“मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवन्त

December 1995

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उन्हें यहीं रहना पसन्द है। यद्यपि उन्हें अधिकार है स्वर्ग, ब्रह्मलोक या वैकुण्ठ जब चाहें जाएँ और रहें। उनके लिए सृष्टि के किसी भी प्रदेश में प्रवेश निषेध नहीं। जब मन में आता है, घूम आते हैं स्वर्ग का सिंहासन तथा वैकुण्ठ के अधिपति समान रूप से उनके स्वागत को समुत्सक रहते हैं सभी चाहते हैं, उनकी चरण रज उनके भुवनों को पवित्र करें। किन्तु उन्हें यहीं रहना स्वीकार है।

न कल्प वृक्ष हैं और न सुधा कुम्भ। गन्धर्वों की मधुर तंत्री दिशाओं को मुखरित नहीं करती, और न अप्सराओं का मनमोहक नृत्य ही वहाँ के सौम्य सत्व में रजस का संचार करता। आप उसे भोग लोक नहीं कह सकते। यों वह कर्म लोक भी नहीं है। एक प्रकाशमय शान्ति, स्थिर शान्ति। महाप्रलय का प्रत्यावर्तन भी उसके सौम्य भाव को स्पर्श करने में असमर्थ रहा करता है। निम्न-लोकों के आकुल प्राणियों की करण पुकार ही कभी-कभी विक्षोभ की मृदुल लहरी उठा पाती है।

एक ही जीवन-भगवत् चर्चा, एक ही भोग-सत्संग एक ही क्रिया है-चिन्तन अद्भुत है वह तपः लोक सब परिपूर्ण है, सब आप्तकाम हैं, सब दूसरों को अपने से परम श्रेष्ठ मानते हैं सब सुनना ही चाहते हैं। अखण्ड अनवच्छिन्न श्रवण। सुनाने में भी न कोई बहाने बाजी करता है, न आनाकानी।

हम लोग सुनते ही सुनते हैं। अमूर्त ने बड़े विनम्र स्वरों में जिज्ञासा प्रकट की। किन्तु हमें करना क्या चाहिए, यह हमने अभी तक नहीं सोचा। उन तपो मूर्तियों की श्रद्धा ही मृदुल उज्ज्वल सिंहासन के रूप में घनीभूत हो गयी थी और उस पर पंचवर्षीय चिरशिशु पूर्वजों के परम पूर्वज सनत्कुमार आसीन थे। जहाँ स्थूल और सूक्ष्म का भेद नहीं होता, वहाँ आसन आस्तरण और अधिष्ठाता भाव-भेद ही है।

“कृति की अवशेषता का अनुभव अपूर्णता का परिचायक है।” ब्रह्मपुत्र तनिक गम्भीर होकर बोले अपूर्णताएँ प्रवेश नहीं पा सकती किन्तु सर्वेश की इच्छा अबाध है। कोई नहीं जानता, उनकी किस क्रिया में किस मंगल क्रीड़ा की पृष्ठभूमि निर्मित होती है।” श्रोताओं के नेत्र अमूर्त की ओर घूम चुके थे। आज कुछ होने वाला है। यह सत्संग की परम्परा तो नहीं है? किसी अकल्पित के घटित होने की सम्भावना ने सबको उत्सुक बना दिया था।

“आपको एक बार अपनी उपस्थिति से पुनः साधन भूमि को सार्थक करना चाहिए।” बिना किसी हलचल के सनत्कुमार ने आदेश दे दिया और सबने देखा कि अमूर्त उस दिव्य लोक से सूर्य मण्डल की ओर जा रहे हैं। मृत्यु लोक में पहुँचने के लिए क्रमशः सूर्य, सोम वायु मेघ, वृष्टि औषधि से होकर ही तो जीव वीर्य, रज से विनिर्मित गर्भ में प्रवेश करता है।

महर्षि अमूर्त ने कौशल राज्य के राजकुमार के रूप में जन्म लिया उपनयन संस्कार के बाद वह वेदाध्ययन के लिए महर्षि देवल के आश्रम में गए। थोड़े ही समय बाद महर्षि देवल ने महाराज बृहद् बाहु को सूचित किया-राजकुमार ने अध्ययन समाप्त कर लिया है।” अर्थ के अनन्तर सिंहासन पर बैठते हुए महर्षि की इस सूचना ने महाराज को ही नहीं मन्त्रियों एवं सभासदों को भी चकित कर दिया। वह कहे जा रहे थे-अलौकिक प्रतिभा समय की अपेक्षा नहीं करती और राजकुमार कोई अद्वितीय संस्कारी महापुरुष है।”

महाराज ने समझा था, महर्षि उनके बालक के किसी अपराध का अभियोग लेकर उपस्थित हुए होंगे। कोई भी धारण नहीं कर सकता था कि उपनयन के पश्चात् इन थोड़े से महीनों में कोई बालक श्रोता शिक्षा समाप्त कर लेगा। महाराज ने राजकुमार को गोद में बैठा लिया। उनके नेत्र प्रेमाश्रुओं से पूर्ण हो चुके थे। इतने विनयशील पुत्र से अपराध की आशंका करनी ही उचित नहीं थी।

“मैं शस्त्र-शिक्षा का विशेषज्ञ नहीं हूँ। युवराज को कुछ दिनों के लिए महर्षि विश्वामित्र के श्री चरणों में रहना चाहिए।” कुलगुरु देवल ने अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए विदा चाही। “महाराज का मंगल हो आयुष्मान् कुमार परम कल्याण प्राप्त करें।”

“गुरुदेव।” पिता की गोद से उठकर उस तेजोमय बालक ने महर्षि के श्रीचरणों पर मस्तक रखा। शस्त्र-शिक्षा संघर्ष के लिए, संघर्ष राज्य के लिए होते है। और राज्य होता है, भोग के लिए।” सब जानते हैं, बचपन से ही राजकुमार खेलकूद, वस्त्राभूषण तथा भोजनादि के प्रति उदासीन रहते है। इस अद्भुत बालक में जैसे अल्हड़ शैशव ने प्रवेश पाया ही नहीं, चपल कौमार्य एवं मादक तारुण्य जैसे वह बहुत पीछे छोड़ आया हैं एक प्रशस्त गाम्भीर्य उसमें सदा रहा है। सदा से उसकी शान्ति अदम्य रही है। जैसे वह इस जगत से बहुत ऊपर का किसी और ही धातु का बना हो।

“वत्स” महर्षि ने दोनों हाथों से उस कुमार को उठा लिया, पुचकारा, मस्तक पर हाथ फेरा “समय आने दो और तब यह तुम्हें शोभा देगा। अभी तुम्हें शोभा देगा। अभी तुम्हें मर्यादित पथ का अनुसरण करना चाहिए।”

“मैं अवज्ञा नहीं करूँगा बड़े विनम्र शब्दों में राजकुमार कह रहा था, मैंने श्री चरणों से अध्ययन किया है। मृत्यु किसी समय की अपेक्षा नहीं करती। जिस सुख एवं शान्ति के लिए अनेक प्रवृत्ति होते है ........................ में कही प्रतीत नहीं होती। यह सब .....................भी मैं आज्ञा पालन करूँगा जैसे व्रतादि की आज्ञा, आज्ञा समझकर पालन की जाती है। मुझे कब तक इस अनिच्छित कार्य में प्रवृत्त रहना होगा।

बड़ी विकट समस्या थी, महाराज का एक मात्र पुत्र, साम्राज्य का एक मात्र उत्तराधिकारी वैराग्य के लिए आदेश माँग रहा था। कुलगुरु राजवंश के उच्छेद की आज्ञा कैसे दें, दूसरी तरफ एक उत्कट विरक्त सच्चा अधिकारी तीव्रतम अभीप्सु ज्ञान की भिक्षा माँग रहा था। एक महर्षि कैसे उसे ‘न’ कर दे।

अंततः महर्षि ने निश्चय किया और कातर स्तब्ध राजसभा को भी एक क्षीण आश्वासन मिला। “युवराज अभी कुछ दिन मेरे आश्रम में ही रहेंगे।” महर्षि उठे, युवराज ने भी कमण्डलु और मृगचर्म उठा लिया।

आश्रम पहुँच कर युवराज नियमित साधना में तल्लीन हो गए। योग का उद्देश्य क्या है? सायंकालीन हवन समाप्त हो चुका था, धवल ज्योत्सना में स्फटिक की शिला पर मृग चर्म के ऊपर महर्षि देवल इस प्रकार आसीन थे, जैसे ब्रह्मचारियों के सामगान तथा सोम मिश्रित आज्य की आहुति से संतुष्ट अग्निदेव आवाहनीय कुण्ड से मूर्तिमान् होकर अपने कृष्ण मेष की पीठ पर आ विराजे हों। शिष्यों के धूम्राक्त जटा-जाल चरणों में क्रमशः अवनत हुए और आज्ञा पाकर बैठ जाने के अनन्तर एक ने उस गम्भीर शान्ति को जाग्रत किया।

आत्म दर्शन निर्विकल्प समाधि। वह अखण्ड शान्ति जैसे शब्दों में स्वयं बोल रही हो महर्षि जानते थे, प्रश्नकर्ता इनसे वंचित नहीं है। दूसरा उत्तर भी नहीं था। शिष्य जब साधन और योग्यता में गुरु की कक्षा को अतिकानत कर लेता है। तब उसका श्रद्धावनत शिष्यत्व इतना महत्तम होता है कि गुरु के लिए उसे वहन करना सम्भव नहीं रहा जाता। उसे तो वह गुरुओं का परम गुरु ही सम्हाल सकता है, जो शिष्य के लिए प्रत्येक गुरु में प्रत्यक्ष है।

“एक क्रिया अनुभूति शून्य स्थिति जो तमस् से भिन्न है।” प्रश्नकर्ता ने स्पष्टीकरण किया। अनन्त आनन्द अविरल शान्ति कहाँ है वहाँ और यदि हो भी तो अनुभूति के अभाव में क्या उपयोग। साधनों का पर्यवसान यहीं होता है, ऐसा हृदय स्वीकार नहीं करता। इस स्थिति को उत्थानहीन एवं शाश्वत बनाए रखना एक और समस्या है।

‘बाल ऋषि’ राजकुमार अब महर्षि देवल के आश्रम में इसी नाम से पुकारा जाता है। आश्रमवासियों की उसके प्रति अपार आदर भावना है। यद्यपि वह युवक है, किन्तु उसकी प्रकाण्ड प्रतिभा एवं नैसर्गिक साधना सम्पत्ति महर्षि को भी संकुचित करती है उसका प्रणाम स्वीकार करने में। संसार की कर्मभूमि में जीवन वृक्ष की अवस्थिति साधन सुमनों का प्राकट्य करके ही परिपूर्ण होती है। ज्ञान और समाज यही इन सुमनों के सौरभ और मधु में मकरन्द और पराग की उपलब्धि ही सुमन की सम्पूर्णता है।

सुमन की पूर्णता सौंदर्य और आकर्षण रुचि और परिपक्वता समाधि तक ठीक है। प्रश्नकर्ता पूर्ववत् गम्भीर था सुमन की पूर्णता ही तरु की पूर्णता नहीं है, वह फल की अग्रचर्या मात्र है, और तरु की सार्थकता फल में ही है। भले वह सुरभित और मधुमय न हो, किन्तु सुरभि एवं मधु उसके निर्माण के उपादान मात्र है।

“सच्ची बात तो यह है कि यह प्रश्न मेरी शक्ति सीमा के बाहर है।” महर्षि ने बिना किसी संकोच के कह दिया।” फिर भी मैं प्रयत्न करूँगा कि तुम्हें समाधान मिले वह भी कल मध्याह्न पूर्व।” जिनके हृदय वासनाओं की कालिमा से कभी कलुषित नहीं हुए, जिनके संकल्प पर अविश्वास की अन्धी छाया नहीं पड़ती जिनकी भावना विकारों की वन्या में भ्रान्त नहीं होती उनके आह्वान असफल हो नहीं सकते महर्षि देवल ने प्रातः हवन के अनन्तर भगवान सूर्य को अर्घ्य देकर जब दूसरा ऊर्ध्यपात्र अपने दोनों हाथों में सम्हाला, शिष्य वर्ग ने समझ लिया आज उन्हें किसी ऊर्ध्वलोक वासी के स्वागत का सौभाग्य प्राप्त होता है। वे आतुरता पूर्वक आसन, पाद्य एवं पुष्पों के प्रणयन में लग गए।

महर्षि ने भाव भरे नेत्र ऊपर उठाए। नेत्रों की मूक प्रार्थना क्षितिज सूर्यमण्डल शून्य को पार करती कहाँ तक जा रही थी कौन कुछ जाने। कुछ ही क्षणों में सारा वन प्रान्त अद्भुत सुरभि से झूम उठा और महर्षि ने आकाश से उतरते हुए सहस्र-सहस्र सूर्यों के समान आलोक मण्डल को मस्तक झुकाया।

अशोक के नीचे स्फटिक वेदिका पर किसलय एवं सुमनों के आसन को सनकादि कुमारों भूषित किया। महर्षि की पूजा सार्थक हुई। शिष्यों के सन्देह उनके दर्शन से ही उच्छिन्न हो गए थे। आदेश पा कर सब बैठ गए।

महर्षि को कुछ पूछने का अवकाश नहीं, मिला कुमारों ने स्वयं कहना प्रारम्भ किया-सत्संग में जिसकी प्रतीति होती है, प्रचण्ड साधना में जिसकी समीपता का आभास होता है समाधि में जिसका साक्षात्कार होता है, लोक सेवा में उसी परमतत्व की सघन अनुभूति होती है। मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामी भगवन्त इस भाव से की गयी सेवा ही समस्त साधन सुमनों का फल है।”

यही तो आनन्द की अनुभूति है। प्राजंलि राज कुमार भी नेत्रों से बोल रहे थे और अब तुम्हें यह पूछने की आवश्यकता न रहेगी, कि हमें क्या करना चाहिए। सनत्कुमार के वचनों ने एक प्रगाढ़ यवनिका उठा दी। उन्हें तत्व एवं सत्य प्रत्यक्ष हो गया।


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