समग्र वातावरण को प्रभावित करने की क्षमता है गायत्री मन्त्र में

December 1995

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योग वशिष्ठ में मन्त्र शक्ति पर प्रकाश डालते हुए लिखा-

यथाविरेकम् कुर्वन्ति हरीतक्य स्वभावतः भावनावशतः कार्यं तथा यरलवादयः /-/

अर्थात्-” हे राम! जिस प्रकार हर्र खाने से पाचन संस्थान में तीव्र गति होती है और दस्त लग जाते हैं उसी प्रकार दृढ़ और समर्थ भावना से मन्त्रों के अक्षर शरीरों को तीव्रगति से प्रभावित करते हैं।”

रामायणकार ने “मन्त्र परम लघु जासुवस, विधि हरिहर सुर सर्व” बताया। इन आख्यानों के पीछे नितान्त विज्ञान सम्मत प्रक्रिया कार्य करती है। केवल मात्र कल्पना या विश्वास नहीं सुप्रसिद्ध विद्वान श्री गोविन्द शास्त्री ने एक शोध लेख में एक ऐसे मन्त्रज्ञ का विवरण दिया है जो काँसे की थाली में हाथ रखवा कर मन्त्र बोलता था। धीरे-धीरे थाली में भरा पानी पीला पड़ता गया और रोगी रोग मुक्त हो गया। गाँवों में आज भी सर्प और बिच्छू के इलाज मन्त्र शक्ति से होते हैं और वह आधुनिक चिकित्सा से कहीं अधिक कारगर सिद्ध होते हैं।

मन्त्रों में सन्निहित यह शक्ति वस्तुतः शब्द की पराशक्ति का ही चमत्कार है। इसमें अतिशयोक्ति जैसी कोई बात नहीं मन्त्र का प्रत्यक्ष रूप ध्वनि है। ध्वनि भी क्रमबद्ध, लयबद्ध, तालबद्ध, और वृत्ताकार एक क्रम से निरन्तर एक ही शब्द विन्यास का तो उसका एक गति चक्र बन जाता है। रस्सी में पत्थर का टुकड़ा बाँधकर उसे तेजी से चारों ओर घुमाया जाय तो उसके दो परिणाम होंगे, एक यह कि वह एक गोल घेरा जैसा दीखेगा। रस्सी और ढेले का एक स्थानीय स्वरूप बदल कर गतिशील चक्र के रूप में बदल जाना एक दृश्य चमत्कार है दूसरा परिणाम यह होगा कि उस वृत्ताकार घुमाव से एक असाधारण शक्ति उत्पन्न होगी। इस तेज घूमते हुए पत्थर के छोटे टुकड़े से किसी पर प्रहार किया जाय तो उसकी जान ले सकता है। यदि इसी तरह उसे फेंक दिया जाय तो तीर की तरह सनसनाता हुआ बहुत दूर निकल जाएगा। मन्त्र जप से यही होता है। कुछ शब्दों को एक रस, एक स्वर, एक लय के अनुसार बार-बार दुहराते रहने से उत्पन्न हुई ध्वनि तरंगें-सीधी या साधारण नहीं रह जाती। वृत्ताकार उनका घुमाया जाना अन्तरंग पिण्ड हमें तथा बहिरंग ब्रह्माण्ड में एक असाधारण शक्ति प्रवाह उत्पन्न करता है। उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुए परिणामों को मन्त्र का चमत्कार कहा जा सकता है।

शब्द या ध्वनि की शक्ति को एक दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। किसी बच्चे ने कभी शेर न देखा हो, न ही उसकी प्रकृति से परिचित हो तो भी उसे कहीं शेर की दहाड़ सुनाई पड़ जाये तो वह काँप उठेगा। इसी तरह कोयल की कूक सुनते ही लोग मुस्कराने लगते हैं। यह तो शब्द का अन्तरंग कलेवर पड़ने वाला अत्यन्त स्थूल प्रभाव मात्र है, पर जिस तरह दही को निरन्तर आलोड़ित करने से उसमें से मक्खन निकलना सम्भव हो जाता है उसी प्रकार यदि कर्णातीत ध्वनि तीव्र भावावेग के साथ गुंजित की जाय तो वह शरीरस्थ चक्रों, ग्रन्थियों, गुच्छकों और उपत्यिकाओं से एक ऐसी “संवहन” शक्ति पैदा करती है जो किसी रोगी को अच्छा कर सकती है, किसी को अपने मनोनुकूल बना सकती है, मारण, मोहन उच्चाटन आदि प्रयोग भी उस शक्ति से किये जा सकते है। कृत्या और घात उसी शक्ति का तान्त्रिक भाग है। गायत्री मन्त्र जैसे परम कल्याणकारी मन्त्र में उस तरह की बातों की उपेक्षा की गई है। किन्तु दूसरी तरह के वाममार्गी उनका खुलकर उपयोग करते है। भले ही उन्हें उनके लिए अनिष्ट क्यों न भुगतने पड़ें।

गायत्री मन्त्र की शब्द रचना की विलक्षणता ही उसके सर्वोपरि होने का आधार है। इसी अनुसंधान पर राजर्षि विश्वामित्र को अविलम्ब ब्रह्मर्षि पद पर पदोन्नत कर दिया गया था। समझने वाली बात है कि राजर्षि की सामर्थ्य की तुलना राजाओं-महाराजाओं से की जाती है तो ब्रह्मर्षि की सामर्थ्य की तुलना राजाओं-महाराजाओं से की जाती है तो ब्रह्मर्षि की शक्ति की तुलना-ब्रह्म से की जाती है। जिसका अर्थ यह हो सकता है कि वह सृष्टि के स्वामी संचालक और नियन्त्रक की क्षमताओं से ओत-प्रोत होता है।

मन्त्र में इतनी शक्ति हो सकती है यह आश्चर्य का विषय हो सकता है अयथार्थ नहीं। भारतीय मन्त्र विद्या में शब्दों की जिस “संवहन शक्ति” का उपयोग किया जाता है उसका एक छोटा-सा रूप पराध्वनि (अल्ट्रासाउण्ड) के रूप में भौतिक शास्त्रियों ने भी जान लिया है और उसके विभिन्न प्रकार के चिकित्सकीय उपयोग होने लगे हैं। इसे चिकित्सा जगत में क्रान्ति की संज्ञा दी गई है।

ध्वनि का वह क्षेत्र तो बहुत स्वल्प है जो हमारे कानों की पकड़ में आता है और जिसे हम सुन सकते हैं। जिन ध्वनियों के कम्पन प्रति सेकेंड 20 से लेकर 20 हजार तक होते हैं उन्हें ही मनुष्य के कान आसानी से सुन सकते हैं। किंतु ध्यान कम्पन तो इससे बहुत कम और बहुत अधिक सामर्थ्य के भी होते हैं उन्हें अनसुनी ध्वनियाँ कहा जाता है। इससे उनकी सामर्थ्य में कमी नहीं होती वरन् सच तो यह है कि यह कर्णातीत-अनसुनी ध्वनियाँ और भी अधिक सामर्थ्यवान होती हैं। ‘सुपर सोनिक रेडियो मीटर’ की सहायता से अन्तरिक्ष में संव्याप्त अगणित ध्वनि प्रवाहों को सुना, जाना जा सकता है। मन्त्र साधना में इन श्रवणातीत ध्वनियों का उत्पादन अतिरिक्त रूप से होता है और वे अपने क्षेत्र में असाधारण प्रभाव डालती हैं।

विज्ञान ने श्रवणातीत ध्वनियों की एक अति प्रभावोत्पादक शक्ति माना है और उनसे अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण काम लेने की व्यवस्था बनाई है। इन दिनों वस्तुओं की सही मोटाई गहराई नापने में, धातुओं के गुण-दोष परखने में इनका प्रयोग होता है। कार्बन ब्लैक का उत्पादन, वस्त्रों की धुलाई, रासायनिक सम्मिश्रण वस्तुओं की कटाई, पिसाई, गीली वस्तुओं को सुखाना, धातुओं की ढलाई, प्लास्टिक धागों का निर्माण जैसे अनेकों उद्योगों ध्वनि तरंगों की सामर्थ्य का उपयोग करके चल रहे है। आयोवा स्टेट कॉलेज, अल्ट्रासोनिक कारपोरेशन, बी. एफ. गुडरिच कम्पनी आदि कितने ही व्यापार संस्थानों ने ऐसे यन्त्र बनाये हैं जिनमें श्रवणातीत ध्वनियों की सामर्थ्य का उपयोग होता है और उससे महत्वपूर्ण लाभ कमाये जाते हैं।

ध्वनियों को आकाश से पकड़ कर उन्हें ऊर्जा के रूप में परिणत करने की तैयारियाँ भी बड़े जोरों से हो रही हैं। उन्हें ताप, प्रकाश, चुम्बक एवं बिजली के रूप में परिणत किया जा सकेगा और इस आधार पर ईंधन का एक सस्ता और सुविस्तृत स्रोत हाथ में आ जाएगा। कान के माध्यम से मस्तिष्क में ध्वनियाँ पहुँचती हैं और हमें शब्द-श्रवण का लाभ मिलता है। जिनके कानों की झिल्ली खराब हो गई है, उन बहरे लोगों को दृष्टि मार्ग से ध्वनि तरंगों को मस्तिष्क तक पहुँचाने और सुनने का लाभ देने के लिए चल रहे प्रयोग सफल होने के निकट पहुँचते जा रहे है। इसी प्रकार गूँगे बहरे, अन्धे व्यक्ति भी अपनी आवश्यकता अन्य छिद्रों के सहारे पूरी कर लिया करेंगे। राडार जैसे यन्त्र अभी भी ध्वनि प्रवाह को पकड़ कर ही बहुमूल्य जानकारियाँ संग्रह करते हैं।

मन्त्रों में भी ध्वनि शक्ति का ही स्वरूप कार्य करता है जिसके उपयोग की विधि आप्त महर्षियों ने अपने ढंग से खोजी थी। मन्त्र शक्ति की इतनी महत्ता होते हुए भी सभी लोग उसके द्वारा वह सामर्थ्य नहीं जुटा पाते। यह प्रश्न अक्सर उठा करता है और मन्त्र शक्ति में सन्देह का कारण बना रहता है। उसका कारण और कुछ नहीं अन्तःकरण का गहरा और उथला होना ही है। मन्त्र में सन्निहित भावनाओं को प्रखर बनाने के लिए जिस परिष्कृत और समर्थ व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। वह न जुट पाने से मन्त्र अपना सामान्य प्रभाव ही अभिव्यक्त करके रह जाता है। उससे विशेष कुछ लाभ मिलता नहीं। व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने का कार्य वाणी की सत्यनिष्ठा सरलता और मधुरता से प्रारम्भ होता है और जीवन के प्रत्येक क्रिया−कलाप में छा जाता है। जिस तरह मैले शीशे पर पड़ने वाली प्रकाश की किरण अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा पाती उसी तरह मलिन अन्तःकरण में पड़ने वाले मन्त्र का प्रकाश केवल मात्र उसी सफाई में ही लगा रहेगा। यदि व्यक्ति की जीवन दिशा अपने दोष दुर्गुणों की ढूँढ़ निकालने और उनके स्थान पर सद्गुणों की प्रतिष्ठा की हुई हो तब तो इस प्रयोजन का भी महत्व है और उस स्थिति में मन्त्र जप का प्रभाव अविलम्ब ही सही देखने को मिल जाता है, पर यदि आहार-विहार रहन-सहन वाणी व्यवहार द्वारा अन्तःकरण को मन विक्षेप से लादते रहा गया हो तो कितना ही अच्छा और अधिक मन्त्र आप भी कोई परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगा।

मन्त्रों में भी ध्वनि शक्ति का ही स्वरूप कार्य करता है जिसके उपयोग की विधि आप्त महर्षियों ने अपने ढंग से खोजी थी। मन्त्र शक्ति की इतनी महत्ता होते हुए भी सभी लोग उसके द्वारा वह सामर्थ्य नहीं जुटा पाते। यह प्रश्न अक्सर उठा करता है और मन्त्र शक्ति में सन्देह का कारण बना रहता है। उसका कारण और कुछ नहीं अन्तःकरण का गहरा और उथला होना ही है। मन्त्र में सन्निहित भावनाओं को प्रखर बनाने के लिए जिस परिष्कृत और समर्थ व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है। वह न जुट पाने से मन्त्र अपना सामान्य प्रभाव ही अभिव्यक्त करके रह जाता है। उससे विशेष कुछ लाभ मिलता नहीं। व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने का कार्य वाणी की सत्यनिष्ठा सरलता और मधुरता से प्रारम्भ होता है और जीवन के प्रत्येक क्रिया−कलाप में छा जाता है। जिस तरह मैले शीशे पर पड़ने वाली प्रकाश की किरण अपना कोई प्रभाव नहीं दिखा पाती उसी तरह मलिन अन्तःकरण में पड़ने वाले मन्त्र का प्रकाश केवल मात्र उसी सफाई में ही लगा रहेगा। यदि व्यक्ति की जीवन दिशा अपने दोष दुर्गुणों की ढूँढ़ निकालने और उनके स्थान पर सद्गुणों की प्रतिष्ठा की हुई हो तब तो इस प्रयोजन का भी महत्व है और उस स्थिति में मन्त्र जप का प्रभाव अविलम्ब ही सही देखने को मिल जाता है, पर यदि आहार-विहार रहन-सहन वाणी व्यवहार द्वारा अन्तःकरण को मन विक्षेप से लादते रहा गया हो तो कितना ही अच्छा और अधिक मन्त्र आप भी कोई परिणाम प्रस्तुत न कर सकेगा।


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