एक सेठ जी का नौकर लापरवाह और कामचोर था। घर के लोगों ने कहा-इसे निकाल दिया जाय। सेठ जी की पत्नी ने कहा-इसे निकालेंगे नहीं, सुधारेंगे।”
दूसरे दिन गरम पानी और तौलिया लेकर ठीक समय पर उपस्थित हुई और जगाते हुए, नौकर से बोली “स्नान कीजिए, जब तक मैं चाय बनाकर लाती हूँ।” नौकर पानी-पानी हो गया। मालकिन की इस सज्जनता को देखकर वह दूसरे दिन से सब काम समय पर करने लगा। उसे निकालना नहीं पड़ा, बाद में वह घर के अपने सदस्य के समान हो गया।
गाँधी जी ने विनोबा जी को अपने आश्रम में रहने और साथ-साथ कार्य करने का आमन्त्रण भेजा।
सर्व प्रथम विनोबा जी गाँधी जी से मिले तो उन्होंने कहा-बापू आपकी अहिंसा का आदर्श मेरे भले नहीं उतरता। यह ठीक है कि अहिंसा उन्नति कारक है। हिंसा मुक्त समाज मानवता की उन्नति और उत्कर्ष के लिए आवश्यक है। भविष्य में भले ही इस की उपयोगिता हो किन्तु आज की परिस्थितियों में हिंसा के बिना स्वराज्य सम्भव दिखाई नहीं देता। स्वराज्य मुझे जान से भी प्यारा है इसके लिए मैं किसी भी हिंसा के लिए तत्पर हूँ त्याग बलिदान के लिए कटिबद्ध हूँ। ऐसी हालत में भी क्या आप मुझे अपने आश्रम में रख सकेंगे?
गाँधी जी मुस्कराते हुए बोले “जो तुम्हारे विचार हैं वही सारी दुनिया के हैं। तुम्हें आश्रम में न लूँ तो किसे लूँ।”
“मैं जानता हूँ कि बहुमत तुम्हारा है किन्तु मैं सुधारक हूँ। आज अल्पमत में हूँ सुधारक सदैव अल्पमत में रहता है अतः हमें धैर्य के साथ समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। सुधारक अगर बहुमत की बात बर्दाश न करे तो दुनिया में उसी को बहिष्कृत होकर रहना पड़ेगा। किन्तु सीमा के परे जिनमें धैर्य है ऐसे ही विरले लोग समाज को नई दिशा, नवजीवन प्रदान कर पाते हैं।”