साधना समर्पण एवं वातावरण -परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

December 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(कल्प साधना सत्र 1982-83 में शान्तिकुञ्ज परिसर में दिया गया प्रवचन)

गायत्री मन्त्र हमारे साथ-साथ ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

मित्रों, कुछ काम ऐसे होते हैं जिसे बाहर के लोग कर सकते हैं, किन्तु कुछ काम ऐसे हैं जो स्वयं करने चाहिए। दोनों मिलकर एक पूर्णता बनाते है। अकेले बाहर के आधारों से आज तक किसी का काम नहीं चला और न ही अकेले के प्रयास से ही कोई आदमी आज तक सम्पन्न बना है। जब दोनों का सहयोग होता है अर्थात् बाहर का अनुदान और अपना पुरुषार्थ दोनों को मिलाकर के फिर एक बात बन जाती है। खाना पकाकर किसी ने दिया, भोजन बहुत सुन्दर और पौष्टिक भी है, लेकिन उसे हजम तो आपको ही करना पड़ेगा। मुँह से तो उसे आप ही चबायेंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि बाहर वाला ही चबाकर उसे आपके पेट में बैठकर उसे हजम करके खून में शामिल कर दे। यह काम मुश्किल ही नहीं असम्भव भी है। यह काम तो हर हालत में आपको ही करना चाहिए। बाहर का आदमी अधिक से अधिक यह कर सकता है कि आपको बहुमूल्य भोजन बिना कीमत के भी पका कर दे दे और आपको सम्मान पूर्वक खिलाये। इतने से ही उसका काम पूरा हो जाता है, अब आपका काम है कि उसको आप संभाले। आपकी जब शादी हुई थी तब आपको एक अच्छी-खासी धर्म पत्नी मिली थी न किसने दी थी उसे? उस लड़की के माता-पिता ने बड़ी मेहनत से अच्छी सुयोग्य लड़की बना करके, पाल-पोश कर सुशिक्षित बनाकर उसे आपके हवाले किया था। उनका काम पूरा हो गया, लेकिन आपका काम बाकी रह गया है कि घर में धर्म पत्नी के आने के बाद उसकी देख−भाल करें, उसकी जिम्मेदारियों को वहन करें। अगर आप उसकी जिम्मेदारियाँ वहन नहीं कर सकते, उसके रहन-सहन एवं खान-पान का प्रबन्ध नहीं कर सकते और आप उसको इज्जत देकर सहयोग प्राप्त नहीं कर सकते तो उनके माता-पिता का दिया हुआ अनुदान आपके लिए निरर्थक चला जाएगा और वह जो धर्म पत्नी आपको मिली है, आपके लिए भार बनकर रहेगी।

मित्रों, हमने यहाँ जो कुछ भी बनाया है-आपके लिए बहुत कुछ बनाकर रखा है, वह बहुत सुन्दर और शानदार है, लेकिन उसे महसूस तो आपको ही करना है, हजम तो आपको ही करना है। हमारी करने की जो सीमा थी वह हमने पूरे तरीके से कर दिया। क्या कर दिया? आपके लिए एक वातावरण बनाकर के हमने रख दिया यहाँ क्यों बुलाया है आपको? वातावरण का लाभ उठाने के लिए बुलाया है। यहाँ जो भी क्रिया-कृत्य आपसे कराये जा रहे हैं वह तो आप अपने घर पर भी कर सकते है। कौन-सी ऐसी चीज है जो आप घर पर नहीं कर सकते थे? खान-पान सम्बन्धी जो नियम-बन्धन आपको बताये गये हैं, क्या आप उसे घर पर नहीं कर सकते थे? क्यों नहीं कर सकते थे। कौन-सी ऐसी वजह है जो आप नहीं कर सकते हैं? यहाँ जो जप और अनुष्ठान कराया जाता है, क्या आप घर पन नहीं कर सकते थे? जरूर कर सकते थे। जो नियम और मर्यादा पालन करने के लिए यहाँ कहा गया है, वह हमारी पुस्तकें पढ़कर आप घर पर भी कर सकते थे, लेकिन यहाँ क्यों करना पड़ा?

यहाँ का वातावरण ही ऐसा होता है। वातावरण को बनाने के लिए उसने बहुत मेहनत की है। आग को जलाने की कीमत समझिये। वातावरण की कीमत यदि आप नहीं समझ पायेंगे तो बहुत बड़ी भूल करते है।

एक बार गुरु वशिष्ठ ने रामचन्द्र जी से कहा है राम अगर बुढ़ापे का समय आ गया है, अतः अब भगवान की भक्ति और जीवन को ऊँचा उठाने के लिए कुछ प्रबल करना चाहिए। रामचन्द्र जी ने कहा तो फिर बताइये इसके लिए क्या किया जाय? उन्होंने कहा-यहाँ क्या बताऊँ, इसके लिए तो उपयुक्त वातावरण में चलना पड़ेगा। यहाँ ऐसा वातावरण कहाँ हैं? यहाँ अयोध्या के जिस वातावरण में आप रहते हैं, राजपाट के लोग आते रहते है। कितने ही आप से विचार विमर्श करते रहते हैं। कितनों से आपको खीझ पैदा होती है। कितनों से आपको सहयोग-समर्थन मिलता रहता हैं। कितनों से आपका लगाव हैं तो कितनों से आपको न खुशी है। यहाँ के वातावरण में आध्यात्मिकता को पनप पाने की कोई संभावना नहीं है। अतः आपको अयोध्या छोड़नी चाहिए। अयोध्या के साथ जुड़े हुए जो बंधन आपके साथ हैं, वह जब तक आपको जकड़े हुए रहेंगे, मन भगवान की तरफ चलेगा ही नहीं। भक्ति आप कर सकेंगे ही नहीं और न अध्यात्म की तरफ का रास्ता ही खुल सकेगा। इसलिए आपको यहाँ से चलना पड़ेगा। रामचंद्र जी ने कहा-तो फिर कहाँ चलना पड़ेगा। गुरु वशिष्ठ ने कहा-हमारे नजदीक ही, जहाँ हम रहते हैं। गुरु वशिष्ठ की गुफा हिमालय पर थी। वहीं उन्होंने चारों भाइयों को बुला लिया। रामचंद्र जी देव प्रयाग में रहने लगे। लक्ष्मण जी वहाँ रहने लगे, जहाँ आज लक्ष्मण झूला है। भरत जी ऋषिकेश में जाकर जम गये और शत्रुघ्न ने मुनि के रेतों पर अपना स्थान बना लिया। चारों भाई अलग-अलग रहकर गुरु वशिष्ठ के मार्गदर्शन में शिक्षण प्राप्त करने लगे। तो अयोध्या में क्या कमी थी? अयोध्या में वह वातावरण नहीं था जो हिमालय का वातावरण है-संस्कारी वातावरण, जिसमें कि हजारों वर्षों से लोगों ने तप किसे हैं, साधनायें की हैं। वह वातावरण अयोध्या में कहाँ था। वहाँ तो राजपाट होता था, लड़ाई झगड़े होते थे, मुकदमें होते थे, दूसरी बातें होती थीं, पर वहाँ तप का वातावरण नहीं था। हजारों वर्षों से विश्वामित्र सहित अन्यान्य ऋषि-मुनियों ने जो तप किया है उससे हिमालय का वातावरण उच्चस्तरीय बन गया अतः श्री रामचंद्र जी को भी गुरु वशिष्ठ की आज्ञा मानकर देव प्रयाग में रहना पड़ा। अयोध्या में रहकर गुरु वशिष्ठ जी रामचंद्र जी के योग वशिष्ठ नहीं पढ़ा सकते थे। वहाँ वे केवल सलाह दे सकते थे कि राजपाट इस तरह से चलाइये, लेकिन अध्यात्मिक विषयों के लिए उन्होंने भी देव प्रयाग को मुनासिब समझा और हिमालय के उसी वातावरण में साधना करायी। चारों भाइयों समेत भगवान वहीं रहे।

आध्यात्मिक जीवन में उच्च स्तरीय वातावरण की अपेक्षा होती है। केवल आध्यात्मिक जीवन में ही नहीं, साँसारिक जीवन में भी वातावरण की जरूरत होती है। आप साँसारिक जीवन की बात जानते हैं न? साँसारिक जीवन में भी अगर वातावरण न मिले तो बहुत मुश्किलें पैदा हो जाती है। खुशबूदार चंदन मैसूर और केरल में पाया जाता है। इसी चंदन के पेड़ अगर आप वहाँ ले आयें और दूसरी जगह लगा दे तो चंदन तो पैदा हो जायेगा, पर उसमें से वह सुगंध नहीं आयेगी जो पहले वाली पेड़ में थी। ऐसी क्या बात है जो सुगंध को भी बदल देती है? वह है वातावरण जो जलवायु पर टिका हुआ है। नागपुर के संतरे और बम्बई के केले के बारे में आप जानते है न? क्यों साहब वहीं संतरे और केले आप यहाँ ले आइये और लगा कर देखिए कि वैसे मीठे वे नागपुर में और बम्बई में होते हैं, यहाँ भी हैं क्या? नहीं, वैसे मीठे वे आपके यहाँ नहीं हो सकते। कारण एक ही है कि वहाँ के वातावरण की अपनी विशेषता है। बंगाल निवासियों के स्वास्थ्य आपने देखे होंगे वे दुबले पतले और कद में छोटे होते हैं और सीमा प्राँत के लोग लंबे और मोटे होते हैं। क्या खाते हैं वे लोग? वही दाल-रोटी खाते हैं। फिर क्या बात है कि वे इतने मोटे हो जाते हैं और बंगाल वाले कैसे कमजोर रह जाते हैं। यह सब वातावरण का कमाल है।

इस संदर्भ में एक और भी पुरानी बात याद है। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को कंधे पर बिठाकर उन्हें तीर्थयात्रा कराने के लिए ले जा रहे थे। यू. पी. मेरठ के पास एक जगह है जहाँ आकर वह रुक गये और अपने माता-पिता से कहा-क्यों जी! आपकी आँखें ही तो खराब है, टाँगें तो खराब नहीं हैं। हम आपकी लकड़ी पकड़ लेंगे और आप लोग हमारे पीछे-पीछे चलिए न क्यों हमारे कंधे पर सवार होते हैं। श्रवण के माता-पिता अचंभे में रह गये। कंधे पर बैठकर चलने से उनका तो मतलब यह था कि हमारा लड़का सारे संसार भर में अजर-अमर होकर रहे, सारी दुनिया उसका नाम लिया करे, अपने बच्चों को प्यार देने के लिए उसका जीवन एक गाथा बन जाय। उदाहरण बन जाय। उनका मतलब सवारी गाँठने से थोड़े ही था। उन्होंने कहा-अच्छा बेटे जैसे तुम कहोगे हम वैसा ही करेंगे। पर काम करो आज रात को हम ठहरेंगे नहीं यहाँ। यहाँ से हमको बहुत दूर चलना चाहिए और इस क्षेत्र को पार कर लेना चाहिए। श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता का कहना माना और उस इलाके में बहुत दूर चला गया। जैसे ही वह इलाका खत्म हुआ, वैसे ही श्रवण कुमार को बहुत आश्चर्य हुआ। अपने ऊपर और वह फूट-फूट कर रोने लगा। उसने कहा पिताजी मैंने कैसे कह दिया था कि आप अपने पैरों पर चलिए। मुझे यह कितना बड़ा सौभाग्य मिला था जिसे मैं छोड़ना चाहता था। पिता ने कहा-बेटे डरने की बात नहीं है। वस्तुतः जहाँ तुम्हारे मन में वह विचार आया था वह स्थान ऐसा था जहाँ एक मय नाम का दानव था। वहाँ उसने अपने माता-पिता को मार डाला था। बस उसी स्थान से होकर हम चल रहे थे। और उसके संस्कार भूमि में पड़े हुए थे। भूमि के संस्कारों की वजह से तुम्हारे मन में वह विचार आये थे। अब हम उस क्षेत्र से निकल आये हैं अतः सब कुछ सामान्य हो गया है।

अब आप समझ गये होंगे कि वातावरण का कितना भारी असर होता है। आपको हमने इसलिए यहाँ के वातावरण में बुलाया है हिमालय के नजदीक बुलाया है। हिमालय यहीं से शुरू होता है। यहीं शिव और सप्तर्षियों का स्थान था। स्वर्ग कहाँ था? स्वर्ग हिमालय के उस इलाके में था जिसको नंदनवन कहते है। गोमुख से आगे। स्वर्ग जमीन पर था। सुमेरु पर्वत भी वहीं है। देवता भी इसी इलाके में रहते थे हिमालय वाले क्षेत्र में। सारे के सारे महत्वपूर्ण ऋषि व सप्तर्षियों से लेकर सनक-सनन्दन तक एवं नारद से लेकर आदि गुरु शंकराचार्य तक जितने भी महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं, उनकी साधना इसी स्थान में हुई है। इसलिए हिमालय का अपना वातावरण है। गंगा की महत्ता तो आप जानते हैं न? गंगा की कितनी बड़ी महत्ता। गंगा को सारा संसार जाने क्या-क्या मानता है। भौतिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी। यहाँ गंगा जी प्रवाहित होती है। जिस स्थान पर हमने यह शान्तिकुञ्ज बनाया है। हमारे गुरुदेव ने इस स्थान का महत्व बताया था कि यहाँ सात ऋषियों का तप हुआ था। यहाँ सात ऋषियों की सात गंगाएँ थी। दो गंगाएँ गायब हो गयी हैं, परंतु पाँच गंगाएँ अभी भी दिखायी देती हैं।दो गंगाएँ जो गायब हो गयी हैं, वह कहाँ गयी? वह इसी स्थान पर थी जहाँ आज शान्तिकुञ्ज बना है। एक धारा यहाँ बाहर बहती थी जिसे बाँध बनाकर रोक दिया गया था तब भी गंगा का पानी जमीन में से उछलता रहता है। आप कहीं भी जरा सा गढ्ढा खोदिए, गंगा जल तैयार है। यह गंगाजी की विशेषता है। शान्तिकुञ्ज हिमालय के द्वार पर बना है। यहाँ ऐसा प्राणवान सान्निध्य है जहाँ शेर और गाय प्राचीनकाल की भाँति एक साथ पानी पीते हैं। ऐसा ही वातावरण है यहाँ शान्तिकुञ्ज में। यहाँ ऐसे लोगों का सान्निध्य आपको मिला है जिसके लिए अगर आप सारे हिंदुस्तान में घूमे और यह तलाश करें कि ऐसे प्राणवान सान्निध्य कहीं मिलेंगे क्या? ऐसे प्राणवान सान्निध्य प्राचीनकाल में तो शायद हुए हों, पर आज आपको ऐसा आध्यात्मिकता का सही वातावरण अन्यत्र मिलेगा नहीं जैसे कि शान्तिकुञ्ज में हमने बनाकर रखा हैं और आपको यहाँ साधना करने के लिए बुलाया है।

तो गुरुजी क्या इतने भर से बात पूरी हो जायेगी? नहीं बेटे, इतना ही पर्याप्त नहीं। आपको इसके साथ में अपनी श्रद्धा सँजो करके रखनी पड़ेगी। श्रद्धा को आप सँजोकर अगर नहीं रखेंगे तब फिर यह जमीन भी वैसी ही है जैसे की मछली पकड़ने वाले गंगा जी में घूमते रहते हैं, पर श्रद्धा उनमें नहीं है तो उससे कोई फायदा नहीं। अगर श्रद्धा के भाव हैं तो यही गंगा तरण-तारिणी बन जाती है और अपने बच्चों का उद्धार कर देती हैं और श्रद्धा के अभाव में यही केवल नहर रह जाती है, सामान्य-सा पानी रह जाती है। आपको अपनी श्रद्धा समुन्नत करनी पड़ेगी। अगर आप यहाँ निवास करते हैं तो कृपा करके अपनी श्रद्धा को जीवंत कीजिए और यह अनुभव करना शुरू कीजिए कि आप किसी ऐसे स्थान पर निवास करते हैं तो कृपा करके अपनी श्रद्धा को जीवंत कीजिए और यह अनुभव करना शुरू कीजिए कि आप किसी ऐसे स्थान पर निवास करते हैं जहाँ का वातावरण आपकी साधना को सफल बनाने में समर्थ है। यह सप्तर्षियों की तपस्थली गायत्री के ऋषि विश्वामित्र जिन्होंने गायत्री महामंत्र का साक्षात्कार किया था, ठीक इसी स्थान पर तप करते थे। सात ऋषि हैं, उनमें से एक विश्वामित्र भी हैं। विश्वामित्र कहाँ रहते थे? उनकी कुटिया कहाँ थी? यहाँ थी, जहाँ आज शान्तिकुञ्ज है। यह विश्वामित्र का स्थान है।

वातावरण का कितना असर पड़ता है, देखा है न आपने। टिड्डा बरसात के दिनों में हरे रंग का होता है और गर्मी के दिनों में पीले रंग का हो जाता है। क्यों पीला हो जाता है? इसलिए हो जाता है कि चारों ओर सूखी हुई घास, फैला हुआ रेत दिखायी पड़ता है। उसको देखते-देखते वह पीले रंग का हो जाता है, जबकि बरसात में चारों ओर हरा रंग छाया रहता है, अतः वह हरा हो जाता है। भट्टी गरम होती है तो उसके नजदीक बैठने वाले भी गरम हो जाते हैं। बरफ की छतरी में आप कभी घुसे तो उसमें ठंडक पड़ती रहती है और उसमें जो भी घुसता है वह भी ठंडा हो जाता है। आपको भी यही अनुभव होगा यहाँ। यह आपको तो अनुभव करना ही होगा यहाँ। यह आपको तो अनुभव करना ही है लेकिन एक बात और रह जाती है जिसके बिना यदि आप चाहें कि यहाँ के वातावरण का पूरा लाभ मिल जाय तो वह मिल नहीं सकेगा। इसके लिए श्रद्धा बहुत जरूरी है। श्रद्धा अगर आपके अंदर न हो और आप केवल इसकी इमारत देखते हों, आश्रम देखते हों, कोई क्वार्टर देखते हों, कोई होटल या धर्मशाला देखते हों तो फिर आपके लिए ठीक वही है जो आप देखते हैं। आपकी श्रद्धा अगर जमी तो वह तीर्थ है। गायत्री का हमने इसे तीर्थ बनाया है। इसमें तीर्थों की जो भी विशेषताएँ पैदा की है। हमने इसमें कोई कमी नहीं छोड़ी है जो कि एक शानदार, श्रेष्ठ समर्थ तीर्थ बनाने के लिए किसी स्थान के लिए जो प्रयत्न किये जाने चाहिए, वह सारे प्रयत्न किये गये है।

रामचंद्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे, इसीलिए दशाश्वमेध घाट तीर्थ हो गया। दुनिया में और भी बड़ी-बड़ी बातें होंगी, बड़े-बड़े स्थान होंगे, पर सब तीर्थ थोड़े ही हो जायेंगे। प्रकृति के सभी स्थान ऐसे ही ऐसे ही थे, लेकिन जब कोई महान घटना घटित हो गयी और कोई महान कार्य सम्पन्न हो गये तो वही स्थान तीर्थ बन गये। तीर्थ के लिए भूमि को संस्कार बनाना पड़ता है। प्राचीनकाल में ऋषियों ने गुरुकुल बनाये थे, आश्रम एवं आरण्यक बनाये थे, जहाँ साधना के बड़े-बड़े अनुष्ठान सम्पन्न होते थे। हम सभी यही कर रहे हैं। यहाँ चौबीस-चौबीस लक्ष्य के कितने अनुष्ठान हो चुके हैं, आप जानते हैं न। हर साल यहाँ नवरात्र में चौबीस करोड़ का पुरश्चरण हो जाता है। हर दिन वहाँ नौ कुण्डीय यज्ञ में हजारों आहुतियाँ दी जाती हैं। यहाँ अखण्ड दीपक जलता रहता है। यहाँ हमारी और माताजी की नियमित रूप से कठोर तपश्चर्या अभी भी चलती रहती है। इससे वातावरण बनता है तो हमारे गुरुदेव परोक्ष रूप से आते ही रहते हैं। आपके अंदर श्रद्धा हो तो यहाँ गायत्री माता का प्रकाश और आलोक आप चाहे जिधर अनुभव कीजिए कि आप यहाँ माता जी के गर्भ में निवास करते हैं। मुर्गी अपने अंडे को छाती से लगाकर जिस तरह बैठी रहती है और अंडे पकते रहते हैं, हम लोग भी उसी तरह से आपको अपनी छाती से लगाये बैठे रहते हैं और आपको पकाते रहते है। इतना होते हुए भी इस बात के लिए विशेष रूप से निवेदन किया जा रहा है कि आपकी स्वयं की श्रद्धा जीवंत रहनी चाहिए। अगर आपने अपनी श्रद्धा का परित्याग कर दिया तो इस वातावरण से आपको कतई कोई लाभ नहीं मिलेगा। जैसे दूसरे लोग भी यहाँ आते हैं, कोई चोर, उचक्के-उठाईगीर भी आते होंगे, कोई मेहनत मजदूरी करने वाले भी आते होंगे। स्कूटर वाले, मोटर ड्राइवर भी आते हैं, बीड़ी पीते रहते हैं और खाली हाथ चले जाते हैं। कारण उनके लिए शास्त्र का, श्रद्धा का कोई महत्व नहीं। श्रद्धा के अभाव में बाहरी चीजें कोई ज्यादा लाभ नहीं दे सकती।

आपको आज मैं भावश्रद्धा के ऊपर बहुत जोर देना चाहता हूँ। अगर आप यहाँ से लाभ उठाना चाहते हो तो आप श्रद्धा मत छोड़ना, श्रद्धा को जागृत-जीवंत कर लिया तो आप के यहाँ के कण-कण में अमृत बरसता हुआ और आलोक उछलता हुआ उभरता हुआ देखेंगे अगर श्रद्धा है तो नहीं हैं तो फिर सब कुछ मिट्टी है और दूसरी इमारतें जैसी होती हैं, वैसी ही यह भी दीखेंगी। मीरा को एक पत्थर का टुकड़ा दे दिया गया था। उस पत्थर के टुकड़े को लेकर के मीरा ने यह मान लिया था कि ये हमारे पति हैं, और ये भगवान हैं। उनकी श्रद्धा ने उस पत्थर को साक्षात भगवान बना दिया। उस गिरधर गोपाल ने मीरा को भेजा गया जहर का प्याला भी पी लिया था और मीरा बचे हुए पानी को पीकर के ज्यों की त्यों बनी रही। साँप का पिटारा आया था तो गिरधर गोपाल साँपों से खेलते रहे। मीरा ने आखिर में पिटारे को बंद कर दिया। मीरा को किसी ने नहीं काटा और न ही कोई नुकसान हुआ। यह कैसे हो गया? गिरधर गोपाल के कारण। गिरधर गोपाल कौन? पत्थर का टुकड़ा। नहीं, मीरा की श्रद्धा सिक्त प्रगाढ़ भावना के मिल जाने से ही पत्थर गिरधर गोपाल बन सका। अब वही पत्थर जहाँ का तहाँ पड़ा हुआ है। आप जाकर देख सकते हैं, उसमें कोई चमत्कार नहीं है। पत्थरों में क्या चमत्कार हो सकता था, और क्या होगा? श्रद्धा ही है जो पत्थर को भी भगवान बना सकती है। एकलव्य की बात सुनी है न आपने। वह भील का एक लड़का था जिसमें मिट्टी के वह द्रोणाचार्य इतने समर्थ हुए कि जो कौरवों और पाण्डवों को बाण विद्या असली द्रोणाचार्य ने सिखायी थी उससे कहीं ज्यादा उस एकलव्य का आ गयी।

रामकृष्ण परमहंस काली के अनन्य उपासक थे। लोगों ने रानी से शिकायत कर दी कि जो भोग है वह स्वयं खा जाते हैं और जूठन फैला देते हैं। रानी रासमणि एक दिन छत पर गयीं और वहाँ से छिप करके देखती रही सारा नजारा। सही बात यह हुई कि रामकृष्ण काली से कहने लगे -माँ आप भोजन कीजिए। वह चुप रही क्या कहतीं। रामकृष्ण ने कहा -अच्छा पहले बेटा खा लेगा तब माँ खायेगी। उन्होंने ऐसा ही किया। आधा भोजन स्वयं कर लिया और जब काली से कहा तो -माता अब आपको करना पड़ेगा। तभी रानी रासमणि ने देखा कि पत्थर की मूर्ति के हाथ हिलने लगे और उन्होंने थाली में जो भोजन था वह उठाया और निगल लिया। सारा भोजन वे खा गयीं। खाली थाली धोने के लिए रामकृष्ण परमहंस बाहर निकल रहे थे तभी रानी रासमणि आयीं और उनके चरणों में गिर पड़ी। उन्होंने कहा-देव आप साक्षात काली हैं। यह बात सही है, कि रामकृष्ण परमहंस साक्षात काली थे, क्योंकि अपनी श्रद्धा से उन्होंने पत्थर की मूर्ति को साक्षात काली बना दिया था। रामकृष्ण ने जब विवेकानंद से कहा कि काली माँ के पास जा और नौकरी माँग ले तो विवेकानंद ने वहां जाकर देखा कि विशालकाय काली जमीन से लेकर आकाश तक को छू रही थी। वहां कहाँ से पैदा हुई थीं-उसी पत्थर में से पैदा कर दी थी रामकृष्ण परमहंस ने। वह उनकी श्रद्धा से बनी थी। अब भी वहीं मूर्ति को सोने की जीभ चुरा ले गये थे। तब वह पत्थर ही रह गयी थीं पत्थर को साक्षात् काली बना देने का श्रेय रामकृष्ण परमहंस को है।

कबीर को दीक्षा देने के लिए स्वामी रामानंद तैयार नहीं थे। कबीर सीढ़ी पर जाकर सो गये। रामानंद उधर से निकले तो उनका पैर अँधेरे में कबीर के ऊपर पड़ गया। राम-राम कहकर वे पीछे हट गये। कबीर ने कहना शुरू कर दिया कि मेरे गुरु स्वामी रामानंद है। उन्होंने मंत्र दे दिया है दीक्षा दी है। स्वामी जी ने पूछा-तू गलत–सलत बात क्यों कहता है। कबीर ने कहा-नहीं आपने मेरे सीने पर पैर रख दिया था और आपने सीढ़ियों पर राम-राम कह था। बस मेरे लिए तो आप ही गुरु हो गये। आप लोग भी इस श्रद्धा के महत्व को समझें। अगर श्रद्धा का अभाव रह गया तो आप बिलकुल खाली हाथ चलें जायेंगे और हमारा परिश्रम बेकार चला जायेगा। आप कृपा करके अपनी श्रद्धा जगाइये। आपको अंध श्रद्धा के लिए यहाँ कुछ नहीं कहा जा रहा है। यहाँ का परिपूर्ण वातावरण है। आप चाहें तो सच्चाई के साथ इसको परख भी सकते हैं। श्रद्धा उत्पन्न कीजिए, अभी आपके हिस्से का काम पूरा कर दिया। आप और हम दोनों अपने-अपने हिस्से का काम पूरा कर लें तो हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि यह कल्प साधना आपके लिए सौभाग्य से भरा पूरा होगा और हमारे लिए संतोष का। आज की बात समाप्त। ॐ शाँति


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118