता है अथवा कोई संक्रामक रोग फैलाता है तब व्यक्ति उससे अपनी रक्षा कर पाने में सफल नहीं हो पाता फिर वह अपने आप में कितना ही शक्तिशाली एक स्वस्थ क्यों न हो। ऐसी समूहगत संक्रान्ति से सामूहिक रूप से ही रक्षा सम्भव हो जाती है। समाज की शक्ति ही व्यक्ति की वास्तविकता शक्ति है। इस सत्य को कभी भी न भूलना चाहिए। अपनी शक्ति का उपयोग एवं प्रयोग भी इस दृष्टि से करना चाहिए। जिससे हमारी व्यक्तिगत शक्ति भी समाज की शक्ति बने और उलटकर वह व्यापक शक्ति हमारे लिये हितकर बन सके।

समाज की शक्ति ही व्यक्ति को वास्तविक शक्ति मानी गई है व्यक्ति का अकेला शक्तिशाली होना कोई अर्थ नहीं रखता-अस्तु समाज को शक्तिशाली बनाने के लिये हमें चाहिए कि हम अपने समग्र व्यक्तित्व को उसमें ही समाहित कर दें जो कुछ सोचें समाज को सामने रख कर सोचें, जो कुछ करें समाज के हित के लिये करें। यदि हम ऐसी समष्टि प्रबन्ध चेतना को स्थान नहीं देते और अपने व्यक्ति की सत्ता को अलग कल्पना कर उसी तक सीमित रहते हैं तो एक प्रकार से समाज को निर्बल बनाने की गलती करते हैं हमारी यह अहंकार पूर्ण भावना का समाज विरोधी कार्य होगा। इसका कुप्रभाव समाज पर पड़ेगा ही पर हम सब स्वयं भी इस असहयोग से अछूते न रह सकेंगे। यह हमारा यह सामाजिक पाप प्रकाश में आ जायेगा और तब हमको पूरे समाज के आक्रोश तथा असहयोग का लक्ष्य बनाना पड़ेगा। हम जैसा करेंगे वैसा ही भरा होगा। इस न्याय से बच सकना सम्भव नहीं। इस संकीर्ण मनोवृत्ति का कुप्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर एक प्रकार से और भी पड़ता है। वह है उसका मानसिक पतन। ऐसे असामाजिक वृत्ति के लोगों का अंतर आलोक हीन होकर दरिद्री बन जाता है। उसके सोचने और समझने की शक्ति न्यून हो जाती है। उसकी क्षमताओं, योग्यताओं और विशेषताओं का कोई मूल्य नहीं रहता।

असामाजिक भाव वाले व्यक्तियों की शक्ति को समाज अपने लिये एक खतरा समझने लगता है और कोशिश करता है कि वे जहाँ की तहाँ निष्क्रिय एवं कुण्ठित होकर पड़ी रहे। उन्हें विकसित अथवा सक्रिय होने का अवसर न मिले। ऐसे प्रतिबन्धों के बीच कोई असहयोगी व्यक्ति अपना कोई विकास कर सकता है-यह सर्वथा असम्भव है। समाज के निषेध से जहाँ व्यक्ति की असाधारण शक्ति भी सीमित ओर वृथा बन जाती है, वहाँ समाज में समाहित होकर किसी की न्यून एवं साधारण शक्ति भी व्यापक और असाधारण बन जाती है। अपनी एक शक्ति समाज के लिये संयोजित कर व्यक्ति असंख्य शक्तियों का स्वामी बन सकता है।

समाज को अपनी शक्ति सौंप कर उसकी विशाल शक्ति को अपनाने के लिये हमें चाहिए कि हम अपने भीतर सामूहिक भावना का विकास करें। हमारा दृष्टिकोण जीवन के क्षेत्र में अपने पर से प्रेरित न होकर समाज की मंगल-भावना से प्रेरित हो। हम अपना कदम उठाने से पूर्व अच्छी तरह यह सोच लें कि इसका प्रभाव समाज पर क्या पड़ेगा। यदि हमें अपने इस कदम से समाज का जरा भी अहित दिखलाई दे तो तुरन्त ही उसे स्थगित कर देना चाहिए। हमारे लिये वे सारे प्रयत्न त्याज्य होने चाहिए। जिनमें व्यक्तिगत लाभ भले ही दिखता हो पर उससे समाज का कोई अहित होने की सम्भावना न हो। व्यक्ति की वास्तविक शक्ति समाज की शक्ति है, समाज के हित में ही उसका हित है, इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति को पीछे रखकर जीवन के हर क्षेत्र में सामाजिक दृष्टि को ही आगे रखा जाय।


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