आज का युगधर्म

December 1995

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“बलिदान” से प्रायः लोग जीवन-बलिदान जीवन-त्याग का अर्थ लगाते हैं, पर बलिदान सदा आत्मोत्सर्ग ही नहीं कहलाता, उसे भी इस श्रेणी में रखा गया है, जिसमें व्यक्ति परहित के लिए अपनी सुविधाओं का, इच्छा-आकांक्षाओं का सहर्ष त्याग कर देता है। यही स्थिति बलिदान था आत्मोत्सर्ग है।

मनुष्य में देवत्व का वास्तविक विकास तब तक शुरू नहीं होता जब तक मनुष्य बृहत् परिवार के लिए अपने स्वार्थ का बलिदान करने और दूसरों को सुख पहुँचाने हेतु अपने आराम तक का उत्सर्ग कर देने के लिए न हो जाये परिवार इस शुभारम्भ का प्रथम चरण हैं। परिवार के बाद समाज या संघ आता है। यहाँ यह सभी को स्वीकार करना ही चाहिए कि मनुष्य पर अपने छोटे परिवार की अपेक्षा समाज को उन्नत एवं सुखी बनाने का कहीं बड़ा दायित्व है। चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार के दृष्टिकोण से समाज के हर नागरिक को उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रयास किया गया या नहीं, यही एकमात्र कसौटी है। इसी का छोटा रूप प्राचीन काल में ग्राम संघ अथवा पंचायत के रूप में जीवित था जिसमें लोगों के बीच इतनी घनिष्ठता का सम्बन्ध होता था कि सम्पूर्ण पंचायत ही परिवार कहलाता था एवं एंघ्झा पंचायत के लिए अपने पारिवारिक स्वार्थ की बलि चढ़ाने के लिए सदा तत्पर रहना जीवन की सर्वप्रथम आवश्यकता थी। अगला विशालीकरण है राष्ट्रगत आत्मा के रूप में राष्ट्र का विकास एक ऐसी प्रगति है जो आधुनिक अवस्था में मानवता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मनुष्य परिवार, तथा वर्ग के स्वार्थ को यह समूची जगती अब विशालतर राष्ट्रीय आत्मा में अपने आपको विलुप्त करना चाहती है जिससे कि मानव जाति में भाव स्वरूप का विकास हो सके। इससे भी अधिक ऊँची एक पूर्णता है जिसके लिए कुछ ही व्यक्तियों ने अपने को तैयार दिखलाया है-वह है सारी मानवता को अपने अन्तर्गत कर लेने के लिए आत्मा का विस्तार। इस अवस्था में ही “वसुधैव कुटुम्बकम्” की सूक्ति चरितार्थ होती है।

किसी भी राष्ट्र के जीवन में दो अवस्थाएँ आती हैं, जिसमें राष्ट्र के प्रति व्यक्ति के कर्तव्य की परिभाषा बदल जाती है। पहली तब जब राष्ट्र अपना निर्माण या नवनिर्माण कर रहा होता है, और अपने प्राचीन कुपरम्पराओं प्रचलनों मूढ़-मान्यताओं को बदलने के लिए व्यक्तियों को केन्द्र बिन्दु मानकर उनके प्रगति एवं चारित्रिक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट बनाने के लिए ताना-बाना बुन रहा होता है दूसरी जब यह निर्मित गठित और शक्तिशाली हो उठता है, इन दोनों शक्तिशाली हो उठता है, इन दोनों ही अवस्थाओं में जन-जन के प्रति कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों, एवं जिम्मेदारियों का स्तर भी बदल जाता है। पहली वह अवस्था है जब राष्ट्र व्यक्ति के सामने अपनी झोली फैलाकर उसकी सीमित महत्त्वाकाँक्षाओं, आत्म सुख, एवं संकीर्णता त्याग की माँग करता है और आशा करता है कि उसके नागरिक कोई ऐसा कदम नहीं उठायेंगे जिसमें राष्ट्र देवता को क्षति पहुँचे-बल्कि उसके अपने परिकर में रहने वाले कुटुम्बी गण, कर्म स्वभाव की दृष्टि कसे, वैचारिक उत्कृष्टता धारण करें। दूसरी अवस्था में राष्ट्र चाहता है कि व्यक्ति अपने आपको विश्व-बन्धुत्व के रूप में विकसित करे, वैसे ही ढंग से जैसे व्यक्ति अपने आपको परिवार में, परिवार समाज में, समाज राष्ट्र के अन्तराल में, रहने से सुरक्षित अनुभव करता है।

इस समय हमारी अवस्था प्राथमिक या निर्माणोन्मुख है और इस अवस्था में प्रत्येक नागरिक का दायित्व विश्व-मानवता के लिए और भी अधिक बढ़ जाता है। इस अवस्था में राष्ट्रवाद की माँग पूरी करना अनिवार्य है। नवीन राष्ट्रीयता का प्रत्येक कार्य कष्ट सहन और आत्म त्याग के लिए पुकारता रहा है। स्वतंत्रता संग्राम में स्वदेशी, पंचायत, राष्ट्रीय शिक्षा, स्वावलम्बन, खादीकरण ऐसी ही पुकार थी। आज उसका स्वरूप बदल गया है। अब आवाज आ रही है पीड़ा एवं पतन निवारण के रूप में आधी जनशक्ति नारी को अधिकार दिलाने के रूप में चिंतन-चरित्र व्यवहार में उत्कृष्टता समाविष्ट करने के रूप में भाव सम्वेदना जगाने अज्ञान दूर करने के लिए ही वह पुकार उठ रही है। उपरोक्त कार्य व्यक्ति और परिवार का राष्ट्र के हितों पर उत्सर्ग के बिना पूरा नहीं हो सकेगा।

देशकाल परिस्थिति के अनुरूप आज की परिभाषा बदल गई है। अब बलिदान का तात्पर्य है, आत्म-सुख का त्याग, व्यक्तिगत बुराइयों को छोड़ना एवं सदाशयता का अनुगामी बनना, महत्त्वाकाँक्षाओं को दबाना एवं लोभ मोह अहंकार से दूर रहना। इसके स्थान पर सम्पर्क क्षेत्र में उत्कृष्टतों को प्रतिष्ठित करना, और उन्हें जन-जन में मनों में पहुँचा देना, ताकि मनुष्य देव तुल्य बन जाय और यह धरा स्वर्ग के समान दिव्य बना जाय। यही है महर्षि अरविंद के अनुसार दिव्य समाज की भव्य कल्पना, जिसे उन्होंने ‘ह्यूमेन साइकिल बलिदान का सिद्धान्त’ पुस्तक में स्पष्ट किया है।


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