शक्ति जागरण हेतु प्राणयोग की उच्चस्तरीय साधना

December 1995

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उच्चस्तरीय गायत्री साधना में सोऽहम् साधना की प्राणयोग प्रक्रिया भी सम्मिलित है इन दोनों में कमर को सीधी रख कर, पालथी मार कर सुखासन में बैठना पड़ता है। ध्यान साधनाओं में शरीर को ढीला और मन को खाली करना पड़ता है इसलिए उनमें आराम कुर्सी, दीवार, पेड़ का सहारा लेकर बैठने अथवा चित्त लेटने की आवश्यकता पढ़ती है। गायत्री उपासना और सोऽहम् साधना को अजपा गायत्री भी कहते हैं। प्राण निरन्तर उसका बीज रूप में जप करता रहता है। अस्तु उसके लिए भी मेरुदण्ड को सीधा रख कर ही एवं पालथी मार कर ही बैठना पड़ता है।

श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम्’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में अनुभव करना यही है संक्षेप में ‘सोऽहम्’ साधना।

वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेग पूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे होते हैं वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ सुनने को मिलती हैं। कारण कि बाँसों में कही-कही कीड़े छेद कर देते हैं। और उन छिद्रों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने का मिलता है। वृक्षों से टकरा कर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है।

नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलता पूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते है। प्राणायाम मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी, जितनी मन्दगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे-धीरे उसे वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए, गहरी और पूरी साँस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकरा कर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता हैं इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे सुना जा सके। कर्णेन्द्रियों की सूक्ष्म चेतना में ही उसे अनुभव किया जा सकता है।

चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए और भावना को इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगे। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम्’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती किन्तु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है। और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का अनुभव होता है।

‘सो’ का तात्पर्य परमात्मा और ‘हम्’ का जीवचेतना-समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग प्रत्यंग में जीवकोष तथा नाड़ी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क संसर्ग का लाभ प्रदान करता है यह अनुभूति ‘सो’ शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए और ‘हम्’ शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस काय कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़ कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए।

प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारणा है। जीव भाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध लोभ मोह भरी मद मत्सरता अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा भी दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। काय कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव धारणा की वेदखली यही है सोऽहम् साधना का तत्त्वज्ञान। श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से-सो और हम् ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जाग्रत किया जाता है कि अपना स्वरूप बदल रहा है अब शरीर ओर मन पर से लोभ-मोह का, वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रान्ति जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें अनाधिकारी अनाचारों शासनसत्ता का तख्ता उलट कर उस स्थान सत्य न्याय ओर प्रेम संविधान वाली धर्म सत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। सोऽहम् साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अन्तःकरण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियन्त्रण नहीं रहा उसका समग्र संचालन देवसत्ता द्वारा किया जा रहा है।

सोऽहम् साधना के अभ्यास में प्रायः पौन घण्टा प्रतिदिन लगता है। इसमें से आरम्भ के पन्द्रह मिनट श्वास ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम्’ की धारणा में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरम्भ में अतिमन्द स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। इसके उपरान्त शेष आधा घण्टे में चिन्तन का स्तर यह होना चाहिए कि साँस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे हैं। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है वरन्! प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक-एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप से समाविष्ट हो गई। हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आँखें, गुर्दे, जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया रक्त के साथ प्रत्येक नस-नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित किया।

बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना चखना आदि इन्द्रियजन्य गति-विधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेंगी। जननेन्द्रिय का उपयोग, वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए निवापर्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जाएगा। हाथ पाँव मानवोचित कर्तव्य पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएँ न जमने पायेंगी। अहंता का स्तर नर कीटक जैसा नहीं नर नारायण जैसा होगा।

यही है वे भावनाएँ जो शरीर और मन पर भगवान् के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती है। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए वरन् उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए किस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, अन्यथा स्वप्नदर्शी शेखचिल्ली ऐसे ही बैठे-ठाले मन मोदक खाते रहते है। उनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध हो नहीं सकता। सोऽहम् साधना के पूर्वार्द्ध में अपने काय कलेवर पर श्वसन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की-परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिन्तन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के-प्रत्यक्ष तथ्य के-रूप में प्रस्तुत दृष्टिगोचर होने लगे।

इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का-आलस्य प्रमाद जैसी दुष्कृतियों की, मन से लोभ-मोह जैसी तृष्णाओं का, अन्तराल से जीव भावी अहन्ता का, निवारण-निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ अत्यंत प्रगाढ़ होनी चाहिए दुर्भावनाएँ और दुष्कृतियाँ और दुष्टताएँ-क्षुद्रताएँ और हीनताएँ सभी निरस्त हो रही हैं-सभी पलायन कर रही है यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरान्त ही हलकापन जो सन्तोष-जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरंतर बना रहता है उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बना गया।

भावोत्कर्ष की दृष्टि से ‘सोऽहम्’ साधना के साथ-साथ उपर्युक्त भाव चित्रों को मनः क्षेत्र पर अति सघन चित्रित किया जाना चाहिए इससे वह चिन्तन कुछ ही समय में जीवन का एक प्रवाह बन जाता है और साधक का आन्तरिक कायाकल्प होने से बाह्य जीवन अनासक्त कर्मयोगी जैसा उत्कृष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से कृषक, पशुपालक, श्रमिक, व्यवसायी जैसे सामान्य आजीविका में निरत होने के कारण छोटा भले ही समझा जाय पर वस्तुतः आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण वह होता अत्यन्त महान ही है अध्यात्म मूल्याँकनों की कसौटी पर कसने से उसे महामानव एवं ऋषिकाय ही ठहराया जा सकता है। राजा जनक यों साँसारिक दृष्टि के कारण से सदा ब्रह्मवेत्ता ही माने गये। किसी को साधारण स्तर का जीविकोपार्जन करना पड़े इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं यदि सोऽहम् साधना स्तर की मान्यताएँ गहराई तक अन्तःकरण में जड़ जमा लें और वे कार्य रूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठें तो समझना चाहिए इस एक ही साधना ने जीवन लक्ष्य प्राप्त कराने का प्रयोजन पूरा कर दिया।

यों सोऽहम् साधना का चमत्कारी प्रयोजन भी कम नहीं है। यह प्राणयोग की महती साधना है। दस प्रधान और चौवन गौण इस प्रकार चौंसठ प्राणायामों का साधना विज्ञान के अंतर्गत विधि-विधान वर्णित है और उनके अनेकानेक लाभ-परिणाम बताये गये है। इन सबमें सर्वप्रथम और सर्वोपरि ‘सोऽहम्’ साधना से सन्निहित प्राणयोग ही है। जिस प्रकार मन्त्रों में गायत्री सर्वोपरि है उसकी प्राणयोग के विविध साधना विधानों से सर्वोच्च मान्यता सोऽहम् के अजपा गायत्री जाप की है। सभी प्राणायामों का लाभ इस एक से ही उठाया जा सकता है।

षट्चक्र वेधन के लिए प्राण तत्व के बरमे ही छेद करने का काम करते है॥ आज्ञाचक्र तक नालिका द्वारा प्राण-तत्व खींचने का कार्य एक ही ढंग से चलता है। पीछे उसके दो भाग हो जाते हैं, एक भावपरक दूसरा शक्ति परक। भावपरक में फेफड़ों में पहुँचा हुआ प्राण समस्त शरीर के अंग-प्रत्यंगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत् का निवारण सम्पन्न करता है। आज्ञा चक्र में एक दूसरी प्राणधारा पिछले मस्तिष्क को स्पष्ट करती हुई मेरु-दण्ड में निकल जाती है। वही ब्रह्म नाड़ी का महाशक्ति नद है। इड़ा और पिंगला की दो विद्युत धाराएँ इसी में प्रवाहित होती हैं। वे मूलाधार चक्र तक पहुँचती हैं और सुषुम्ना सम्मिलन के बाद वापस लौट आती है। षट्चक्र इसी मेरुदण्ड में स्थित ब्रह्मनाड़ी महानन्द के अंतर्गत पड़ने वाले भँवर हैं। इनमें ही लोक लोकान्तरों से-अति मानवी शक्ति संस्थानों से-सम्बन्ध मिलाने वाली रहस्यमय कुञ्जियाँ सुरक्षित रखी हुई है। षट्चक्रों में से जो जितने रत्न भण्डारों से सम्बन्ध स्थापित करले वह उतना ही महान् बन सकता है। कुण्डलिनी शक्ति को भौतिक और आत्मिक शक्तियों का आदान-प्रदान सम्पन्न करने वाली महत्त्व भूमिका कह सकते है। उसका जागरण षट्चक्र वेधन के उपरान्त ही होता है चक्रवेधन के लिए प्राणतत्त्व पर आधिपत्य स्थापित करने वाले वेधक प्राणायामों का अभ्यास करना पड़ता है। जो प्राणायाम षट्चक्र वेधन में सहायता करते है उनसे सोऽहम् का प्राणयोग सर्वप्रथम और सर्वसुलभ है। पंचकोशों के अनावरण का क्रम भी चक्रवेधन स्तर का ही है। उसके लिए प्राण-प्रखरता बढ़ानी पड़ती है। यह प्रयोजन भी सोऽहम् साधना से ही पूरा होता है।

कहा जा चुका है कि सोऽहम् की भावना साधना वाला पक्ष आज्ञाचक्र से मुड़कर फेफड़ों की तरह श्वास-प्रश्वास का रूप धारण करता है और वहीं से दूसरी धारा मेरुदण्ड की ओर मुड़कर शक्ति जागरण का काम करती है। सोऽहम् साधन के हिमालय से निकलने वाली गंगा, यमुना भावोत्कर्ष एवं शक्ति संवर्धन के दोनों प्रयोजन पूरे करती है-इससे भौतिक और आत्मिक प्रगति के दोनों ही प्रयोजन पूरे करती हैं। शक्ति सम्पन्न और भावोत्कर्ष की उभय पक्षीय उपलब्धियाँ ही समग्र अध्यात्मिक हैं। उसे प्राप्त करने में सोऽहम् साधना कितनी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है इसे अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है।

स्वरयोग अपने आप में एक स्वतन्त्र शास्त्र है। इड़ा और पिंगला नाड़ी के माध्यम से चलने वाले चन्द्र सूर्य स्वर, शरीर और मन की स्थिति में ऋण और धन विद्युत के आवेश घटाते-बढ़ाते रहते हैं। इस स्थिति का सही ज्ञान रहने पर मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी अन्तः क्षमता किस कार्य को कर सकने में समक्ष अथवा क्या करने में असमर्थ है। अन्तर्जगत् की वस्तुस्थिति का सही ज्ञान होने पर मनुष्य के लिए ऐसा कदम सरल हो जाता है, जिसके आधार पर सफलता का पथ अधिक प्रशस्त हो सके। किस स्वर की स्थिति में मनुष्य दूसरों की क्या सहायता कर सकता है। इसकी जानकारी भी स्वरयोग से मिलती है। तदनुसार दूसरों की स्वल्प सहायता करके भी उन्हें अधिक मात्रा में लाभान्वित किया जा सकता है। सामान्य वृद्धि से जो अविज्ञात जानकारियाँ प्रायः नहीं जानी जा सकतीं उन्हें भी स्वरयोग के माध्यम से अधिक खूब और खूबसूरती से समझा जा सकता है।

स्वरयोग की साधना के यों कई अभ्यास हैं, पर उनमें अधिक सरल और अधिक सफल सोऽहम् साधना ही रहती है। यह विशुद्ध रूप से प्राणयोग है। उसमें प्राणायाम के, षट्चक्रवेधन, ग्रंथिवेधन, कुण्डलिनी जागरण, स्वर साधन, गन्धानुभूति, भावोत्कर्ष जैसी योगाभ्यास की अनेक ऐसी धाराएँ समाविष्ट हैं जिनके माध्यम से साधक को उच्चस्तरीय आत्मविकास का लाभ मिल सकता है।


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