विकास के मर्म को समझें

December 1995

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हर वर्ग और समाज से सम्बद्ध सभी मनुष्य गरीब मजदूर से लेकर धनी व्यापारी, अनपढ़, गँवार से लेकर उच्च शिक्षित विद्वान, सभी अपने द्वारा किये जाने वाले छोटे-बड़े कार्यों को विकास के निमित्त बताते हैं। अपनी वर्तमान स्थिति से एक कदम आगे बढ़ना ऊँचा उठना। यह मनुष्य की स्वाभाविक ललक भी है। जो इसकी प्राप्ति में कम तत्पर है उसे विकास हीन, जो पूरी तरह से जुआ हुआ है उसे विकासशील और जो इस पथ पर बहुत दूर तक चला गया है, उसे विकसित कहकर संतोष किया जाता है।

अर्थशास्त्री हो या वैज्ञानिक, समाज-शास्त्री मनोवैज्ञानिक हो या दर्शन-शास्त्री सभी अपने चिन्तन एवं विचारणा की पोथियाँ रचने उनके ढेर लगाने के उद्देश्य के पीछे एक ही तथ्य उजागर करते हैं कि इन सब का तात्पर्य उन सूत्रों का निर्माण है जिससे मनुष्य जाति अपने विकास पथ पर बढ़ सके।

इतना सब होने के बाद भी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध प्रायः है। इसका एक मात्र कारण है कि चिन्तकों के सामने यह तत्व सुस्पष्ट नहीं है कि विकास क्या है? इसका सीधा-सादा अर्थ बनता है कि वर्तमान स्थिति से आगे की ओर बढ़ चलना ही प्रगति है। यह बात पुनः एक नये प्रश्न को जन्म देती है? वर्तमान स्थिति क्या है? इससे आगे कहाँ बढ़ा जाना चाहिए?

वर्तमान स्थिति पर विचार करने पर पाते हैं कि मनुष्य ने शारीरिक परिपक्वता पा ली है। शारीरिक स्तर पर आवश्यकता इसी चीज की है कि इसे स्वस्थ एवं सुव्यवस्थित रखा जाय। प्राणिक स्तर की परिपक्वता मानव अर्जित कर चुका है। इस धरातल को सुसंचालित करने के लिए यही आवश्यक है कि इसका अनावश्यक क्षरण न हो। तीसरा स्तर जिसे मनुष्य पा चुका है वह है चिन्तन का स्तर जिसे मानसिक स्तर कहा जा सकता है। मनुष्य की वर्तमान स्थिति इसी पर आधारित है। विकास की सर्वमान्य परिभाषा के अनुसार तो प्रगतिशीलता इसी को कहा जायेगा कि इसके आगामी स्तरों पर आरोहण हो। यदि ऐसा न होकर गति अधोमुखी हो तो उसे विनाश ही कहा जायेगा।

मानसिक धरातल पर आधारित मानव जीवन की छानबीन व सुसम्बद्ध अध्ययनों के अनेकों प्रयास मनोवैज्ञानिकों ने किए है। आधुनिक युग में इसकी प्रायोगिक शुरुआत वुण्ट ने की। वुण्ट के काल से लेकर हिंचनर के संरचनावाद, जान ऐंजेलों के प्रकार्यवाद, जान वी. वाट्सन के व्यवहार वाद और फ्रायड के मनोविश्लेषण वाद तक सभी मनोविज्ञानी अध्येताओं ने अपने-अपने अध्ययन के आधार पर यही स्वीकारा कि मनुष्य मानसिक धरातल पर जीता है। अब उसे आगे बढ़ना चाहिए तो कहाँ यह तथ्य आधुनिकतम मनोवैज्ञानिकों की समझ के परे है। एरिक फ्राम, एडलर तथा युँग ने इस सम्बन्ध में कुछ प्रयास अवश्य किये हैं। पर उसमें सुस्पष्टता नहीं है।

व्यापारी जहाँ धन बटोरने को विकास मानता है, पहलवान वहीं शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने को, वहीं विद्वान बुद्धि की कुशलता और प्रवीणता को, किन्तु ये सारी पक्ष एकांगी एवं अधूरे हैं। यदि ऐसा होता तो गड़े धन पर कुण्डली मारे सर्प, शक्ति सम्पन्न हाथी, गेंड़े बुद्धि की कुशलता से नित नये कारनामे दिखलाने वाला नर विकसित कहे जाते।

इन एकांगी मान्यताओं के कारण मानव जाति स्वयं ही अपनी राह अवरुद्ध कर बैठती है। उसे किसी ऐसे समाधान की तलाश है जो उसके इस मार्ग की अवरुद्धता को समाप्त कर दे। यही नहीं वह उसे भौतिक प्राणिक मानसिक सभी स्तरों पर संतुष्ट करने वाला ही। उसे सभी प्रकार की मूढ़ मान्यताओं एवं भ्रान्तियों से उबारे।

इन सभी भ्रान्तियों, ऊहापोह से मानव जाति को उबारने वाले सूत्र जिनसे जाति को उबारने वाले सूत्र जिनसे विकास के वास्तविक मर्म का पता चलता है। उपनिषदीय चिन्तन में पाये जाते हैं इसमें यही तो बताया गया है कि हमारे पूर्व विकास यात्रा के प्राणिज मानसिक भौतिक संस्कार होने के लिए बाधक हैं। परन्तु फ्रायड की तरह यह कह कर हार नहीं मानी गई कि अचेतन गतिशील और आदिम है तथा शैशव के अनुभवों एवं प्रवृत्तियों से पूर्ण हैं। वह मानव में पशु संस्कारों के रूप में सक्रिय हैं और निरन्तर मानव को गुलाम बनाये रखता है इसके चिन्तक मानव को फ्रायड के इपीपस कांप्लेक्स तथा लिबिडो का गुलाम ठहराकर कोल्हू के बैल की तरह इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने की बात नहीं करते। इनके विकास सिद्धान्त एडलर के अधिकार प्रेरणा और क्षतिपूर्ति की सिद्धान्त की तरह संकुचित नहीं हैं।

उपनिषदीय सूत्रों का अध्ययन स्पष्ट करता है कि विकास का यथार्थ तात्पर्य दिव्यता आत्म-ज्योति अतिमानस में प्रतिष्ठित होना है। मानव की सामान्य क्रिया विधि भी उद्देश्य के अनुरूप संचालित होनी चाहिए। श्री महर्षि अरविन्द ने अपनी पुस्तक “दी सिंथेसिस ऑफ योगा” में इसका समुचित वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने मनुष्य को वर्तमान आधार मन से ऊपर उठने को प्रेरित करते हुए आगामी आधारों की भी चर्चा की है। इन स्तरों को उन्होंने उच्चतर मन प्रकाशित मन अधिमानस तथा अतिमानस कहा है मन से ऊपर उठकर अतिमन में प्रतिष्ठित होना ही वास्तविक अर्थों में विकास है। जो इसमें प्रतिष्ठित हुआ है, वही विकसित है तथा जो इसके लिए प्रयत्नशील है वहीं विकासशील।

अन्य विधाओं के विशेषज्ञ विकास की इस धारणा पर आक्षेप प्रकट करते हुए यह कह सकते हैं कि मनुष्य इस स्तर पर प्रतिष्ठित होकर निम्न स्तरों से विमुख हो जायेगा। इस तरह समाज में उदासीनता फैलेगी। इस तरह का आक्षेप एक भ्रम ही है। मानसिक धरातल पर जीकर भी शरीर के प्रति किसी तरह की उदासीनता नहीं आती है। यह अवश्य होता है कि अन्य जीवों की तरह उसमें शरीर बुद्धि नहीं रहती। वह शरीर को यंत्र समझता है इसी तरह अरविन्द अपने ग्रन्थों में स्पष्ट करते हैं कि अति मानसिक विकास को प्राप्त किया हुआ व्यक्ति भी निम्न स्तरों से उदासीन न होकर उनका प्रयोग भी यंत्र की तरह करेगा। इस तरह सामाजिक जीवन अपेक्षाकृत उन्नत हो सकेगा, क्योंकि मनुष्य की गतिविधियाँ दिव्य चेतना से संचालित होंगी न कि फ्रायड के पशु संस्कारों से।

विकास के इस मर्म को हृदयंगम करने की आवश्यकता है। चिन्तन की अन्य विधाएँ भी आवश्यक हैं। साँसारिक वस्तुओं की भी आवश्यकता है पर वे मात्र साध नहीं है जिनको आवश्यकतानुसार उपयोग करना ठीक है न कि इनमें डूबे रहना। वास्तविकता को समझ कर विकास पथ पर आरूढ़ होने चल पड़ने में ही सार्थकता है। इस पर चलकर ही हम सही माने में विकासशील कह सकेंगे।


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