एक विलक्षण पारितोषिक

December 1995

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कश्मीर के सुल्तान जैनालुद्दीन का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। उनके शरीर में एक फोड़ा निकल आया। कितने ही चिकित्सकों ने उसे देखा, इलाज किया, पर लाभ बिलकुल न हुआ। सुल्तान का कष्ट बढ़ता जा रहा था। अनेक उपचारों के बाद भी फोड़ा-घटने और ठीक होने का नाम ही न लेता था।

असहनीय पीड़ा से सुल्तान कराहता रहा। अब किसी को उसके जीवन की आशा न रही। राज्य की हिन्दू जनता पर अत्याचार करने वाला सुल्तान अब मृत्यु की तैयारी कर रहा था। एक दिन श्रीबट्ट नामक कश्मीरी वैद्य ने सुल्तान के पास सन्देश भेजा “सेवक को भी चिकित्सा करने का एक अवसर प्रदान कीजिए। मैं भी आपके राज्य का निवासी हूँ और आयुर्वेद का साधारण ज्ञान रखता हूँ।

सुल्तान को उसे अपने स्वस्थ होने की तनिक भी आशा न थी, फिर भी श्रीबट्ट को उसने बुलवाया। सोचा कभी-कभी जड़ी-बूटियों की साधारण सी दवाइयाँ चमत्कार दिखा जाती है। अतः श्रीबट्ट को दिखाने में भी क्या हानि है। उन्हें सुल्तान के सम्मुख पेश किया गया। उन्होंने बड़ी बारीकी से फोड़े के कारणों को जानने का प्रयास किया, विभिन्न चिकित्सकों द्वारा किए गए इलाज का पता किया और अन्त में बड़े विश्वास के साथ प्रयोग करने के लिए कई औषधियाँ दीं।

एक सप्ताह के उपचार के पश्चात् घाव से मवाद निकलना बन्द हो गया। पीड़ा में भी कमी आ गई। इलाज निरन्तर चलता रहा, लगभग एक महीने में वह फोड़ा ठीक हो गया। जो सुल्तान हर समय अशान्त और दुःखी रहता था, अब सुख की नींद सोने लगा। शाही चिकित्सक श्रीबट्ट से ईर्ष्या करने लगे, पर सुल्तान उसके इस जादू से बहुत प्रभावित हुए। किसी को आशा भी न थी कि सुल्तान कभी राज दरबार में जा सकेगा। स्वस्थ होने पर वह दरबार में आया और उसने सर्व प्रथम अपने जीवन दाता वैद्य श्रीबट्ट की प्रशंसा की।

डस समय श्रीबट्ट भी वहीं उपस्थित थे। दरबारियों के सम्मुख सुल्तान ने मुँह माँगा इनाम देने का वचन दिया, पर श्रीबट्ट टस से मस न हुए। उस गरीब को धन सम्पदा के प्रति तनिक भी लगाव न था, वह माँगता भी क्या? दरबारियों को ही नहीं सुल्तान को भी उसकी त्याग वृत्ति पर आश्चर्य हुआ। उसने कभी ऐसा निःस्वार्थ तथा सेवा भावी व्यक्ति देखा न था।

सुल्तान की बातें सुनकर श्रीबट्ट के मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न न हुआ। वह तो मौन हो सुल्तान की सब बातें सुनते रहे। उन्होंने सोचा कहीं ऐसा न हो कि मेरे मौन रहने का दरबारियों द्वारा गलत अर्थ लगाया जाय, अतः उन्होंने अपनी बात कहना उचित समझा। उन्होंने सुल्तान को सम्बोधित करते हुए कहा-बादशाह मैं ब्राह्मण हूँ, मेरी आवश्यकताएँ बहुत कम हैं। जीविकोपार्जन के लिए थोड़े धन की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर की कृपा से उसकी व्यवस्था हो ही जाती है। मुझे धन, स्वर्ण या अन्य किसी प्रकार की सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं।”

सुल्तान को समझते देर न लगी कि श्रीबट्ट कुछ और कहना चाहते है। सम्भवतः संकोचवश अपनी बात नहीं कह पा रहे हैं। अतः सुल्तान ने पुनः निवेदन किया-” आपने मुझे जीवन दान दिया है, मैं आपका ऋणी हूँ, अतः मेरा आपसे यही आग्रह है कि अपनी बात स्पष्ट रूप से कह दें।

“नरेश! यदि आप मुझे पुरस्कृत करने पर ही तुले हैं, तो मेरी कुछ बातें मान लीजिए, यही आपके द्वारा सबसे बड़ा उपकार होगा।”

“कहिए! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। आप विश्वास तो रखिए।”

“आपकी नीतियों से असंतुष्ट होकर कितने ही हिन्दू कश्मीर छोड़कर अन्यत्र चले गए हैं। अब तो आपके राज्य में हिन्दुओं के केवल 11 परिवार ही निवास कर रहे हैं। मैं चाहता हूँ कि सभी हिन्दुओं को वापस बुला लिया जाय और उनके साथ भी वैसा ही बर्ताव किया जाय जैसा कि मुस्लिम जनता के साथ किया जाता है। हिन्दुओं को अपने धर्म के अनुसार कर्म करने, वेशभूषा पहनने तथा बच्चों को शिक्षा देने की सुविधा प्रदान कीजिए। आपके लिए तो राज्य के सभी नागरिक समान होने चाहिए।”

श्रीबट्ट की प्रत्येक बात स्वार्थ रहित थी। उसने अपने लिए सुल्तान से कुछ नहीं माँगा था। इसलिए उसकी धर्म और जाति के प्रति निष्ठा को देखकर दरबारियों को भी आश्चर्य हुआ। सुल्तान पहले ही श्रीबट्ट को आश्वासन दे चुका था, अतः उसने सभी बातें मानकर हिन्दू और मुसलमान दोनों के प्रति समभाव रखना शुरू कर दिया। अब वह हिन्दू-विद्वानों का भी आदर करने लगा था। उसने श्रीबट्ट से गीत गोविन्द, तथा योग वशिष्ठ जैसे ग्रन्थ भी सुने। अनेक तीर्थ स्थानों की यात्रा भी की। सुल्तान के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने का सारा श्रेय श्रीबट्ट की निस्वार्थ वृत्ति एवं सेवापरायणता को था।

आज के परिप्रेक्ष्य में यदि देखें तो ऐसे ही जैनालुद्दीन एवं श्रीबट्ट यदि पुनः मानव में जग उठें तो सारी समस्याएँ देखते-देखते दूर होती चली जायेंगी।


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