खोल कर तो देखिये, - चमत्कारों से भरी इस पिटारी को

December 1995

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मस्तिष्कीय क्षमताएँ ईश्वर प्रदत्त हैं। उनके उपार्जन अभिवर्द्धन में अपना कोई हाथ नहीं ऐसा सोचना गलत है। मनुष्यों की मस्तिष्क संरचना की तरह नगण्य-सा अन्तर रहता है। किसी की समर्थता-असमर्थता देखकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए कि प्रसुप्ति को जगाने के संदर्भ में कहीं कम नहीं अधिक प्रयत्न हुए। “मेग्नेटिक रेजोनेन्स इमेजिंग” एवं “पॉजीट्रान एमीशन टोमोग्राफी” जैसे शक्तिशाली वैज्ञानिक यंत्रों ने मानवी मस्तिष्क के सम्बन्ध में अनसुलझे प्रश्नों को सुलझा दिया है। ‘टाइम’ पत्रिका के जुलाई 95 में छपे लेख में सेनडियागो (कैलीफोर्निया) यूनिवर्सिटी को प्रोफेसर पेट्रिका का चर्च लैण्ड लिखते हैं- “कितना मजेदार एवं गंभीर तथ्य है कि अब वह क्षण आ गया है जब जो प्रश्न ग्रीक दार्शनिकों के द्वारा उठाये गये थे उसका समाधान एवं तथ्य अब विज्ञान प्रस्तुत कर रहा है। जानकारी के नये आयाम प्लेटो, देकार्ते अरस्तू एवं वेदों में वर्णित मस्तिष्क के दार्शनिक एवं चेतनात्मक पक्ष को तर्क तथ्यों के साथ प्रमाणित कर रहे हैं।

मनोविज्ञानी, जीवविज्ञानी, तंतुविज्ञानियों के अनुसार अब यह स्पष्ट हो गया है कि शरीर संचालन में स्वास्थ्य के निर्धारण में, भावनात्मक उतार-चढ़ाव में मस्तिष्क की महत्वपूर्ण भूमिका है ईश्वर प्रदत्त यह धरोहर इतनी बहुमूल्य है जिसमें प्रतिभा, निर्णयात्मक बुद्धि, ग्रहणशीलता, जागृति एवं अपने अस्तित्व की अनुभूति आदि बहुमूल्य चीजों का निवास है। इसका स्थान कहाँ हैं? यह कार्य कैसे करता हैं? क्या यह विशुद्ध भौतिक प्रक्रिया है जिसे आँखों से देखा जा सकता है, या सूक्ष्म प्रक्रिया है जो मस्तिष्कीय सूक्ष्म सेल के आपसी विद्युतीय आवेशों का परिणाम है, जो कोई रासायनिक प्रक्रिया है जो जटिल है, या कोई ऐसा चमत्कार है जो भौतिक विज्ञान से दूर सूक्ष्म एवं आध्यात्मिक मानदण्डों के निकट है, इन प्रश्नों का उत्तर अब विज्ञान देने लगा है। जिसे दार्शनिकों, अध्यात्मवादियों, विचारकों में देख अनुभव किया एवं वेदों, उपनिषदों आर्य वाङ्मय में जिसका उल्लेख मिलता है।

दार्शनिक विचारकों ने इस सम्बन्ध में सोचने में कहीं कमी नहीं रखी है, प्लेटो ने स्पष्ट इंगित किया है “चूँकि मस्तिष्क का आकार ब्रह्माण्ड की तरह गोल है अतः जीवन संचालन का केन्द्र बिन्दु मस्तिष्क के अंदर ही है जिसे मन कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार मनुष्य का संचालन केंद्र हृदय है उनने कारण बताते हुए कहा कि-हृदय का पम्प खून को गरम रखता है यही उष्णता, मनुष्य को जीवन प्रदान करती है। मध्यकाल में दार्शनिक का एक मत था कि मन का स्थान मस्तिष्क है किन्तु इसके सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी किसी को नहीं थी। परन्तु सत्रहवीं शताब्दी में फ्रेंच दार्शनिक रेनेदेकार्ते द्वारा स्पष्ट किया गया कि मस्तिष्क के ज्ञान-तंतु ही शरीर का संचालन करते हैं। इसके लिए वे एक पंक्ति बोला करते थे-कोगिटी अगौसम” मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूँ। अर्थात् मानवी चेतना ही अपने आप में प्रमाण है कि ‘मेरा अस्तित्व है।

अन्ततः कुछ वर्ष पहले विज्ञान पर पड़ा पर्दा उठा कि मन और मस्तिष्क का सम्बन्ध प्रयोग एवं परीक्षण के परे है। परन्तु विज्ञान ने दर्शन को प्रयोग परीक्षण के आधार पर स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया। एम. आर. आई. एवं केट स्केन जैसे अति संवेदनशील उपकरणों के इलेक्ट्रोड्स के माध्यम से उनने जीव-जंतुओं तथा मनुष्यों के मस्तिष्क के ग्रे मैटर का परीक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। जानना यह चाहते थे इनका मस्तिष्क, भावनात्मक, स्मरण शक्ति के केन्द्र कैसे कार्य करते हैं। इतना स्पष्ट शोध कार्य सफल होने के कारण जॉन हापकीन्स ने जेन वाइल क्रेजर माइण्ड ब्रेन इंस्टीट्यूट एवं विज्ञानी हार्वर्ड ने “माइण्ड ब्रेन बिहेवियर संस्थान” की स्थापना की। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हैल्थ जैसे दूसरे संगठनों की प्रार्थना पर तत्कालीन राष्ट्रपति श्री जार्ज बुश ने 1990 की दार्शनिक को “ब्रेन डिकैड” (मस्तिष्कीय शोध की दशाब्दी नाम दिया)।

आयोवा विश्वविद्यालय के तंतु विज्ञानी (न्यूरोलॉजिस्ट) एन्टानियोडायमेसो ने अपनी पुस्तक “देकार्ते ऐरर” में यह तर्क प्रस्तुत किया है कि “देकार्ते का यह कहना गलत है कि मन और शरीर दोनों का सम्बन्ध नहीं है, दोनों स्वतंत्र है।” उनने अपने शोध निष्कर्षों में बताया है” शरीर मस्तिष्क द्वारा संचालित होता है। जिस तरह इन्द्रधनुष प्रकाश एवं वर्षा के सम्मिलित स्वरूप का परिणाम है वैसे ही मस्तिष्क एवं शरीर का सम्बन्ध शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के इन्द्र धनुष को प्रदर्शित करता है। संवेदना निश्चित रूप से विशेष भूमिका निभाती है तभी तो भाव संवेदना के आधार पर शरीर में रासायनिक परिवर्तन होते हैं। यहाँ तक कि स्मरण शक्ति, भाषायी ज्ञान एवं अनुवाद करने की सामर्थ्य भी मस्तिष्क पर निर्भर है! जैसे-जैसे न्यूरोलॉजिस्ट गहरे ज्ञान के सागर में गोते लगा रहे हैं वैसे-वैसे मस्तिष्क के चमत्कार के दर्शन उन्हें हो रहे हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ आयोवा के न्यूरोबायोलॉजी के प्रोफेसर सेमीर जेकी ने केट स्केन के आधार पर मस्तिष्कीय इलेक्ट्रोड्स द्वारा देखा कि यह यंत्र खून के रंग एवं जीवनी शक्ति के आधार पर ट्रेकिंग करता है। जब मस्तिष्क का कोई हिस्सा काम करता है तो वह क्षेत्र प्रकाशित हो उठता है। यह प्रकाशित भाग न्यूरान कहलाता है जो दूसरे 15,000 ट्रिलान्स से जुड़े रहते हैं। जब कोई व्यक्ति सोचता है तब मस्तिष्क के न्यूरान सक्रिय होते स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं जबकि पढ़ते या बोलते समय नहीं मातृभाषा में सक्रियता नहीं होती जबकि अन्य भाषाओं में मस्तिष्क पर जोर अधिक पड़ने के कारण सक्रिय हो उठता है।

हम सोचते हैं कि स्मरण शक्ति का कोई अलग कार्यक्षेत्र होगा किन्तु ऐसा नहीं है। मस्तिष्क में जब कोई भी ज्ञान प्रवेश करता है तो वह तत्काल ‘विद्युत इम्पल्स” में बदल जाता है। यह विद्युत प्रवाह मिलियन सेकेण्ड में समाप्त भी हो जाता है और इतने ही समय में न्यूरान्स से सम्बन्ध जुड़ जाता है। जिससे पिछली स्मृतियाँ सजीव हो उठती हैं। सामान्य क्रम में देखा या सोचा गया तथ्य स्मृति में नहीं जाता क्योंकि वह इम्पल्स में नहीं बदलता इसलिए जिसमें हमारी रुचि नहीं, उसकी स्मृतियाँ मस्तिष्क में नहीं होती। वृद्धावस्था में याददाश्त कमजोर हो जाती है। क्योंकि इम्पल्स नहीं बनते। उसके लिए यदि बाह्य साधनों से विद्युतीय इम्पल्स को भेजें तो स्मरण शक्ति बढ़ सकती है, यह प्रक्रिया जब हम ध्यान करते हैं-एवं मन को एकाग्र करते हैं, जो कि ब्रह्ममुहूर्त में हो तो सुनिश्चित रूप से होता है। अर्थात् जो व्यक्ति नित्य ध्यान करते हैं उन्हें बुढ़ापे में “याददाश्त कमजोर” की शिकायत रहती है। विशेषकर ध्यान के साथ किसी मंत्र का उच्चारण, प्रार्थना, संगीत स्मरण शक्ति को प्रभावित करते हैं, ऐसा विचार एवं शोध कार्य विज्ञानी लैरी स्ववेयर का है। इसी आधार पर मासैल प्रोस्ट ने “ रिमेम्बरेन्स आल थिंग पास्ट” जैसे ग्रन्थ को लिखा है।

प्रतिभावानों की स्मृतियों एवं भावनाओं का क्षेत्र। "हिप्पोकेम्पस" है। एक व्यक्ति का ब्रेन सर्जरी के दौरान हिप्पोकेम्पस समाप्त हो गया था फलस्वरूप सर्जरी के पहले वाली घटनाओं की स्मृति है किंतु नई स्मृति, कला, संगीत, साहित्य क्षेत्र की स्मृतियाँ सदैव के लिए समाप्त हो गई हैं।

स्मरण शक्ति बाल्यावस्था से ही प्रभावित होती है। यदि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में इन स्नायुकोषों को जाग्रत नहीं किया गया तो मस्तिष्क काम करना बन्द कर देता है। बाल्यावस्था में जिन बच्चों को स्मृति वाले काम नहीं दिये जाते-दिमाग वाले काम नहीं दिये जाते, तो आगे चलकर स्मृति वाला तंत्र कार्य करना बंद कर देता है। अमेरिका में प्रकाशित आँकड़े इन तथ्यों को स्पष्ट कर करते हैं। वहाँ बाल्यावस्था में ही कम्प्यूटर मस्तिष्क, कैलकुलेटर के अत्यधिक प्रयोग के कारण प्रतिभावान बालक नहीं बन पाते। देश में कार्य कर रहे नब्बे प्रतिशत डॉक्टरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों का समुदाय एशिया से आया हुआ है। सिलिकान वेली अमेरिका (जहाँ कम्प्यूटर चिप्स बनते हैं) में सत्तर हजार इंजीनियर भारतीय हैं। यह हम पर निर्भर रहता है कि फर्मोट बाल्यावस्था में जो बनता है (किसी कम्प्यूटर फ्लॉपी की तरह और अनुपयोगी होने पर समाप्त हो जाता है। उसका या तो हम उपयोग करें या उसे गँवा बैठें।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के न्यूरोसर्जन डॉ. जार्ज ओजमेन ने यह पता लगाया है कि महिलाओं एवं पुरुषों की मस्तिष्कीय सामर्थ्य अधिक प्रतिभाशाली, भावनाशील, एवं जटिल समस्याओं को सुलझाने में दक्ष होती है। इस सम्बन्ध में तथ्य प्रस्तुत करते हुए उनने बताया कि महिलाओं के दोनों गोलार्ध कार्य करते हैं जबकि पुरुषों का एक। समस्याओं के समाधान में पुरुष दायें गोलार्ध का प्रयोग करते हैं, अतः जोर पड़ता है जबकि महिलायें दोनों गोलार्ध का, इन्हीं कारणों से भावनाओं को समझने में महिलायें पुरुषों से कहीं आगे हैं।

निश्चित रूप से शरीर पदार्थ विज्ञान है तो मस्तिष्क ब्रह्म विज्ञान। दोनों का अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में कहें तो ब्रह्म विज्ञान-मस्तिष्क शरीर-पदार्थ विज्ञान को संचालित करता है-यही ध्रुव सत्य है जिसे अब विज्ञान भी स्वीकार कर रहा है। मस्तिष्क ब्रह्माण्डीय चेतना का परमात्मा का प्रतीक है। मस्तिष्क जिस व्यापक चेतना केन्द्र के साथ आदान प्रदान स्थापित करने में समर्थ है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि परमात्मा और आत्मा के बीच विद्यमान एकात्मता की तरह मस्तिष्क भी विश्व चेतना के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहने के कारण उतना ही समर्थ-विशिष्टता से ओत-प्रोत है। इस चमत्कारी पिटारी को मनुष्य को खोलकर ऋद्धि-सिद्धियों से लाभान्वित होने का मौका मिला है तो उसका भरपूर उपयोग किया जाना चाहिए। साधना विज्ञान के व्यवहारिक स्वरूप को समझकर यह कार्य कोई भी सहज रूप में कर सकता है। हम नर पथ का जीवन जियें, जीवनावधि के एक पल का-कायपिंड के एक-एक कृपा का सदुपयोग करें, यही विधाता चाहता है।


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