एक विशेष लेख- - सब कुछ कहने के लिए विवश न करें

December 1995

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परमपूज्य गुरुदेव द्वारा सूक्ष्मीकरण साधना की अवधि में लिखी गयी ये पंक्तियाँ पुनर्प्रकाशित की जा रही हैं। इसमें उनने एक वर्ष के समयदान की बात कही है जो कि आज पुनर्गठन की वेला में और भी सामयिक है। आँवलखेड़ा की पूर्णाहुति जो कि अन्तिम पूर्णाहुति के पूर्व की युग संधि महापुरश्चरण रूपी ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की प्रथम पूर्णाहुति कही गयी है, एक मध्यविराम के रूप में हमारे समक्ष आयी। इसमें एक ही सन्देश दिया गया कि हमें अब बड़े विराट् आयोजन न सम्पन्न कर एक वर्ष तक युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को साकार रूप देने के लिए आगामी पाँच वर्ष की अपनी क्रियापद्धति का निर्धारण करने के लिए अपनी कार्यप्रणाली की समीक्षा करनी है तथा गाँव-गाँव में महाकाल का सन्देश पहुँचा देना है। यह अनुयाज प्रक्रिया एक वर्ष तक सक्रिय रूप में चलनी है। यह आगामी एक वर्ष हम सब के लिए परीक्षा का समय है। इस एक वर्ष में अधिकाधिक व्यक्तियों का समयदान महाकाल को पुनः चाहिए क्या हम देने की स्थिति में हैं? हैं तो क्या चिन्तन हमारा हो, यह उस समय की परिस्थितियों में लिखी गयी पंक्तियों के परिप्रेक्ष्य में सभी पढ़ें, मनन करें और कुछ दृढ़ निश्चय लेकर शान्तिकुञ्ज हरिद्वार से पत्र व्यवहार करें। प्रस्तुत है एक विशेष लेख-सब कुछ कहने के लिए विवश न करें।”

युग परिवर्तन के महान प्रयोजन में एक वर्ष के समयदानी की याचना महाकाल ने की है। काम बड़ा है और लम्बे समय का भी। किन्तु एक वर्ष की ही माँग क्यों की गयी है जबकि इक्कीसवीं शताब्दी को आने में अभी पन्द्रह वर्ष और बाकी हैं और इस अवधि में महान घटनाएँ होने वाली है। अशुभ से लड़ने और सृजन में जुटने के लिए असंख्यों एक से एक महत्व के काम सामने आने वाले है। ऐसे समय में तो एक जनम लग जाना भी तय है। पूरा जीवन दान कर भी दिया जाय तो भी आवश्यकता और उपयोगिता को देखते हुए भी वह कम है। फिर विचारणीय है कि बारम्बार एक वर्ष के समयदान की याचना ही क्यों दुहराई जा रही है?

फिर एक वर्ष की शर्त ही क्यों? किसलिए? पिछले वर्षों में भी कितने ही व्यक्तियों ने अपने जीवनदान मिशन के लिए दिये हैं और वे अपनी प्रतिभा का भली प्रकार निर्वाह कर रहे हैं। पूछने पर बताते हैं कि “जिस प्रकार जीवन दान, कन्यादान आदि को वापस नहीं लिया जाता, उसी प्रकार जीवनदान को भी वापस लेकर प्रतिज्ञा तोड़ने की अपेक्षा और कुछ कर बैठना अच्छा। इसलिए जीवन यदि लोक मंगल के लिए समर्पित किया है तो इसी भूमि में प्राण त्यागेंगे। इसमें हेरा−फेरी करना न हमें शोभा देता है और न इसमें मिशन का, गुरुदेव का गौरव है। हमारी तो प्रत्यक्ष बदनामी ही है, जो सुनेगा वह धिक्कारेगा। इसलिए निश्चय तो निश्चय ही है। इस छोटी-सी आयु में ऐसा कलंक सिर पर लाद कर क्यों चलें जिसकी कालिख कालिमा फिर कभी छूटे ही नहीं।”

ऐसे कुछ दृष्टिगोचर होने वाले केन्द्र व क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं तक ही यह संख्या सीमित नहीं है। अगणित ऐसे व्यक्ति हैं जो न्यूनाधिक रूप में अपने समय, श्रम एवं विभूतियों का सुनियोजन अपने-अपने क्षेत्र में तब से कर रहे हैं जब से वे उस पारस के सम्पर्क में आये। भले ही अभी उनके क्रिया-कलापों का मूल्याँकन न हो पाया हो, पर जब युग परिवर्तन का इतिहास लिखा जायेगा तब ज्ञात होगा कि किसने किस प्रकार इस महायज्ञ में अपना सहयोग दिया। किन्तु बात इतने तक ही सीमित नहीं है। प्रसंग एक वर्ष के समयदान का तथा वह भी अभी ही दिए जाने का चल रहा है। यह एक असमंजस हो सकता है किसी को भी वैचित्र्यपूर्ण आह्वान लग सकता है। पर किया क्या जाय? समय की माँग के आगे तो युग देवता भी नतमस्तक है। जितना रहस्यमय यह आमंत्रण किसी को लग सकता है। उससे कम विचित्र एवं अलौकिक यह युगान्तरकारी कार्य है नहीं। ऐसे में किस प्रश्न का उत्तर, क्या दिया जाय यह हमारे समक्ष भी एक असमंजस हैं

“अब तक एक सौ से अधिक जीवनदानियों का समुदाय प्राणपण से अपनी प्रतिज्ञा पर आरूढ़ है तो हमारे ऊपर क्यों ऐसी शर्त लगायी जा रही है कि एक ही वर्ष के लिए समय दिया जाय?” इसका मोटा उत्तर तो प्रश्न कर्ताओं का यही लिखाया जा रहा है कि यह दोनों पक्षों के लिये परीक्षा का समय है। आप लोग मिशन को देख लें, भली−भाँति परख लें, साथ ही हमें भी। साथ ही यह अवसर परखने का हमें भी दें कि आप इस ‘क्षुरस्यधारा’ तलवार की धार पर चढ़ सकेंगे या नहीं? अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध कर सकेंगे या नहीं? बीच में कोई पक्ष अनुत्तीर्ण होता है तो उसके लिए यह छूट रहनी चाहिए कि वापस जाने या भेजने का उपाय अपना लिया जाय। जीवनदान बड़ी बात है। यदि वह दूसरों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत कर सकने की स्थिति में बना रह सकता हो तो उस अनुदान का गौरव है। अन्यथा मिथ्या वचन देने और उसे वापस लौटाने में किसी का भी गौरव नहीं है।

घटिया कदम ओछे लोग ही उठाते हैं हम में से किसी, पक्ष को भी अपनी गणना ओछे लोगों में नहीं करना चाहिए। इसलिए परीक्षा-काल एक वर्ष की जाँच पड़ताल रखने में ही उत्तम है। बाद में फिर नए सिरे से विचार किया जा सकता है और नया कदम उठाया जा सकता है।

आमतौर से एक वर्ष की बात के सम्बन्ध में सन्देह उठाने वालों को यही उत्तर लिखाये जा रहे है। किन्तु इतने भर से किसी को संतोष नहीं होता। वे इसके अतिरिक्त और भी कई तरह की कल्पनाएँ करते दिये हुए उत्तर को पर्याप्त नहीं मानते। उसके पीछे कोई रहस्य खोजते हैं मनुष्य का स्वभाव भी है कि हर गम्भीर प्रश्न का कई प्रकार से सोचे इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता।

कितने ही पत्रों में इस सन्दर्भ में कितनी बातें पूछी गई हैं। उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ भी किया जा रहा है। कितनों ने ही पूछा है कि (1) आप की आयु एक वर्ष ही शेष रह गई है क्या? जिसमें उतने ही समय में अपने घोषित संकल्पों को पूरा करना चाहते हैं? (2) एक वर्ष बाद हिमालय चले जाने और तपस्वियों की ऊँची बिरादरी में सम्मिलित होने का मन क्या है? (3) अगले वर्ष कोई भयावह दुर्घटनाएँ तो घटित होने वाली नहीं है? (4) एक वर्ष बाद आपको प्रज्ञा अभियान दूसरों के जिम्मे छोड़कर कोई असाधारण उत्तरदायित्व वहन करने की भूमिका तो नहीं निभानी है? (5) कहीं माता जी का स्वास्थ्य तो नहीं गड़बड़ा रहा है? (6) जिनके मन में इतने दिनों से अद्भुत उत्कण्ठाएँ उठाई जाती रही हैं, उन्हें ऐसा तो नहीं समझा गया है कि यह समय चुका देने पर फिर कभी उन्हें ऐसा अवसर नहीं मिलेगा? (7) युग परिवर्तन के घटना के सम्बन्ध में कोई ऐसी घटना क्रम तो घटित नहीं होने जा रही जिसकी सुरक्षा के लिए इन्हें अपने पास बुला रहे हों? (8) किन्हीं को कोई ऐसा सौभाग्य तो प्रदान करने वाले नहीं है, जिन्हें निकटवर्ती लोगों को ही दिया जा सकता है? भविष्य में ऊँचे उत्तरदायित्वों के साथ जुड़ा हुआ महामानवों जैसा श्रेय तो नहीं मिलने जा रहा है, जिसका रहस्य अपनी विशिष्ट क्षमताओं का वितरण विभाजन तो नहीं कर रहे हैं।

ऐसे-ऐसे अनेकों प्रश्न हैं, जिनमें से कितनों का ही उल्लेख अप्रकाशित रहना ही उपयुक्त है। इस प्रकार के रहस्यमय प्रश्नों में से किसी का भी उत्तर न या हाँ में नहीं दिया जा सकता। कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें स्वीकार कर लिया जा सकता है। कुछ को अस्वीकार करने में भी हर्ज नहीं होता। पर कुछ बातें ऐसी होती है, जिनके सम्बन्ध में मौन धारण करना, कुछ न कहना ही उचित है। कई बातें ऐसी होती हैं, जिनके सम्बन्ध में गोपनीयता को रखना ही लगभग सत्य के समतुल्य नीतिकारों ने बतलाया है।

जिन प्रश्नों की झड़ी इन दिनों लगी हुई है, उन्हें किसी महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन की आशा नहीं करनी चाहिए। उन्हें इतना ही पर्याप्त समझना चाहिए जितना कि एक दूसरे की जाँच पड़ताल का हवाला देते हुए कहा गया है।

हमने अपने भूतकाल की घटनाओं का भी पत्रिका के अंकों में सीमित ही उल्लेख किया है। पूछने पर भी नपा-तुला ही वर्णन किया है। जो नहीं प्रकट किया गया, वह इसलिए सुरक्षित है कि उसे हमारा शरीर न रहने से पहले न जाना जाय। उपरान्त जो लोग चाहें, अपने अनुभव प्रकट कर सकते हैं। यदि इन घटनाओं की चर्चा होती है तो इन्हें प्रत्यक्ष कहने पर सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में अपने को प्रख्यात करने की महत्त्वाकाँक्षा आँकी जा सकती है।

शासक संचालकों को जो शपथ दिलाई जाती हैं, उनमें एक गोपनीयता की भी होती है। हमें भी ऐसा वचन अपने मार्गदर्शक को देना पड़ा है कि लोकसेवी-ब्राह्मण के रूप में ही अपनी जानकारी सब साधारण को दी जाय। जो अध्यात्म की गरिमा सिद्ध करने के लिए आवश्यक समझा जाय, उतना ही प्रकट किया जाय। जो हमारी व्यक्तिगत साधना तपश्चर्या, सिद्धि जिम्मेदारी एवं भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं से सम्बन्धित है, उन्हें समय से पूर्व वर्णन न किया जाय।

युग परिवर्तन की अवधि में अनेकों घटनाएँ घटित होंगी। अनेकों महत्वपूर्ण व्यक्तियों के वर्तमान रूप एवं कार्यक्रम में जमीन-आसमान जैसा अंतर उत्पन्न होगा। ये बातें अभी से नहीं कही जा सकती। रहस्यमयी भविष्यवाणियाँ करने के लिए अपनी सिद्धियाँ प्रकट करने के लिए हमें मनाही की गई है। उस प्रतिज्ञा का निश्चित ही पालन किया जायेगा। इसलिए कोई सज्जन वे प्रश्न इस “एक वर्ष” के सन्दर्भ में न कहने के लिए हम वचनबद्ध है, उन्हें नहीं ही कहेंगे।


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