गुरुनानक देव के बेटे तपःपूत श्रीचन्द्र

December 1995

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भगवत् भक्ति से ओत-प्रोत योग साधन में कितनी शक्ति होती है। इसका उदाहरण सन्त श्रीचन्द्र के जीवन की अनेक घटनाओं से मिलता है। महात्मा श्रीचन्द्र गुरुनानक के सबसे बड़े पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता से ही योग साधना तथा भगवत् भक्ति की भिक्षा-दीक्षा ली थी। कुछ समय तक गृहस्थ धर्म में रहकर उन्होंने साधना की ओर बाद में समय आने पर जब उन्हें सहज वैराग्य हो गया तो वे संन्यासी हो गए। महात्मा श्रीचन्द्र ने एक सौ पचास साल की आयु पाई थी और उनके सामने सिक्खों के छः गुरु गद्दी पर बैठे थे।

गुरुनानक जी ने शरीर त्याग के कुछ समय पूर्व श्री अंगद देव को गद्दी दे दी थी। श्री अंगद देव स्वयं ही बड़े त्यागी व्यक्ति थे और सदा भगवान के ध्यान में निमग्न रहा करते थे गुरु का पद पा लेने के बाद भी वे महात्मा श्रीचन्द्र के पास गए और विनयपूर्वक बोले-आप गुरू के सबसे बड़े पुत्र है और बड़े भारी महात्मा है। उनकी गद्दी के आप ही सच्चे उत्तराधिकारी हैं। कृपा पूर्वक गुरु की गद्दी पर बैठिए और शिष्यों को उपदेश कीजिये। आप गुरु-पुत्र हैं और मेरे लिए गुरु के समान ही हैं। गद्दी पर बैठना और शिष्यों को उपदेश देना आपके लिए ही योग्य है।”

श्री अंगद देव की बात सुनकर श्रीचन्द्र प्रेम से विभोर हो उठे और गदगद कंठ से बोले-हे स्वरूप आप मुझसे ऐसा क्यों कह रहे हैं। मुझे तो सारा संसार एक भगवत् रूप ही मालूम होता है। मैं भला लोगों में गुरु और शिष्य का भेद करके उपदेश किस प्रकार का सकता हूँ मेरा हृदय तो परमात्मा के अखण्ड प्रेम में डूबकर मतवाला हो चुका है। शिक्षा-दीक्षा देने की योग्यता मुझमें नहीं रह गई है। गुरु की कृपा से आप में यह शक्ति और योग्यता अवश्य है कि आप आवश्यकतानुसार जब चाहें मन को समाधि में स्थित कर सकते हैं और जब चाहे संसार में उतर कर लोगों को उपदेश कर सकते है इसलिए गुरु की गद्दी पर आप ही बैठिए और उनका मंतव्य आगे बढ़ाइए। श्री अंगद देव ने बहुत कुछ अनुरोध किया किन्तु महात्मा श्रीचन्द्र ने गद्दी पर बैठना स्वीकारा नहीं किया।

महात्मा श्रीचन्द्र अधिकतर जंगल में ही रहा करते थे और वही आने वाले जिज्ञासुओं को धर्म का उपदेश किया करते थे। एक बार साप्ताहिक समाधि से उठने के बाद उन्होंने भोजन के नाम पर थोड़ा-सा गुड़ खाने की इच्छा प्रकट की। एक शिष्य भागा-भागा पास के गाँव में गया और वहाँ के दुकानदार से कहा-भाई थोड़ा-सा गुड़ दे दो। गुरु ने खाने की इच्छा प्रकट की है।” बनिए ने समझ लिया कि यह पैसे देने वाला तो नहीं हैं। उसने कह दिया कि गुड़ नहीं है। लेकिन उसका बड़ा भारी कोठा गुड़ से भरा हुआ था।

शिष्य ने कहा, “भाई तुम्हारे पास कोठे के कोठे गुड़ भरा है लेकिन तुम थोड़ा-सा देने के लिए झूठ बोलते हो। दुकानदार ने कह दिया उसमें तो मिट्टी भरी है गुड़ नहीं।” शिष्य निराश होकर वापस आ गया और महात्मा श्रीचन्द्र से दुकानदार की शिकायत करते हुए बोला-महाराज दुकानदार के पास आ गया और महात्मा श्रीचन्द्र से दुकानदार की शिकायत करते हुए बोला-महाराज दुकानदार के पास गुड़ के कोठे भरे हैं लेकिन उसने न देने के लिए झूठ बोल दिया और कहा उसमें तो मिट्टी भरी है गुड़ नहीं।

स्वरूप! क्या तुमने उसका कोठा खोलकर देखा था। गुरु ने पूछा। शिष्य ने कहा नहीं महाराज! गुरु ने फिर कहा-तब तुम बिना देखे दुकानदार को झूठा कैसे कहते हो। यह तो ठीक नहीं हो सकता। उसके कोठे में मिट्टी ही भरी हो या उसका गुड़ खराब होकर मिट्टी हो गया हो और वह दुकानदार सच बोलता हो। बिना प्रमाण पाए किसी को झूठा कहना भले आदमियों को शोभा नहीं देता।”

बताया जाता है कि जब उस दुकानदार ने दूसरे दिन गुड़ का कोठा खोला तो उसका सारा गुड़ खराब होकर मिट्टी हो गया था। दुकानदार ने अपना परिवार बुलाया और कहा अब इस गाँव से चलो। यहाँ तो ऐसे-ऐसे योगी आ गए हैं कि जो कुछ कह देते हैं वही हो जाता है। दुकानदार गाँव छोड़कर चला गया।

महात्मा श्रीचन्द्र को जब पता चला तो वे दुःख के मारे रोने लगे और बोले धिक्कार है मुझे जो मेरे भय से एक आदमी गाँव छोड़ गया। उन्होंने दुकानदार को बुलवाया और कहा “भाई! तुम गाँव में आ जाओ।” वह बोला महाराज हम संसारी आदमी हैं कहीं फिर कोई गलती हो गई हो तो आप शाप दे देंगे और हमारा नाश हो जाएगा। श्रीचन्द्र उसे समझाते हुए बोले भाई मैंने तो कोई शाप नहीं दिया तुम्हारे कहे का समर्थन कर दिया था। हो सकता है तुम्हारे वचन तुम्हें फलीभूत हुए हों। तुम गाँव में आ जाओ और अच्छे आदमियों की तरह सत्य ओर ईमानदारी का पालन करते रहो। मैं क्या किसी महात्मा का शाप तुम्हें नहीं लग सकता। दुकानदार गाँव में चला आया।

महात्मा श्रीचन्द्र ने समझ लिया कि भगवत् भजन से उनकी वाणी में शक्ति आ गई है इसलिए वे आगे किसी के लिए भी कुछ कहने के लिए बहुत सावधान हो गए। शब्द शक्ति तपःपूत जिह्वा के तरकश से ........ की तरह निकलती है इसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण है।


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